क्या होते हैं ग्लेशियर, आखिर क्यों फटते हैं, बादल फटने से ज्यादा खतरनाक हैं या कम, सब जानिये...

उत्तराखंड के चमोली में ग्लेशियर के फटने से भारी तबाही हुई है। इस आपदा में ऋषि गंगा और तपोवन हाईड्रो प्रोजेक्ट पूरी तरह ध्वस्त हो गए हैं, वहीं सैकड़ों लोग लापता है। यह पहली बार नहीं है, जब ग्लेशियर फटने से जानमाल का नुकसान हुआ है। इससे पहले भी ऐसी कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं। चलिये बताते हैं कि ग्लेशियर क्या होते हैं और इनके फटने का कारण क्या है।
पृथ्वी की सतह पर विशाल आकार की गतिशील बर्फराशि को ग्लेशियर कहा जाता है। भारत में पानी के बड़े स्रोतों के रूप में ग्लेशियर मौजूद हैं। क्लाइमेट चेंज के कारण पृथ्वी के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है, जिस कारण ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं। भूगर्भीय हलचल जैसे भूकंप आदि से भी हिमालय के अत्यधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों के हिमखंड टूटकर नीचे की ओर बहते हैं। उनके साथ चट्टानें भी बहकर आ जाती हैं। एक स्थान पर यह बहाव रूक जाता है और झील का रूप ले लेता है। इसे ग्लेशियर झील कहा जाता है।
ग्लेशियर झीलों में जब पानी का दबाव बढ़ जाता है तो एक वक्त ऐसा आता है, जब यह उस दबाव को सहन नहीं कर पाती और फट जाती है। ऐसे में जलप्रलय होता है, जिसकी जद में आने वाली हर चीज तबाह हो जाती है। अगर नदी पर कोई बांध या बिजली परियोजना है तो नुकसान और ज्यादा बढ़ जाता है। भारत में बहुुत सी ग्लेशियर झीलें नदियों के किनारे पर ही स्थित हैं। ऐसे में यहां जब भी ऐसी आपदा आती है, भारी नुकसान झेलना पड़ता है।
बादल फटने से भी होती है जलप्रलय
बादल फटने से भी जलप्रलय की कई घटनाएंं भारत में हो चुकी हैं। बादल फटने की सबसे ज्यादा घटनाएं हिमाचल प्रदेश में हुई हैं। जब भी कोई बादल फटता है तो लाखों लीटर पानी एकसाथ गिरता है, जिससे उस क्षेत्र में बाढ़ आ जाती हैै। एक रिपोर्ट के मुताबिक बादल फटने से उस क्षेत्र में 75 एमएम से लेकर 100 एमएम प्रतिघंटे की दर से बारिश होती है। भारत में बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से उठे मानसून के बादल जब उत्तर की ओर बढ़ते हैं, तो हिमालय उनके लिए अवरोधक का काम करता है। हिमालय से टकराने के बाद बादल फट जाते हैं। कई बार गर्म हवाओं से टकराव होने के कारण भी बादल फटने की घटनाएं सामने आई हैं। 26 जुलाई 2005 में मुम्बई में गर्म हवा के कारण ही बादल फटने की त्रासदी हुई थी, जिसमें 52 लोकल ट्रेनों और 950 बेस्ट बसों के क्षतिग्रस्त होने समेत भारी नुकसान हुआ था। 2013 में दुनियाभर को हिलाकर रख देने वाली केदारनाथ त्रासदी का कारण भी बादल फटना ही था।
आपदा प्रबंधन के बेहतर इंतजाम जरूरी
वैज्ञानिक अध्ययनों से ग्लेशियर झीलों की स्थिति का पता लगाकर यह अनुमान लगाना संभव है कि अगर कभी ग्लेशियर झील फटी तो कहां तक, कितना क्षेत्र और आबादी प्रभावित होंगे। नई परियोजनाओं में वैज्ञानिक उन उपायों को लागू भी कर रहे हैं, जिससे अगर कोई प्रोजेक्ट इन प्राकृतिक आपदाओं की जद में आ जाए तो भी नुकसान कम से कम रखा जा सके। हालांकि चुनौतीपूर्ण पहलु यह है कि बादल फटने का पता लगाना या इसे रोकने की कोई तकनीक नहीं है। इस कारण ऐसी आपदाओं से बचने के लिए बाढ़ प्रबंधन ही एकमात्र उपाय है।
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