अरविंद जयतिलक का लेख : आंंबेडकर के जातिमुक्त राष्ट्र के सपने

अभी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, इसमें कांग्रेस लगातार जाति जनगणना का मुद्दा उठाती रही। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में जाति जनगणना कराई व उसके आंकड़े जारी किए। उसके बाद से जाति गणना राजनीतिक मुद्दा बनी हुई है। विपक्ष से बड़ा राजनीतिक हथियार मान रहा है। आजादी के बाद से ही चुनावों में जाति समीकरण के आधार पर टिकट दिए जाते हैं। देश में जातिगत आरक्षण लागू है। आज किसी भी दल में यह राजनीतिक साहस नहीं है कि वे जातिवाद मुक्त राजनीति व समाज की स्थापना के बारे में सोच सके, जबकि संविधान निर्माता डा. भीमराव आंबेडकर खुद जातिवाद मुक्त राष्ट्र की स्थापना चाहते थे। उन्होंने संविधान में अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए 22.5 फीसदी आरक्षण का प्रावधान जरूर किया था, लेकिन केवल दस वर्ष के लिए। डा. आंबेडकर ने एनिहिलिशन ऑफ कास्ट (जाति का विनाश) पुस्तक लिख कर जातिवाद मुक्त राष्ट्र के अपने सपने के विचार को सबके सामने रखा। ‘शूद्र कौन है’ पुस्तक लिखकर शूद्र के जाति होने, इसके निचले पायदान पर होने व आर्य अनार्य की अवधारणा और मूलनिवासी जैसी पश्चिमी अवधारणा को अपने शोधपरक दृष्टिकोण से खारिज किया।
आज जब राष्ट्र डा. आंबेडकर की पुण्यतिथि मना रहा है, तो उनके सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक विचारों के वारिसों व अनुयायियों को अपने गिरेबां में झांक कर खुद से पूछना चाहिए कि उन्होंने बाबा साहेब के सपनों को साकार करने की दिशा में क्या किया है? क्या देश आजादी के 76 साल में जातिवाद से मुक्त हो सका, क्या समाज में समता, समानता व भाईचारे की स्थापना हो सकी और क्या राजनीति दस वर्ष में आरक्षण का लक्ष्य हासिल कर उससे मुक्त हो सकी? अगर नहीं, तो डा. आंबेडकर के नाम पर न किसी को राजनीति करने का हक है और न ही किसी को उनके नाम पर वैचारिक क्रांति का ढोंग करने का हक है। बाबा साहेब के संविधान के मूल्यों को सही परिप्रेक्ष्य में लागू करना, उनके सपनों के जातिमुक्त समाज की स्थापना, सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना व जातिविहीन राजनीति उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
कहने के लिए हम विकसित भारत का लक्ष्य तय कर रहे हैं, आजादी का अमृत महोत्सव साल भर मनाया, देश अगले 25 वर्ष तक आजादी के अमृतकाल में रहेगा, लेकिन डा. आंबेडकर के सपनों के राष्ट्र निर्माण की दिशा में बहुत कुछ करना शेष है, सामाजिक विभाजन से मुक्त शेष है। इंग्लैंड से लौटने के बाद जब डा. भीमराव आंबेडकर ने भारत की धरती पर कदम रखा तो समाज में छुआछूत और जातिवाद चरम पर था। उन्हें लगा कि यह सामाजिक कुप्रवृत्ति और खंडित समाज देश को कई हिस्सों में तोड़ देगा। सो उन्होंने हाशिए पर खड़े अनुसूचित जाति-जनजाति एवं दलितों के लिए पृथक निर्वाचिका की मांग कर परोक्ष रुप से समाज को जोड़ने की दिशा में पहल तेज कर दी। अपनी आवाज को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उन्होंने 1920 में, बंबई में साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरुआत की जो शीध्र ही पाठकों में लोकप्रिय हो गया। वंचित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान उनके दिए गए भाषण से कोल्हापुर राज्य का स्थानीय शासक शाहु चतुर्थ बेहद प्रभावित हुआ और आंंबेडकर के साथ उसका भोजन करना रुढि़वाद से ग्रस्त भारतीय समाज को झकझोर दिया। बाबा साहेब मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति नरमी पर वार करते हुए उन नेताओं की भी कटु आलोचना की जो अस्पृश्य समुदाय को एक मानव के बजाए करुणा की वस्तु के रूप में देखते थे। ब्रिटिश हुकूमत की विफलताओं से नाराज आंबेडकर ने अस्पृश्य समुदाय को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमें कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का कोई दखल न हो। 8 अगस्त 1930 को उन्होंने एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा और कहा कि ‘हमें अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा। आंंबेडकर सिर्फ हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों और सामाजिक भेदभाव के ही विरोधी नहीं थे बल्कि वे इस्लाम धर्म में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुव्र्यवहार के भी कटु आलोचक थे।
उन्होंने लिखा है कि ‘मुस्लिम समाज में तो हिंदू समाज से भी कहीं अधिक बुराइयां हैं और मुसलमान उन्हें भाईचारे जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छिपाते हैं।’ आंंबेडकर स्त्री-पुरुष समानता के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने इस्लाम धर्म में स्त्री-पुरुष असमानता का जिक्र करते हुए बहुविवाह को मुस्लिम महिला के दुख के स्रोत के रूप में व्यक्त किया। मुस्लिमों के अंदर भी जाति सिस्टम पर भी उन्होंने प्रहार किया। उन्होंने इस्लाम में उस कट्टरता की भी आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नीतियों का अक्षरशः अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है। उन्होंने लिखा है कि ‘भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरित तुर्की जैसे इस्लामी देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया।’ राष्ट्रवाद के मोर्चे पर आंंबेडकर बेहद मुखर थे। उन्होंने विभाजनकारी राजनीति के लिए मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग दोनों की कटु आलोचना की।
डा. आंंबेडकर ही एकमात्र राजनेता थे जो छुआछूत की निंदा करते थे। जब 1932 में ब्रिटिश हुकूमत ने उनके साथ सहमति व्यक्त करते हुए अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की तब महात्मा गांधी ने इसके विरोध में पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। यह आंंबेडकर का प्रभाव ही था कि गांधी ने अनशन के जरिए हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने की अपील की। अस्पृश्यता के खिलाफ आंबेडकर की लड़ाई को भारत भर से समर्थन मिलने लगा और उन्होंने अपने रवैया और विचारों को रुढ़िवादी हिंदुओं के प्रति अत्यधिक कठोर कर लिया। भारतीय समाज की रुढ़िवादिता से नाराज होकर उन्होंने नासिक के निकट येओला में एक सम्मेलन में बोलते हुए धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट कर दी। उन्होंने अपने अनुयायिओं से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया। उन्होंने अपनी इस बात को भारत भर में दोहराया भी। 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने एक आमसभा का आयोजन किया, जहां उन्होंने अपने पांच लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया। तब उन्होंने कहा था कि मैं उस धर्म को पसंद करता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का भाव सिखाता है। आंबेडकर की सामाजिक व राजनीतिक सुधारक की विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा प्रभाव तो पड़ा है, बहुत अल्प। डा. भीमराव रामजी आंबेडकर सामाजिक एकता के प्रबल सूत्रधार थे,पर आज भी उनका जातिमुक्त समाज का सपना अधूरा है। केवल चुनावी राजनीति से देश नहीं बदलेगा।
(लेखक- अरविंद जयतिलक वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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