प्रमोद भार्गव का लेख : खोखले हुए पहाड़ से बढ़े हादसे

प्रमोद भार्गव का लेख : खोखले हुए पहाड़ से बढ़े हादसे
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नदियों पर बांध निर्माण के लिए बुनियाद के लिए गहरे गड्ढे खोदकर खंबे व दीवारें खड़े किए जाते हैं। कई जगह सुरंगें बनाकर पानी की धार को संयंत्र के पंखों पर डालने के उपाय किए गए हैं। इन गड्ढों और सुरंगों की खुदाई में ड्रिल मशीनों से जो कंपन होता है, वह पहाड़ की परतों की दरारों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ों से जो पहाड़ गुंथे होते हैं, उनकी पकड़ भी इस कंपन से ढीली पड़ जाती है। नतीजतन तेज बारिश के चलते पहाड़ों के ढहने और हिमखंडो के टूटने की घटनाएं पूरे हिमालय क्षेत्र में लगातार बढ़ जाती हैं। गोया, प्रस्तावित सभी परियोजनाएं अस्तित्व में लाए जाने के उपाय जारी रहते हैं तो हिमालय का क्या हश्र होगा कहना मुश्किल है?

उत्तराखंड के उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सुरंग का एक हिस्सा भूमि में धंस जाने के कारण सुरंग बना रहे 40 मजदूर फंस गए। उनके प्राण पिछले कुछ दिनों से संकट में जरूर हैं, लेकिन उन्हें बचाने के हरसंभव प्रयत्न युद्धस्तर पर किए जा रहे हैं। सभी मजदूर जीवित बताए जा रहे हैं। यह हादसा उत्तरकाशी से 55 किमी दूर सिलक्यारा-पोलगांव निर्माणाधीन सुरंग के भीतर हुआ। यह हादसा भू-स्खलन के कारण सुरंग का 15 मीटर हिस्सा जमीन में धंस जाने के कारण हुआ। सुरंग की लंबाई करीब साढ़े चार किलोमीटर है। इसे करीब चार किमी बना भी लिया गया है। सुरंग के संपूर्ण होने के बाद यात्रियों की 26 किमी दूरी कम हो जाएगी। अत: आवागमन सुविधाजनक तो होगा ही समय और धन की बचत भी होगी। सेवा सामग्री की पहुंच आसान हो जाएगी। नतीजतन श्रद्धालुओं और पर्यटकों की संख्या बढ़ेगी और स्थानीय लोगों को रोजगार 12 माह मिलने लग जाएगा, परंतु इस हादसे के बाद एक बार फिर न केवल उत्तराखंड, बल्कि हिमाचल प्रदेश में चल रहे विकास कार्यों के परिप्रेक्ष्य में पहाड़ों को काटकर किए जा रहे निर्माण कार्यों पर प्रश्न चिह्न लग गया है, क्योंकि इसी साल मार्च में भी सुरंग हादसा घट चुका है।

समूचे हिमालय क्षेत्र में बीते एक दशक से पर्यटकों के लिए सुविधाएं जुटाने के परिप्रेक्ष्य में जल विद्युत संयंत्र और रेल परियोजनाओं की बाढ़ आई हुई है। इन योजनाओं के लिए हिमालय क्षेत्र में रेल गुजारने और कई हिमालयी छोटी नदियों को बड़ी नदियों में डालने के लिए सुरंगें बनाई जा रही हैं। बिजली परियोजनाओं के लिए भी जो संयंत्र लग रहे हैं, उनके लिए हिमालय को खोखला किया जा रहा है। इस आधुनिक औद्योगिक और प्रौद्योगिकी के विकास का ही परिणाम है कि आज हिमालय ही नहीं, हिमालय के शिखर दरकने लगे हैं, जिन पर हजारों साल से मानव बसाहटें अपने ज्ञान-परंपरा के बूते जीवन-यापन करने के साथ हिमालय और वहां रहने वाले अन्य जीव-जगत की भी रक्षा करते आ रहे हैं। हिमालय और पृथ्वी सुरक्षित बने रहें, इस दृष्टि से कृतज्ञ मनुष्य ने अथर्ववेद में लिखे पृथ्वी-सूक्त में अनेक प्रार्थनाएं की हैं। यह सूक्त राष्ट्रीय अवधारणा एवं वसुधैव कुटुंबकम की भावना को विकसित, पोषित एवं फलित करने का संदेश देता है, जिससे मनुष्य नीति और धर्म से बंधा रहे, लेकिन हमने कथित भौतिक सुविधाओं के लिए अपने आधार को ही नष्ट करने का काम आधुनिक विकास के बहाने कर दिया। उत्तरकाशी हो या जोशीमठ इसी अनियोजित विकास की परिणति है। उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहयोगी नदियों पर एक लाख तीस हजार करोड़ की जल विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए लाखों पेड़ों को काटने के बाद पहाड़ों को छलनी किया जा रहा है और नदियों पर बांध निर्माण के लिए बुनियाद हेतु गहरे गड्ढे खोदकर खंबे व दीवारें खड़े किए जाते हैं। कई जगह सुरंगें बनाकर पानी की धार को संयंत्र के पंखों पर डालने के उपाय किए गए हैं। इन गड्ढों और सुरंगों की खुदाई में ड्रिल मशीनों से जो कंपन होता है, वह पहाड़ की परतों की दरारों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ों से जो पहाड़ गुंथे होते हैं, उनकी पकड़ भी इस कंपन से ढीली पड़ जाती है। नतीजतन तेज बारिश के चलते पहाड़ों के ढहने और हिमखंडो के टूटने की घटनाएं पूरे हिमालय क्षेत्र में लगातार बढ़ जाती हैं। यही नहीं कठोर पत्थरों को तोड़ने के लिए भीषण विस्फोट भी किए जाकर हिमालय को हिलाया जा रहा है। गोया, प्रस्तावित सभी परियोजनाएं कालांतर में अस्तित्व में लाए जाने के उपाय जारी रहते हैं तो हिमालय का क्या हश्र होगा कहना मुश्किल है?

हिमालय में अनेक रेल परियोजनाएं भी निर्माणाधीन हैं। सबसे बड़ी रेल परियोजना उत्तराखंड के चार जिलों (टेहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और चमोली) के तीस से ज्यादा गांवों को भी विकास की कीमत चुकानी पड़ रही है। छह हजार परिवार विस्थापन के दायरे में आ गए हैं। रूद्रप्रयाग जिले के मरोड़ा गांव के सभी घर दरक गए हैं। रेल विभाग ने इनके विस्थापन की तैयारी कर ली है। यह तो शुरूआत है, लेकिन ये विकास इसी तरह जारी रहते हैं तो बर्बादी का नक्शा बहुत विस्तरित होगा। दरअसल ऋषिकेश से कर्णप्रयाग रेल परियोजना 125 किमी लंबी है। इसके लिए सबसे लंबी सुरांग देवप्रयाग से जनासू तक बनाई जा रही है, जो 14.8 किमी लंबी है। केवल इसी सुरंग का निर्माण बोरिंग मशीन से किया जा रहा है। बाकी जो 15 सुरंगें बन रही हैं, उनमें ड्रिल तकनीक से बारूद लगाकर विस्फोट किए जा रहे हैं। इस परियोजना का दूसरा चरण कर्णप्रयाग से जोशीमठ के बजाय अब पीपलकोटी तक होगा।

दरअसल उत्तराखंड के भूगोल का मानचित्र बीते डेढ़ दशक में तेजी से बदला है। चौबीस हजार करोड़ रुपये की ऋषिकेश-कर्णप्रयाग परियोजना ने जहां विकास और बदलाव की ऊंची छलांग लगाई है, वहीं इन योजनाओं ने खतरों की नई सुरंगें भी खोल दी हैं। उत्तराखंड के सबसे बड़ी पहाड़ी शहर श्रीनगर के नीचे से भी सुरंग निकल रही है। नतीजतन धमाकों के चलते 150 से ज्यादा घरों में दरारें आ गई हैं। पौड़ी जिले के मलेथा, लक्ष्मोली, स्वोत और डेवली में 771 घरों में दरारें आ चुकी हैं। सिलक्यारा-पोलगांव सुरंग भी इसी उद्देश्य से बनाई जा रही हैं। इन मार्गों पर पुलों के निर्माण के लिए भी सुरंगें बनाई जा रही हैं, तो कहीं घाटियों के बीव पुल बनाने के लिए मजबूत आधार स्तंभ बनाए जा रहे हैं। हालांकि ये सड़कें सेना के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। सैनिकों का हिमालयी क्षेत्र में इन सड़कों के बन जाने से चीन की सीमा पर पहुंचना आसान हो गया है। पर्यटन को बढ़ावा देने के लिहाज से जो निर्माण किए जा रहे हैं, उन पर पुनर्विवार की जरूरत है। हिमालय में हाल ही में केन-बेतवा नदी जोड़ों अभियान की तर्ज पर उत्तराखंड में देश की पहली ऐसी परियोजना पर काम शुरू हो गया है, जिसमें हिमनद की एक धारा को मोड़कर बरसाती नदी में पहुंचाने का प्रयास हो रहा है। पहली बार ऐसा होगा कि किसी बरसाती नदी में सीधे हिमालय का बर्फीला पानी बहेगा। इस परियोजना में पहली बार उत्तराखंड की एक नदी को कुमाऊं मंडल की नदी से जोड़कर बड़ी आबादी को पानी उपलब्ध कराया जाएगा। इस परियोजना के क्रियान्वयन के लिए जिस सुरंग का निर्माण कर पानी नीचे लाया जाएगा, उसके निर्माण में हिमालय के शिखर-पहाड़ों को खोदकर सुरंगों एवं नालों का निर्माण किया जाएगा, उनके लिए ड्रिल मशीनों से पहाड़ों को छेदा जाएगा। यह हिमालयी पहाड़ों के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए नया बड़ा खतरा साबित हो सकती है? उत्तराखंड भूकंप के सबसे खतरनाक जोन-5 में आता है। मानसून में हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भू-स्खलन बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएं निरंतर सामने आ रही हैं। पहाड़ों के दरकने के साथ छोटे-छोटे भूकंप भी देखने में आ रहे हैं। टिहरी पर बंधे बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो अस्तित्व खोएगी ही, अन्य नदियां भी अस्तित्व के संकट से जुझेंगी।

(लेखक- प्रमोद भार्गव वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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