अरविंद जयतिलक का लेख : अंबेडकर समानता के सच्चे पैरोकार

अरविंद जयतिलक का लेख : अंबेडकर समानता के सच्चे पैरोकार
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डॉ. अंबेडकर के राजनीतिक-सामाजिक दर्शन के कारण ही आज विशेष रूप से दलित समुदाय में चेतना, शिक्षा को लेकर सकारात्मक समझ पैदा हुई है। इसके अलावा बड़ी संख्या में दलित राजनीतिक दल, प्रकाशन और कार्यकर्ता संघ भी अस्तित्व में आए हैं जो समाज को मजबूती दे रहे हैं। डॉ. अंबेडकर समानता के सच्चे पैरोकार थे। हालांकि उन्हें जब भारत सरकार अधिनियम 1919 तैयार कर रही साउथ बोरोह समिति के समक्ष गवाही देने के लिए आमंत्रित किया गया तो उन्होंने सुनवाई के दौरान दलितों एवं अन्य धार्मिक समुदायों के लिए पृथक निर्वाचिका और आरक्षण की मांग की। तब उनकी इस मांग की तीव्र आलोचना हुई।

अरविंद जयतिलक

राष्ट्रवाद के मोर्चे पर डॉ. अंबेडकर बेहद मुखर थे। उन्होंने विभाजनकारी राजनीति के लिए मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग दोनों की कटु आलोचना की। हालांकि शुरुआत में उन्होंने पाकिस्तान निर्माण का विरोध किया, किंतु बाद में मान गए। वे कतई नहीं चाहते थे कि भारत स्वतंत्रता के बाद हर रोज रक्त से लथपथ हो। वे हिंसामुक्त समानता पर आधारित समाज के पैरोकार थे। उनकी सामाजिक व राजनीतिक सुधारक की विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा। यही वह कारण है कि मौजूदा दौर में सभी राजनीतिक दल चाहे उनकी विचारधारा और सिद्धांत कितने ही भिन्न क्यों न हो, सभी डॉ. अंबेडकर की सामाजिक व राजनीतिक सोच को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं।

डॉ. अंबेडकर के राजनीतिक-सामाजिक दर्शन के कारण ही आज विशेष रूप से दलित समुदाय में चेतना, शिक्षा को लेकर सकारात्मक समझ पैदा हुई है। इसके अलावा बड़ी संख्या में दलित राजनीतिक दल, प्रकाशन और कार्यकर्ता संघ भी अस्तित्व में आए हैं जो समाज को मजबूती दे रहे हैं। डॉ. अंबेडकर समानता के सच्चे पैरोकार थे। हालांकि उन्हें जब भारत सरकार अधिनियम 1919 तैयार कर रही साउथ बोरोह समिति के समक्ष गवाही देने के लिए आमंत्रित किया गया तो उन्होंने सुनवाई के दौरान दलितों एवं अन्य धार्मिक समुदायों के लिए पृथक निर्वाचिका और आरक्षण की मांग की। तब उनकी इस मांग की तीव्र आलोचना हुई और उन पर आरोप लगा कि वे भारतीय राष्ट्र एकता खंडित करना चाहते हैं, पर सच तो यह है उनका इस तरह का कोई उद्देश्य नहीं था। उनका असल मकसद इस मांग के जरिए ऐसे रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं को सतर्क करना था जो जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति गंभीर नहीं थे। जब वे इंग्लैंड से लौटे तो समाज में छुआछूत और जातिवाद चरम पर था। उन्हें लगा कि यह सामाजिक कुप्रवृत्ति समाज को कई हिस्सों में तोड़ देगी। सो उन्होंने हाशिए पर खड़े अनुसूचित जाति-जनजाति एवं दलितों के लिए पृथक निर्वाचिका की मांग कर परोक्ष रूप से समाज को जोड़ने की दिशा में पहल तेज की। अपनी आवाज को जन-जन तक पहुंचाने के लिए 1920 में, बंबई में साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरुआत की जो शीघ्र ही पाठकों में लोकप्रिय हो गया। दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिए गए उनके भाषण से कोल्हापुर राज्य का स्थानीय शासक शाहु चतुर्थ बेहद प्रभावित हुआ और डाॅ. अंबेडकर के साथ उनके भोजन करने की घटना ने रूढ़िवाद से ग्रस्त भारतीय समाज को झकझोर दिया।

डाॅ. अंबेडकर ने मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति नरमी पर वार करते हुए उन नेताओं की कटु आलोचना की जो अस्पृश्य समुदाय को एक मानव के बजाय करुणा की वस्तु के रूप में देखते थे। ब्रिटिश हुकूमत की विफलताओं से नाराज अंबेडकर ने अस्पृश्य समुदाय को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए एक ऐसी अलग राजनीतिक पहचान की वकालत की जिसमें कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का कोई दखल न हो। 8 अगस्त 1930 को उन्होंने एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा और कहा कि 'हमें अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा और स्वयं राजनीतिक शक्ति शोषितों की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती। उनको शिक्षित करना चाहिए, उनका उद्धार समाज में उनका उचित स्थान पाने में निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा। एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है, जो सभी ऊंचाइयों का स्रोत है। इस भाषण में अंबेडकर ने कांग्रेस की नीतियों की जमकर आलोचना की। दरअसल अंबेडकर छुआछूत की खुलकर निंदा करते थे। जब 1932 में ब्रिटिश हुकूमत ने उनके साथ सहमति व्यक्त करते हुए अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की तब महात्मा गांधी ने इसके विरोध में पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। यह अंबेडकर का प्रभाव ही था कि गांधी ने अनशन के जरिए रुढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने की अपील की। रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं तथा पंडित मदन मोहन मालवीय ने अंबेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा में संयुक्त बैठकें की। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति में, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गांधी के समर्थकों के भारी दबाव के चलते अंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की मांग वापस ले ली। इसके बदले में अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश-पूजा के अधिकार एवं छुआछूत समाप्त करने की बात स्वीकार ली गई। गांधी ने भी इस उम्मीद पर कि सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर सभी शर्तें मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया।

गौरतलब है कि आरक्षण प्रणाली में पहले दलित अपने लिए संभावित उम्मीदवारों में से चुनाव द्वारा चार संभावित उम्मीदवार चुनते और फिर इन चार उम्मीदवारों में से फिर संयुक्त निर्वाचन चुनाव द्वारा एक नेता चुना जाता। उल्लेखनीय है कि इस आधार पर सिर्फ एक बार 1937 में चुनाव हुए। अंबेडकर चाहते थे कि अछूतों को कम से कम 20-25 साल आरक्षण मिले जबकि कांग्रेस के नेता इसके पक्ष में नहीं थे। उनके विरोध के कारण यह आरक्षण मात्र पांच साल के लिए लागू हुआ। अस्पृश्यता के खिलाफ अंबेडकर की लड़ाई को भारतभर से समर्थन मिलने लगा और उन्होंने अपने रवैया और विचारों को रूढ़िवादी हिंदुओं के प्रति अत्यधिक कठोर कर लिया। भारतीय समाज की रूढ़िवादिता से नाराज होकर उन्होंने नासिक के निकट येओला में एक सम्मेलन में धर्म परिवर्तन की अपनी इच्छा प्रकट कर दी। उन्होंने अपने अनुयायिओं से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया। 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने एक आमसभा का आयोजन किया जहां उन्होंने अपने पांच लाख अनुयायिओं का बौद्ध धर्म में रूपान्तरण करवाया। उन्होंने मुस्लिम मुस्लिम समाज में महिला उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की निंदा की। वे स्त्री-पुरुष समानता के पक्षधर थे। उन्होंने इस्लाम में स्त्री-पुरुष असमानता का जिक्र करते हुए कहा कि बहुविवाह के दुपरिष्णाम शब्दों में व्यक्त नहीं किए जा सकते। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि अगर गुलामी खत्म हो जाए फिर भी जाति व्यवस्था रह जाएगी। उन्होंने इस्लाम में कट्टरता की आलोचना की। उन्होंने लिखा है कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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