सत्यवान आर्य का लेख : प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व चौधरी मित्रसेन आर्य

चौधरी मित्रसेन आर्य ने ऐसे कार्य किए जो हमेशा मिसाल बने रहेंगे। गृहस्थ और व्यवसायी होते हुए भी उन्होंने अपने जीवन में ऐसे आदर्श स्थापित किए जिन्हें यदि हम अपना लें तो रामराज्य की कल्पना साकार की जा सकती है। उन्होंने कहा था-हमें हर कार्य से पहले यह जांच लेना चाहिए कि इसके करने से सबका हित होगा या नहीं। यदि व्यक्तिगत रूप से लाभ लेने वाला कोई कार्य समाज के लिए अहितकर है तो उसे नहीं करना चाहिए। चौ. मित्रसेन के आदर्श जीवन का आधार उनके पूर्वजों के संस्कार थे।
इस परिवर्तनशील संसार में जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है, लेकिन जन्म लेना उसी का सार्थक है, जो अपने कार्यों से कुल, समाज और राष्ट्र को प्रगति के मार्ग पर अग्रसर करता है। चौधरी मित्रसेन आर्य ने इस उक्ति को अक्षरशः चरितार्थ किया है। दुनिया में कुछ ही विरले लोग ऐसे होते हैं, जो अपने सत्कर्मों के पदचिह्न छोड़ जाते हैं, जो दूसरों के लिए हमेशा अनुकरणीय होते हैं। चौधरी मित्रसेन आर्य ऐसे ही व्यक्तित्व थे, जिन्होंने ऐसे कार्य किए जो मिसाल बने रहेंगे। गृहस्थ और व्यवसायी होते हुए भी उन्होंने अपने जीवन में ऐसे आदर्श स्थापित किए जिन्हें यदि हम अपना लें तो रामराज्य की कल्पना साकार की जा सकती है। उन्होंने कहा था-हमें हर कार्य को करने से पहले यह जांच लेना चाहिए कि इसके करने से सबका हित होगा या नहीं। यदि व्यक्तिगत रूप से लाभ लेने वाला कोई कार्य समाज के लिए अहितकर है तो उसे नहीं करना चाहिए। चौ. मित्रसेन के आदर्श जीवन का आधार उनके पूर्वजों के संस्कार थे। वे हंसते-हंसते पुरुषार्थ करने में विश्वास रखते थे।
15 दिसंबर 1931 को उनका जन्म हिसार जिले के खांडा खेड़ी गांव में चौधरी शीशराम आर्य के घर में माता जीयो देवी की कोख से हुआ। आपके परदादा चौ. शादीराम के भाई चौ. राजमल जैलदार स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों के सहयोगी थे। शहीदे आजम भगतसिंह उनके यहां आया करते थे। चौ. मित्रसेन आर्य के पिता चौ. शीशराम आर्य ने भी आर्यसमाज को पोषित किया। कर्म में उनका गहरा विश्वास था। उन्होंने यही संस्कार चौ. मित्रसेन आर्य को भी दिए। इनका असर जीवनभर उनके ऊपर रहा। जब चौ. मित्रसेन आर्य केवल 8-9 वर्ष के थे तभी परिवार विपत्तियों से घिर गया। उनके पिता की काला मोतिया के कारण आंखों की रोशनी चली गई। परिवार की आर्थिक स्थिति खराब हो गई। नतीजतन चौ. मित्रसेन को तीसरी कक्षा में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी। चौ. मित्रसेन आर्य को गोमाता से विशेष लगाव था। उनका कहना था कि स्वस्थ समाज की रचना गोमाता के द्वारा ही संभव है। युवावस्था में पहुंचते-पहुंचते उन्होंने वेदों, शास्त्रों, आर्ष साहित्य, सत्यार्थ प्रकाश और रामायण का अध्ययन कर लिया था।
वैदिक संस्कृति, महर्षि दयानंद और सत्यार्थ प्रकाश का उन पर विशेष प्रभाव रहा। 1948 में आर्य जी का विवाह जींद जिले में स्थित गांव जुलानी के चौ. अमृत सिंह सहारण की बेटी परमेश्वरी देवी के साथ हुआ। कहते हैं हर सफल व्यक्ति के पीछे स्त्री का हाथ होता है। श्रीमती परमेश्वरी देवी ने हर कदम पर चौ, मित्रसेन आर्य का साथ दिया। जिस कारण सफलता की राह उनके लिए आसान होती चली गई। चौ. मित्रसेन आर्य खुशी-खुशी पुरुषार्थ में विश्वास रखते थे। शुरू से ही वे अपना स्वयं का व्यवसाय करना चाहते थे, लेकिन इसके लिए अनुभव जरूरी था। इसलिए उन्होंने करीब नौ साल तक रोहतक, उदयपुर, हिसार, सोनीपत आदि में नौकरी को और तकनीकी ज्ञान हासिल किया। शुरू में साझे में और फिर 1957 में उन्होंने रोहतक में अपना व्यवसाय शुरू किया। 1957 में हिन्दी आंदोलन शुरू हो गया। इस आंदोलन में चौ. मित्रसेन ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इसी कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। जेल जाने के कारण काम बिखर गया, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और लगातार आगे बढ़ते रहे।
इस आन्दोलन के क्रान्तिकारी बनकर साढ़े चार महीने कारावास में बिताए। आर्यसमाज के आन्दोलन के कारण पंजाब सरकार के मंसूबे निष्फल हो गये तथा हरियाणा में हिन्दी भाषा राजकीय भाषा बन गई। सातवें दशक के शुरू में उन्होंने व्यवसाय बढ़ाने के लिए हरियाणा से बाहर का रुख किया। 1961 में उड़ीसा के एक व्यवसायी के साथ उन्होंने वर्कशाप लगाई। इसके बाद 1964 को बड़बिल में वर्कशाप शुरू की। यह उनकी लग्न और अथक परिश्रम का नतीजा था कि 1967 आते-आते चौ. मित्रसेन देश के बड़े कारोबारियों में शुमार हो गए। आधुनिक खेती में योगदान के कारण भारत सरकार उन्हें दिसंबर 2003 में कृषि विशारद की उपाधि से सम्मानित किया। हरियाणा सरकार ने ही उन्हें 2002-03 में चौधरी देवीलाल किसान पुरस्कार से सम्मानित किया।
वेद के आदशों को अपनाने वाले चौधरी मित्रसेन ने इस सूत्र को चरितार्थ किया-मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे। उनका व्यवहार सबके लिए मित्र के समान ही था। वे कहते थे कि मनुष्य के पांच शत्रु हैं- काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार। वे अज्ञानता, आलस्य, अन्याय और अभाव को बाह्य शत्रु मानते थे। 1962 में स्वामी धर्मानन्द के सम्पर्क में आने के बाद चौ. मित्रसेन आर्य ने गुरुकुल शिक्षा पद्धति की परम्परा को मूर्तरूप प्रदान किया। इनमें मुख्य है गुरुकुल वेदव्यास राउकूल, गुरुकुल शान्ति आश्रम लोहरदगा झारखंड, श्री जगन्नाथ उच्चतर माध्यमिक विद्यालय दमउधारा छत्तीसगढ़। इस तरह करीब 30 से ज्यादा गुरुकुल और स्कूलों को चौ. मित्रसेन आर्य द्वारा सहायता निरन्तर जारी है।
चौधरी साहब वेद और महर्षि दयानन्द सरस्वती के सिद्धान्तों पर अटल विश्वास रखते थे। जीवनपर्यन्त उनका दृढ़ विश्वास रहा कि कर्मयोग के द्वारा शान्तिदायक, सुखद, समृद्धि सम्भव है। इसी का परिणाम था कि चौधरी साहब ने शून्य से यात्रा शुरू करके शिखर तक पहुंचाया। परोपकार उनके जीवन का अभिन्न अंग था। जब गुजरात में भूकंप आया और कई गांव तहस नहस हो गए तो उन्होंने श्री साहिब सिंह वर्मा के साथ राष्ट्र स्वाभिमान और ग्रामीण स्वाभिमान के आह्वान पर रिकार्ड 100 दिनों में इन्द्रप्रस्थ नामक नया नगर बसाया इसमें 800 परिवारों को बसाया गया। इस नगर का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों के प्रति चौ. मित्रसेन के मन में अगाध श्रद्धा थी। वे शहीद स्थलों को तीर्थ स्थलों के समान मानते थे। उन्होंने देश के रक्षा कोष में भी बहुत बड़ी धनराशि दी। राजनीति में चौधरी मित्रसेन आर्य की रुचि नहीं थी, लेकिन उनका मानना था कि राजा को सर्वहितकारी होना चाहिए। उनका कहना था कि जाति का निर्धारण जन्म से नहीं, कर्म से होता है।
वह एक ऐसे मनस्वी थे जिन्होंने अपने कर्मबल से अपने निवास को किसी भी देवालय जितना पूज्य और पवित्र बना लिया था। जिस किसी ने भी उनके रोहतक स्थित आवास का भ्रमण किया है वह कथ्य से किंचित मात्र भी असहमत नहीं हो सकता। चौ. मित्रसेन की सरल, साफ-सुथरी तथा संघर्ष भरा जीवन किसी के लिए भी पथ-प्रदर्शक हो सकती है। उनका व्यक्तित्व आने वाले पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत बना रहेगा। उनके अनुसार सभी धर्मों का सार एक ही है मानवतावाद। चौ. मित्रसेन का सरल, साफ-सुथरी तथा संघर्ष भरा जीवन पथ-प्रदर्शक है। उनका व्यक्तित्व आने वाले पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत बना रहेगा।
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