डॉ विनोद यादव का लेख : अपने भीतर का अंधकार मिटाएं

अमावस्या के अज्ञानी व अंहकारी अंधकार को नेस्तनाबूद कर हमारी आस्थागत परंपरा में दिवाली का स्थाई भाव बन गई। ज्ञान की रोशनी के बगैर सदाचार की दीपावली की कल्पना करना असंभव है। रोशनी सभ्यता, संस्कृति और संस्कार का पर्याय बनकर हमारे व्यक्तित्व में समा गई है, इसलिए वृहदारण्यक उपनिषद में ऋषियों ने आह्वान किया-तमसो मा ज्योतिर्गमय। आओ अपने सतत पुरुषार्थ से अज्ञान के तमस को काटते हुए ज्ञान के प्रकाश की ओर चलें। अपने त्योहारों के मूल संदेश को याद करने की जरूरत है। प्रदूषित माहौल में खुशहाल जिंदगी भला कैसे संभव हो सकती है।
हमारे देश में मनाए जाने वाले तमाम त्योहारों में दीपावली का धार्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक तीनों नजरिये से अत्यधिक महत्व है। पौराणिक महत्व की बात करें तो चौदह वर्ष के वनवास और लंका विजय से लौटने पर अयोध्या-वासियों की खुशियों का ठिकाना न रहा। अपनी खुशी का इजहार उन्होंने घी के दिए जलाकर किया। सच तो यह है कि राम आज भारतीय मानस के अभिनय की समग्र संज्ञा हो चुके हैं। उनको हमने सिर्फ मंचीय प्रस्तुतिकरण तक सीमित कर दिया है। राम का त्याग व संघर्ष जिससे जूझकर और जिसकी अग्नि में तपकर राम का देवत्व और उदात्त व्यक्तित्व निखरकर मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में सामने आया वह हाइटेक रामलीलाओं की चकाचौंध के परदे के पीछे घोर अंधेरी अमावस में डूबा हुआ है। पारस्परिक प्रेम, सौहार्द और सद्भाव जैसे शुभ संकल्प ईर्ष्या, अन्याय और जलन की शिला-परत के नीचे जा बिछे हैं।
दिवाली का सार्वजनिक स्वरूप हाट-बाजारों, भड़कीली झालरों, लड़ियों और मिलावटी मिठाइयों के आदान-प्रदान तक सिमटकर रह गया है। हमने राम के मर्यादित स्वरूप को लोक-चिंतन एवं जिंदगी के साक्षात से हटाकर मूर्तियों में स्थापित कर दिया है। सच्चाई यह है कि यदि हम उन्हें वर्तमान के मानस से, आज के चिंतन से यथार्थ के धरातल पर नहीं जोड़ेंगे तो राम का वनवास पता नहीं कब खत्म हो पाएगा। सचमुच आज राजा रामचंद्र नहीं वंचितों और आदिवासियों का उद्धारक वनवासी राम चाहिए। तपस्वियों का, मनीषियों का रक्षक व अहिल्या, अनुसूइया और शबरी यानी नारी-समाज का उद्धारकर्ता राम चाहिए।
असल में, अयोध्या के लोगों द्वारा आयोजित ये सामूहिक दीपोत्सव असभ्यता व बर्बरता के तिरस्कार और सभ्यता एवं शिष्टता के समर्थन का प्रतीक था। वस्तुत: ये तहजीब के दीयों से प्रकाशमान कतारें थी, जो अमावस्या के अज्ञानी व अंहकारी अंधकार को नेस्तनाबूद कर हमारी आस्थागत परंपरा में दिवाली का स्थाई भाव बन गई। ज्ञान की रोशनी के बगैर सदाचार की दीपावली की कल्पना करना असंभव है। रोशनी सभ्यता, संस्कृति और संस्कार का पर्याय बनकर हमारे व्यक्तित्व में समा गई है, इसलिए वृहदारण्यक उपनिषद में ऋषियों ने आह्वान किया-तमसो मा ज्योतिर्गमय। आओ अपने सतत पुरुषार्थ से अज्ञान के तमस को काटते हुए ज्ञान के प्रकाश की ओर चलें। सनातन संस्कृति का यह पौराणिक उद्घोष हमें आज भी आकृष्ट करता है, उपनिषदों का यह संदेश हमारी स्मृति में आज भी रचा बसा है और पूरे परिवेश में व्याप्त कदाचार व बेअदबी के अंधेरे के बावजूद सुसभ्य और सुसंस्कृत जनमानस को दिवाली मनाने की प्रेरणा देता है।
इस विश्वास के साथ कि ईर्ष्या, द्वेष, डाह और नासमझी का अंधकार कितना भी गहरा हो, उसे काटने के लिए बुद्धिमता, विवेक और प्रज्ञा का एक दीप ही पर्याप्त है, इसलिए कहा भी गया है- 'अंधकार से लड़ने का जब संकल्प कोई कर लेता है, तो एक अकेला जुगनू भी सब अंधकार हर लेता है।' दिवाली की पौराणिक पृष्ठभूमि में एक कथा यह भी प्रचलित है कि प्राग्ज्योतिषपुर (असम) के असुर सम्राट नरकासुर ने देवराज इंद्र को पराजित करने के बाद देवताओं और ऋषियों की सोलह हजार कन्याओं का अपहरण कर उन्हें अपने रनिवास में रख लिया। नरकासुर को किसी देवता या पुरुष से अजेय होने का वरदान प्राप्त था। उसके आतंक से त्रस्त देवताओं व ऋषियों ने श्रीकृष्ण से याचना की- 'हे योगेश्वर! आप पापियों के संहारक और धर्म के शाश्वत संस्थापक हैं, दुराचारी नरकासुर से हमें मुक्ति प्रदान करो।' देवताओं की दयनीय दशा देखकर श्रीकृष्ण नरकासुर के अंत का उपाय सोचने लगे। देवताओं की दुर्दशा और श्रीकृष्ण के माथे पर चिंता की शिकन देखकर उनकी वीरांगना रानी सत्यभामा सामने आई। सत्यभामा को अनेक युद्धों में भाग लेने का अनुभव प्राप्त था। सत्यभामा स्वयं कृष्ण की सारथी बनकर रणक्षेत्र में उतरी और दोनों ने अद्भुत रणकौशल का परिचय देते हुए नरकासुर का वध कर दिया।
नरकासुर के बंदीगृह में बंद सोलह हजार स्त्रियों को मुक्त करा लिया गया। सत्यभामा और श्रीकृष्ण के द्वारका लौटने पर पूरी नगरी को तोरणद्वारों से सजाया गया। घर-घर दिए जलाकर स्त्रियों की मुक्ति का विराट दीपोत्सव मनाया गया। यह कथा संदेश देती है कि -'जब नाश मनुज पर छाता है पहले विवेक मर जाता है।' कहने का अभिप्राय है कि शक्तिशाली व्यक्ति भी आध्यात्मिक ज्ञान के बिना निरर्थक व निस्सार जीवन जीकर जीव-जंतुओं की भांति संसार से विदा हो जाता है। यह पौराणिक वृत्तांत परिचायक है इस बात का, कि दिवाली का दिन स्वयं से यह प्रश्न पूछने का अवसर भी है कि अबोध बालिकाएं और बेटियां पुरुष-वासना और कुदृष्टि से मुक्ति पाने के लिए कब तक द्वारकाधीश को पुकारती रहेंगी। दीप जलाने मात्र से समाज में फैला बुराइयों का अंधेरा नहीं हट सकता। इस संदर्भ में गौतम बुद्ध ने कहा- 'अप्पो दीपो भव'। किसी भी मनुष्य के अंतर्मन के किसी भी कोने में अवगुणों का तनिक भी अंधकार न रह पाए, इसलिए अपने दीपक अपने आप बनों। यानी आत्मज्ञान की साधना से अंत:करण पर पड़े विकारों के विक्षेपों का विवेक द्वारा विरेचन करो।
चित्तवृत्तियों का परिशोधन करो। हम सब जानते हैं कि त्योहारों और उत्सवों की आवश्यकता सुसभ्य समाज को इसलिए पड़ी कि आमजनों की जिंदगी की नीरसता टूटे और लोगों के दैनिक जीवन में नई स्फूर्ति, उत्साह, उमंग और उल्लास जिंदगी को खुशहाल बनाकर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे। दिवाली एक ऐसा त्योहार है, जब गरीब से लेकर अमीर तक अपने घर-परिवार में कुछ न कुछ नया जोड़ने की कोशिश करता है और इस तरह से पूंजी का प्रवाह बाजार और देश की अर्थव्यवस्था को नई उम्मीदें सौंपता है। चूंकि इससे साफ-सफाई, स्वच्छता की सुखद पारंपरिक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं, इसलिए यह त्योहार गरीब मजदूरों की जेब में कुछ न कुछ धनराशि पहुंचा ही देता है, ताकि वह अपने हिस्से की कुछ खुशियां जी सके, फिर भी आज हमारे सामने दिवाली के नए अर्थ खोजने और नए आयाम स्थापित करने की चुनौती है। आज बेहद जरूरी है उपयोगी ऊष्मा और उजाले को अप्रासंगिक व अनुपयोगी प्रकाश से दूर रखना।
आज एक बड़ी चुनौती है अंधियारे को प्रकाश के नजदीक लाना। आज अति आवश्यक है दिवाली के मर्म को जानना और दिवाली के मर्म को जानकर नए सिरे से इसका मूल्यांकन करना भी बेहद जरूरी है। दीपावली का आगाज होते ही हम अपने घर-आंगन, दरों-दीवारों को तो गंदगी से मुक्त कर देते हैं, किंतु अपनी आबोहवा को उससे कहीं ज्यादा गंदगी और प्रदूषण सौंप देते हैं। याद रखना होगा कि स्वच्छता अभियान की कोई भी कवायद एकांगी कभी सफल नहीं हो सकती। उसे सर्वव्यापी बनाना ही होगा, इसलिए हमें अपने त्योहारों के मूल संदेश को याद करने की जरूरत है। प्रदूषित माहौल में खुशहाल जिंदगी भला कैसे संभव हो सकती है। हमारा ध्येय होना चाहिए-प्रदूषण मुक्त दिवाली।
डॉ विनोद यादव (लेखक शिक्षाविद् हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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