Climate Change: 2030 तक उत्सर्जन कटौती की राह से भटके विकसित देश, अमेरिका संग यूरोपीय संघ और रूस की भागेदारी ज्यादा

Climate Change: 2030 तक उत्सर्जन कटौती की राह से भटके विकसित देश, अमेरिका संग यूरोपीय संघ और रूस की भागेदारी ज्यादा
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Climate Change: विकसित देशों के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 2030 तक कमी करने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। विकसित देशों द्वारा 2030 में सामूहिक रूप से लगभग 3.7 गीगा टन अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करने का अनुमान है। पढ़ें रिपोर्ट...

Climate Change: विकसित देशों द्वारा 2030 में सामूहिक रूप से लगभग 3.7 गीगा टन अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करने का अनुमान है। यह उत्सर्जन 2015 के पेरिस समझौते के तहत उनके राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों में घोषित कटौती लक्ष्यों की तुलना में 38 प्रतिशत ज्यादा है, जिसके 83 प्रतिशत हिस्से के लिए अमेरिका, यूरोपीय संघ और रूस जिम्मेदार हैं। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, केवल दो विकसित देश यानी नॉर्वे और बेलारूस ही 2030 तक अपने उत्सर्जन कटौती के वादों को पूरा करने के रास्ते पर चल रहे हैं।

विकसित देश कार्बन उत्सर्जन में नहीं कर रहे कटौती

विकसित देशों के उत्सर्जन कटौती के प्रयास विकासशील देशों के लिए उपलब्ध कार्बन बजट पर असर डालते हैं। यह विकासशील देशों के लिए चुनौती बढ़ा देता है, क्योंकि उन्हें अपनी आर्थिक-सामाजिक विकास की चुनौतियों से निपटने और न्यायसंगत परिवर्तन को सुनिश्चित करने के लिए कार्बन बजट में पर्याप्त हिस्सेदारी की जरूरत है। वर्तमान में, विकसित देशों की 2030 के लिए घोषित एनडीसी सामूहिक रूप से उनके 2019 के उत्सर्जन स्तरों में 36 प्रतिशत कटौती का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन उनका यह लक्ष्य वैश्विक स्तर पर 43 प्रतिशत की औसत कटौती से कम है, जो 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य को बरकरार रखने के लिए आवश्यक है।

विकसित देश 2030 तक भी लक्ष्य को नहीं कर पाएंगे पूरा

विकसित देशों के 2030 एनडीसी लक्ष्यों के पूरा हो पाने का अनुमान नहीं है। इस विफलता का असर वर्तमान में उपलब्ध सीमित वैश्विक कार्बन बजट पर पड़ेगा, विशेषकर भारत जैसे विकासशील देशों पर। यह ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) के लिए भी महत्वपूर्ण है कि वह ऐसे आकलन तैयार करें, न कि सिर्फ विकसित देशों से मिलने वाले आकलनों पर भरोसा करें, जो उभरती अर्थव्यवस्थाओं के उत्सर्जन पर पक्षपाती रूप से ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐतिहासिक उत्सर्जकों और वित्तीय रूप से सक्षम अर्थव्यवस्थाओं के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए, विकसित देशों को उत्सर्जन कटौती के वैश्विक औसत को पाने भर से कहीं ज्यादा प्रयास करने चाहिए।

अनुमानों से पता चला है कि विकसित देश 2030 के बाद बड़े पैमाने उत्सर्जन कटौती पर निर्भर हैं। भले ही सभी विकसित देशों को 2050 तक नेट-जीरो लक्ष्य तक पहुंचना हो, लेकिन उन्हें 1990 से 2020 के दौरान हासिल औसत वार्षिक कटौती से चार गुना ज्यादा कटौती करने की जरूरत होगी। इस अध्ययन में यह भी अनुमान लगाया गया है कि विकसित देशों के 2050 तक नेट-जीरो होने की स्थिति में भी वे सामूहिक रूप से 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य के लिए बचे हुए वैश्विक कार्बन बजट के 40 से 50 प्रतिशत हिस्से का उपभोग कर लेंगे, जबकि इन देशों में सिर्फ 20 प्रतिशत वैश्विक आबादी रहती है।

सुमित प्रसाद ने कहा कि विकसित देशों की ऐतिहासिक और प्रस्तावित जलवायु यात्रा उनके उत्सर्जन में पर्याप्त कटौती को नहीं दर्शाती है, जो उन्हें जलवायु नेतृत्वकर्ता के रूप में स्थापित करती हो। इसका मतलब है कि ग्लोबल वार्मिंग को घटाने का सारा बोझ विकासशील देशों के कंधों पर आ जाएगा। यह इसलिए भी मुश्किल भरा है क्योंकि इन परिवर्तन को हासिल करने के लिए विकासशील देशों को वित्तीय सहायता भी नहीं मिल रही है, जैसा कि विकसित देशों ने वादा किया था।

विकासशील देशों पर बढ़ेगा बोझ

विकसित देशों को अपने एनडीसी लक्ष्यों को बढ़ाना चाहिए और इसे लागू करने में आने वाले अनुमानित 3.7 गीगाटन कार्बन डाइ-ऑक्साइड के अंतर को 2025 तक खत्म करने के लिए अपनी जलवायु कार्रवाइयों को तेज करना चाहिए। नेट-जीरो के लक्ष्य मौजूदा दशक में होने वाली महत्वपूर्ण उत्सर्जन कटौती पर आश्रित हैं। भविष्य में होने वाले प्रयासों पर भरोसा करने के बजाए विकसित देशों को इस महत्वपूर्ण दशक में अपने लक्ष्यों को पाने के लिए साल-दर-साल कटौती करने की स्पष्ट योजनाओं को सामने करना चाहिए। इसके अलावा, भरोसा पैदा करने के लिए विकसित देशों को पेरिस समझौते के प्रति विश्वसनीय और प्रतिबद्ध रहने की भी जरूरत है।

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