खाने को नहीं दाने इमरान चले भुनाने, विसंगतियों से बाहर आए पाकिस्तान

कभी-कभी ऐसा लगता है कि वर्ष 1947 के भारतीय उपमहाद्वीप के तत्कालीन हिन्दू-मुस्लिम नेताओं ने हड़बड़ी में विभाजन का फैसला स्वीकार किया था। ऐसा भी लगता है कि इस महाद्वीप के करोड़ों लोगों के अभिशाप के कारण इन नेताओं को भी आखिरी लम्हे सुकून के साथ बिताने का अवसर कतई नहीं मिला। हालांकि यह रूढि़वादिता होगी लेकिन यह भी हकीकत तो है ही कि नेहरू के अंतिम लम्हे सुखद नहीं थे। भारत-चीन युद्ध में पराजय का दंश झेल रहे नेहरू हृदयगति रुक जाने से शरीर छोड़ गए थे।
लार्ड माउंटबेटन, जो कि भारत का अंतिम वायसराय व प्रथम गवर्नर जनरल था, अपने अंतिम दिनों में एक नौका विहार के मध्य एक साधारण शिकारी की गोली से मारा गया था। जिन्नाह के अंतिम लम्हे बेहद पीड़ादायक रहे। वह उसी वर्ष शरीर छोड़ गया, जिस वर्ष उसके वकालत के दिनों के पुराने मित्र, मुख्य राजनीतिज्ञ व हमारे राष्ट्र पिता महात्मा गांधी की हत्या हुई थी। जिन्नाह को एक भी सुकून भरी सांस नहीं मिल पाई थी।
लियाकत अली खान को रावलपिंडी में अपनी ही पार्टी की जनसभा में गोली मार दी गई थी। इन अभिशप्त नेताओं का अपराध शायद यही था कि उन्होंने साझी विरासत वाले लोगों को उजाड़ा था। अब जब पाकिस्तान के वर्तमान प्रधानमंत्री भारत के साथ सांस्कृतिक संबंधों को भी तोड़ने की घोषणा करते हैं तो डर लगता है कि कहीं वह भी तो अभिशप्तों की कतार में जाने के लिए बेचैन नहीं हैं? दो दिन पूर्व 14-15 अगस्त की रात को अटारी-सीमा पर दोस्ती के चिराग जलाए गए।
भारतीय सीमा में भी सैकड़ों लोग दूरदराज से एकत्र हुए थे। सबके हाथों में मोमबत्तियां थीं। जुबान पर दोस्ती के नारे थे। उधर, लाहौर से भी सैकड़ों लोग आए थे। अगले दिन लाहौर के एक मंदिर में राखी मनाई गई। वहां की सईदा दीप ने वहां बचे-खुचे हिन्दू परिवारों की लड़कियों से पाकिस्तान के कुछ यूनिवर्सिटी छात्रों के हाथों पर राखी बंधवाई थी। साझे रिश्तों के लिए ये एक मशक्कत थी, लेकिन नफरत एवं भारत-विरोध का बाजार पाकिस्तान में अब भी चहक रहा है।
दरअसल, पाकिस्तान इस समय पूरी तरह दिशाहीन है। कश्मीर पर भारतीय फैसले उसके ख्वाबों में भी नहीं थे। विश्वपटल पर फिलहाल दु:ख बांटने के लिए कोई देश अपना कंधा भी देने को तैयार नहीं। बहरहाल, हमें ऐसी बातों से ज़्यादा खुश भी नहीं होना चाहिए। पड़ोसी की ऐसी बेचारगी से हमें तकलीफ होनी चाहिए। ज्यादा तकलीफदेह यह है कि अब पाकिस्तान के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने 'से नो टू इंडिया' यानी 'भारत को न कहें' के नाम से एक नया अभियान चलाया है जो संस्कृति, सभ्यता व साझी विरासत के किसी भी मानदंड पर उचित नहीं लगता।
पाक अपने राजनीतिक, कूटनीतिक व सैनिक फैसले अपने स्तर पर ले, यह उसका हक है,मगर सांस्कृतिक स्तर पर 'भारत को न कहने' का कोई हक आपके पास नहीं है। कारण स्पष्ट है। संस्कृति में साझेदारी की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उनसे छेड़छाड़ मुमकिन नहीं है। बाबा फरीद, गुरु नानक देव, मियां मीर, वारिस शाह, बुल्लेशाह और बाद में फैज़, मंटो, कासमी, कतील शिफाई, हबीब जालिब, अहमद फराज़, आबिदा, मेहंदी हसन, गुलाम अली किस-किस की खुशबू को कैद कर पाएंगे वहां के हुक्मरान।
इमरान खान व उनके सभी साथियों को शायद इस बात का एहसास भी नहीं है कि सांस्कृतिक विरासत न तो विदेश नीति या कूटनीति का हिस्सा है और न ही चुनावी-राजनीति से उसका कोई सरोकार होता है। कल क्या करवट लेता है, मालूम नहीं। लेकिन बाबा फरीद का दर्शन, उनका कलाम, उनका काव्य किसी भी सीमित भौगोलिक इकाई की बौद्धिक सम्पदा नहीं बन सकता। बाबा की दरगाह पर आतंकी हमलों के बावजूद कहीं भी उस फकीर की वाणी पर कोई खरोंच नहीं आई।
यदि गुरुनानक वहां अब भी एक बड़े तबके के लिए 'नानक शाह फकीर' हैं या अब भी ननकाना साहब या करतारपुर में नित्य 'वॉक' निकालने की रस्म जारी है तो सिर्फ अंतरराष्ट्रीय सिख समुदाय की तुष्टि के लिए नहीं है। वहां अब भी हज़ारों की संख्या में मुस्लिम जनसमुदाय की भी श्रद्धा है। मियां मीर की दरगाह पर भी आतंकी हमले हुए हैं। मगर मियां के किस्से, किंवदंतियां और स्वर्ण मंदिर की नींव का पत्थर रखने वाली बातें आज भी याद की जाती हैं।
जामा मस्जिद मजहब का केंद्र हो सकती हैं मगर मियां मीर की दरगाह सभी इमामबाड़ों से भी बढ़कर मुस्लिम समाज के एक बड़े तबके के लिए अकीदत का केंद्र है। वारिस शाह पर जितने शोध प्रबंध भारतीय विश्वविद्यालयों में लिखे गए, उतने शायद वर्तमान पाकिस्तान के विश्वविद्यालयों में भी नहीं लिखे गए। बुल्लेशाह अब भी भारतीय गायकों, शोधार्थियों एवं बुद्धिजीवी समाज में प्रासंगिक भी है और पसंदीदा भी। फैज़ की पूरी जिंदगी और उनका पूरा कलाम पूरे उपमहाद्वीप में अब भी पढ़ा, सुना व जिया जाता है।
उनकी एक तिहाई उम्र अपने मुल्क की जेलों में कटी और एक तिहाई भारत में। भारत के लाखों लोग कटासराज, शादानी दरबार हिंगलाज मंदिर, बाबा लालू-जसराय मंदिर-दीपालपुर आदि स्थलों में अपनी आस्था रखते हंै। बहावलपुर और मुल्तान, डेरागाज़ी खान आदि पाकिस्तान की 'सरायकी' भाषा के मुख्य केंद्र हैं। वही सरायकी भारत में लगभग डेढ़ करोड़ लोगों की मातृभाषा है। भारत में अब भी सरायकी भाषा में साहित्य रचा, पढ़ा और सुना जाता है।
जब सीमा पार जाने के रास्ते बंद हुए तो यहां भारत में 'सरायकी' का भाषागत स्वरूप निखरना शुरू हो गया। डॉ. राणा गन्नौरी सरीखे भारतीय अदीबों में न केवल जमकर सरायकी में लिखा, बल्कि 'हिन्दी-मुल्तानी विश्वकोष' का भी संकलन व प्रकाशन कर डाला जो कि अब पाकिस्तान में भी मकबूल है और विश्व के कई अन्य देशों में भी प्रचलित है। संगीत की दुनिया में अब भी राग भैरवी, राग जयजयवंती, राग मल्हार राग यमन कल्याण पाकिस्तानी संगीत की जान हैं।
सरगम के सातों स्वर एवं सुर एक जैसे हैं। अब इन सांस्कृतिक रिश्तों पर न तो भारत 'नो टू पाकिस्तान' कह सकता है, न ही पाकिस्तान 'नो टू इंडिया' कह सकता है। आप किन्हीं अधिसूचनाओं के ज़रिए ऐसे ऐलान करेंगे तो भी उन पर अमल मुमकिन नहीं है। थोड़ा ध्यान मोहनजोदाड़ो, तक्षशिला और हड़प्पा पर ही दे लेते। वर्ष 1981 में तक्षशिला को यूनेस्को ने विश्व धरोहर का दर्जा दिया था। अब भी वहां पर वर्ष 10 लाख पर्यटक आते हैं।
इसके खंडहरों की 'डेटिंग' बताती है कि इसकी स्थापना ईसा के लगभग 1000 वर्ष पूर्व हुई थी। यहां चाणक्य के नीति उपदेशों की मौर्य कालीन गूंज अब भी जेहन से टकराती है, बशर्ते कि जेहन को खुला रखें। कभी यह गांधार नरेशों का भी प्रमुख स्थान था। थोड़ा यह भी बता दें कि यह स्थल जिला रावलपिंडी में है और इस्लामाबाद से इसकी दूरी लगभग 32 किलोमीटर ही है। अब इन रिश्तों को आप कौन से पुराने संदूकों में कैद करेंगे?
लेखक: डॉ. चंद्र त्रिखा
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