जश्न-ए-आजादी : देश इमारतों, प्रतीकों और चिन्हों से नहीं 'इंसानों' से बनता है

जश्न-ए-आजादी : देश इमारतों, प्रतीकों और चिन्हों से नहीं इंसानों से बनता है
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एक तरफ हाईक्लास हॉस्पिटल और दूसरी तरफ जर्जर होते सरकारी अस्पताल, एक तरफ प्रेम सद्भभाव तो दूसरी तरफ जातीय हिंसा और नफरत, एक तरफ दूध से नहाती मूर्तियां तो दूसरी तरफ तेजाब से जलती लड़किया, एक तरफ फेकी जाती रोटियां तो दूसरी तरफ फेकी रोटियों को उठाते लोग। ऐसे ही तमाम उदाहरण हैं जो एक ही देश को दो हिस्सों में बटा हुआ दिखाता है।

देश प्रतीकों चिन्हों और स्मारकों से नहीं बनता बल्कि देश बनता है लोगों से। और जब देश के लोग ही हैरान, परेशान और भूखे रहेंगे तो आजादी का ये जश्न थोड़ा सा हल्का ही लगेगा। क्योंकि जितना देश हमारा है उतना ही उस गरीब इंसान का भी जिसके घर आज दो वक्त की रोटी नहीं है। जिस पिछले पंद्रह दिन से मालिक ने मजदूरी नहीं दी है। जिसके बच्चे भूखे हैं। जिन्होंने स्कूल और भीख में भीख मांगना चुन लिया है। और उसके आगे उन्हें न भारत से मतलब रहा और न ही देश की आजादी से।


अब सवाल उठता है कि क्या इन लोगो के चक्कर में हम ब्रिटिश हुकूमत (British rule) से मिली आजादी का जश्न भी न मनाएं? इसका जवाब एकदम सीधा है कि जश्न तो मनाना ही चाहिए आखिर हमने लंबी लड़ाई लड़कर देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त किया था। 15 अगस्त 1947 को नया सूरज खिला था जिसकी रोशनी में भारत एकदम नया होकर चमक रहा था। हर संसाधनों पर, कानूनों पर देश के लोगों का अधिकार था।


भारत आजाद हुआ। संविधान बना। चुनाव हुआ और एकदम नई सरकार बनी। दुनिया की रफ्तार में पिछड़ चुके भारत को आगे ले जाने के लिए तमाम योजनाओं की शुरूआत की गई। उसका लाभ भी लोगों को मिला। इसी बीच देश में भ्रष्ट्राचार नामक एक बीमारी पैदा हुई। इस बीमारी से तमाम नेता, मंत्री और अधिकारी ग्रसित हुए और गरीबों तक पहुंचने वाली योजनाओं को खाना शुरू कर दिया।


भारत आजादी के गीत गाता रहा। देश में हर साल 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस (Independence Day) और 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस (Republic Day) को तिरंगा फहराने और राष्ट्रगान गाने को हमने असली देशभक्ति मान लिया। निःसंदेह तिरंगा फहराना और राष्ट्रगान गाना देशभक्ति है पर देशभक्ति के लिए कई और चीजें करने की जरूरत है जिसे लोग नहीं कर रहे हैं।

हमारे आसपास बहुत सारे बच्चे भीख मांगते दिख जाते हैं। पढ़ाई की उम्र में भीख मांगते इन बच्चों को देखकर हमें दया आती है और हम दो रुपए देकर अपनी जिम्मेदारी को पूरा समझ लेते हैं। दरअसल ये पूरी जिम्मेदारी नहीं है। आपकी जिम्मेदारियों में ये होना चाहिए कि ऐसे बच्चों के जीवन को कैसे समान्य बच्चों सा जीवन बनाया जाए। ये कठिन काम तो है पर उन्हें भीख मांगने से अगर आप आजाद कर सकते हैं तो फिर आपकी आजादी में चार चांद लगने तय हैं।


एक तरफ हाईक्लास हॉस्पिटल और दूसरी तरफ जर्जर होते सरकारी अस्पताल, एक तरफ प्रेम सद्भभाव तो दूसरी तरफ जातीय हिंसा और नफरत, एक तरफ दूध से नहाती मूर्तियां तो दूसरी तरफ तेजाब से जलती लड़किया, एक तरफ फेकी जाती रोटियां तो दूसरी तरफ फेकी रोटियों को उठाते लोग। ऐसे ही तमाम उदाहरण हैं जो एक ही देश को दो हिस्सों में बटा हुआ दिखाता है।


सिर्फ अपने बारे में सोचने भर से देश का कल्याण नहीं होने वाला। बेहतर होती चीजों की तारीफ करते हुए बदतर होती चीजों से मुंह नहीं फेरना चाहिए। जहां भी लगे यहां इलाज की जरूरत है वहां तुलनात्मक स्वस्थ होने का ढोंग नहीं करना चाहिए। किसी एक तरफ को ही अच्छा मानकर दूसरों को कोसना बेहतर नहीं। असल आजादी प्रेम सद्भभाव में बसी है न कि नफरत में.....

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