Smriti Irani : इन पांच वजह से स्मृति ईरानी ने जीता लोकसभा का रण

Smriti Irani : इन पांच वजह से स्मृति ईरानी ने जीता लोकसभा का रण
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अमेठी सीट से इस बार स्मृति ईरानी ने 55,120 वोटों से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को हराकर जीत हासिल की है। स्मृति को 4 लाख 68 हजार 514 वोट मिले जबकि राहुल गांधी की झोली में 4 लाख 13 हजार 394 वोट आए। इन आम चुनावों में यह सीट दोनों ही पार्टियों के लिए बेहद अहम थी। इस पारंपरिक सीट पर राहुल गांधी 2004 से लगातार जीत दर्ज कर तीन बार सांसद रहे चुके हैं।

जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, मेहनत और प्रतिबद्धता हर मुश्किल आसान कर सकती है। सत्रहवीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनावों में अमेठी से सांसद चुनकर आईं, स्मृति ईरानी ने भी यही बात साबित की है। यह उनकी मेहनत, प्रतिबद्धता, आमजन से नियमित जुड़ाव, उनकी समस्याएं सुनने-समझने और अपने निर्वाचन क्षेत्र की जनता का भरोसा जीतने का ही नतीजा है कि अमेठी की जनता ने संसद पहुंचाया है।

अमेठी सीट से इस बार स्मृति ईरानी ने 55,120 वोटों से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को हराकर जीत हासिल की है। स्मृति को 4 लाख 68 हजार 514 वोट मिले जबकि राहुल गांधी की झोली में 4 लाख 13 हजार 394 वोट आए। इन आम चुनावों में यह सीट दोनों ही पार्टियों के लिए बेहद अहम थी। इस पारंपरिक सीट पर राहुल गांधी 2004 से लगातार जीत दर्ज कर तीन बार सांसद रहे चुके हैं। अमेठी कांग्रेस का गढ़ रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में राहुल ने स्मृति को 1,07,903 वोटों से हराया था।

बरसों तक कांग्रेस के हिस्से रही अमेठी की सीट पिछली बार मोदी लहर में भी स्मृति ईरानी के हिस्से नहीं आई थी। बावजूद इसके बीजेपी ने स्मृति को इस बार फिर यहां से मैदान में उतारा और उन्होंने अपनी जीत दर्ज की। यही वजह है कि अमेठी की सीट की सबसे ज्यादा चर्चा में रही। हार के बावजूद बीते पांच सालों में स्मृति अपने निर्वाचन क्षेत्र से नियमित जुड़ीं रहीं। वहां के लोगों से सहज संवाद बनाए रखा। निःसंदेह उनकी यह सक्रियता अमेठी के लोगों के लिए जुड़ाव का सकारात्मक सन्देश और विकास की उम्मीद बनी।

असल में 2019 के लोकसभा चुनावों में स्मृति की जीत और पांच साल पहले की हार, दोनों गहन विमर्श का विषय हैं। हालिया चुनावों में देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी से उसकी परम्परागत सीट छीनने की बात हो या पिछले आम चुनावों में हार के बावजूद अमेठी से जुड़े रहने की कवायद। इस युवा महिला नेत्री की यह जीत भारत के राजनीतिक पटल पर बदलती सियासत की ही नहीं, आमजन की सोच में आए बड़े बदलाव की भी सूचक है।

यह परिवर्तन बताता है कि जनमानस में अब वंशवाद और पारिवारिक नाम के बदले प्रत्याशी का मान रख लेने का तयशुदा व्यवहार नहीं बल्कि अपने क्षेत्र के विकास को अहमियत देने की सोच आ रही है। जनमानस की इस सधी सोच ने इन चुनावों में अमेठी में ही नहीं देश के हर हिस्से में जाति, संप्रदाय और धर्म के समीकरण भी ध्वस्त कर दिए हैं। जनता, अब खांचों में बंटकर नहीं सोचती। अपनी समस्याओं का हल चाहती है।

उम्मीदवार की अपने क्षेत्र में उपस्थिति के मायने जानती है। स्मृति ने पूरे पांच साल आम लोगों के बीच अपनी मौजूदगी बनाए रखी और लोगों का विश्वास जीता। निःसंदेह, अमेठी से स्मृति ईरानी का जीतना 2019 का सबसे बड़ा उलटफेर कहा जा सकता है। क्योंकि रायबरेली और अमेठी की सीटों पर कांग्रेस हमेशा जीतती रही है। गांधी परिवार के लिए सबसे सुरक्षित अमेठी सीट पर यह तीसरा मौका है, जब कांग्रेस पार्टी को पराजय मिली है।

पहली बार 1977 में संजय गांधी और दूसरी बार 1998 में सतीश शर्मा इस सीट से हारे थे। हाल ही में राहुल गांधी का हारना भी काफी चौंकाने वाला है। दरअसल, अमेठी की जनता से सीधा संवाद न कायम करना राहुल गांधी की हार की बड़ी वजह रही। वहीं स्मृति का आमजन से सहज संवाद बनाना, काफी सकारात्मक रहा। राहुल हमेशा की तरह इस बार भी नेहरू-गांधी परिवार के उत्तराधिकारी के रूप में चुनाव मैदान में उतरे,

जबकि स्मृति ने खुद को बीजेपी की एक आम कार्यकर्ता की तरह अमेठी तक सीमित कर लिया। यही वजह है कि अमेठी सम्मान और बदलाव की लड़ाई का मैदान बन गई। ऐसे में सोशल मीडिया और सामाजिक जागरूकता के इस दौर में लोगों ने बदलाव की उम्मीद को चुना। यह जीत केवल राजनीतिक विश्लेषण की बात भर नहीं है। इसके सामाजिक-मनोवैज्ञानिक पहलू भी हैं। हार हो या जीत, अपने क्षेत्र के लोगों से सदा जुड़े रहने का विश्वास दिलाकर स्मृति गांधी परिवार का यह किला भेद पाईं।

निःसंदेह, स्मृति ईरानी की जीत भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की तरह है। जिस देश में जीते हुए जन-प्रतिनिधि भी जनता से दूरी बना लेते हैं। सालों-साल अपने निर्वाचन क्षेत्र की सुध नहीं लेते। वहां स्मृति ईरानी हारने के बावजूद अमेठी से जुड़ीं रहीं। कहना गलत नहीं होगा कि राजनीति में अब पारिवारिक नाम नहीं बल्कि काम को देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यही वजह है कि इन चुनावों में राहुल गांधी ही नहीं और भी कई खास परिवारों के नामी चेहरों को पराजय का सामना करना पड़ा है।

ऐसे नतीजे बताते हैं कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में जनता ही सर्वोपरि है। उसका वोट हासिल करने की कोशिशें तो बरसों से चुनावी रणनीति का हिस्सा रही हैं, लेकिन बदलाव और जन-जागरूकता के इस दौर अब लोगों का मन जीतना भी जरूरी है। अच्छी कार्यशैली, सहज संवाद और लोगों के बीच जन-प्रतिनिधियों की मौजूदगी ही आम लोगों के मन को जीतने का जरिया बन सकती है। जो सही मायने में लोकतंत्र की मजबूती और जन सामान्य की बेहतरी से जुड़ा पक्ष है।

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