शंभू भद्रा का लेख : दलों के ध्रुवीकरण के दौर का आगाज

भारतीय राजनीति नए बदलाव की ओर बढ़ रही है। दलों के ध्रुवीकरण की ओर...। मिशन 2024 के लिए 26 विपक्षी दलों का एकजुट होना और भाजपा नीत राजग में 38 दलों का साथ आना संकेत हैं कि भारतीय राजनीति गठबंधन के नए दौर में प्रवेश कर रही है। पिछले तीन दशक से भारत के लिए अपरिहार्य बन चुकी गठबंधन की राजनीति अब नया रुख अख्तियार कर रही है। राजनीतिक दल कंसोलिडेट हो रहे हैं। अब तक व्यवहार में गठबंधन का स्वरूप बहुदलीय रहा है, लेकिन बेंगलुरु में जिस तरह 26 विपक्षी दलों ने ‘इंडिया’ (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस) नाम से गठबंधन बनाया है और जवाब में नई दिल्ली में भाजपा नीत राजग का 38 दलों का जमघट लगा, यह संकेत है कि अब गठबंधन दि्वध्रुवीय रूप ले रहा है। अभी देश के 64 दल दो ध्रुव में बंट चुके हैं। तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव की पार्टी भारत राष्ट्र समिति, आंध्र प्रदेश के सीएम जगनमोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआरसी, ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल और यूपी की पूर्व सीएम मायावती की बसपा सरीखे गिन-चुने दल बचे हैं, जो किसी ध्रुव में नहीं है। देश में अब तक वोटों का पोलराइजेशन होता रहा है, लेकिन अब दलों का पोलराइजेशन शुरू हुआ है। एक ध्रुव का नेतृत्व जहां भाजपा कर रही है, वहीं दूसरे ध्रुव का नेतृत्व कांग्रेस करती प्रतीत हो रही है।
राजनीतिक रूप से राष्ट्रीय पटल पर हाशिये पर खड़ी कांग्रेस का सांगठनिक चरित्र देशव्यापी होने के चलते उसे ध्रुवीकृत विपक्ष की धुरी के रूप में देखा जा रहा है। हालांकि विपक्ष के लगभग सभी दलों को पता है कि इस वक्त कांग्रेस बेहद कमजोर है और वह कप्तानी की स्थिति में नहीं है। कांग्रेस की कप्तानी में विपक्ष का जहाज टाइटेनिक भी बन सकता है। देश में राजनीति का स्वरूप बदलता रहा है। आजादी के वक्त कांग्रेस अकेली पार्टी थी, जिसकी पूरे देश में साख थी। आजादी के चंद वर्ष बाद ही प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, माकपा आदि के रूप में वैकल्पिक राजनीति शुरू हुई, लेकिन अस्सी के दशक तक भारतीय राजनीति में कांग्रेस का ही एकछत्र राज रहा। साठ के दशक के बाद बेशक डीएमके, अकाली दल आदि के रूप में क्षेत्रीय दल का उदभव होने लगा, लेकिन यह दौर एकल पार्टी का ही रहा। सत्तर के दशक में भारतीय राजनीति का अपराधीकरण शुरू हुआ, जिसमें चुनाव जीतने के लिए अपराधियों का सहारा लिया जाने लगा। अस्सी के दशक तक कांग्रेस का प्रभाव मलिन होने लगा और वैकल्पिक राजनीति के रूप में क्षेत्रीय दलों व राष्ट्रीय दल के रूप में भाजपा का उदय शुरू हुआ। वर्ष 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा देश पर थोपी गई इमरजेंसी ने कांग्रेस की एकल राजनीति का अवसान कर दिया। वर्ष 1977 में देश में पहली बार जनता पार्टी की गैर कांग्रेस सरकार बनी। जेपी की संपूर्ण क्रांति ने कांग्रेस को जरूर उखाड़ फेंका, लेकिन राजनीति का मजबूत गैर कांग्रेस विकल्प नहीं दिया। 1980 में कांग्रेस ने वापसी की। यह वो दौर भी था, जब अपराधी छवि वाले लोग सीधे राजनीति में प्रवेश करने लगे और लगभग सभी दल अपराधी छवि के नेताओं को टिकट देने लगे। अस्सी से नब्बे के बीच राजनीति और अपराधियों का नेक्सस काफी फला-फूला। यह दशक भारतीय राजनीति का ट्रांसफ्यूजन काल माना जा सकता है, जिसमें एक तरफ जहां कांग्रेस के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति के रूप में क्षेत्रीय दल व गठबंधन का युग शुरू हो रहा था, राजनीति में जातीय व धार्मिक उन्माद खुलेआम प्रवेश कर रहे थे, वहीं आपराधिक नेता राजनीति में जड़ जमा रहे थे। इस दौर में सभी गठबंधन कांग्रेस के खिलाफ बन रहे थे। 1991 में सरकार बनाने के लिए सांसदों का खरीद-फरोख्त भी शुरू हो गया। कांग्रेस ने ही यह परंपरा भी शुरू की।
वर्ष 1991 से ही भारत में आर्थिक उदारीकरण का दौर भी शुरू हुआ, और इसी के साथ भारतीय राजनीति का कॉरपोरेटीकरण भी शुरू हो गया। ब्रिटेन व अमेरिका से कॉरपोरेट पॉलिटिक्स की चली हवा भारत पहुंच गई। वर्ष 1990 में सोवियत संघ रूस के टूटने के बाद विश्व में विचारधारा के अंत की भी घोषणा होने लगी। इसका असर राजनीति पर भी दिखा और राजनीति से वैचारिक प्रतिबद्धता के अंत का आरंभ हुआ। अब राजनीति केवल सत्ता की होने लगी। नब्बे के दशक से लेकर अब तक की राजनीति के केंद्र में गठबंधन अपरिहार्य रहा। ये गठबंधन सुविधा के भी बने, राजनीतिक पसंद के भी बने, लेकिन हर गठबंधन सत्ता के लिए ही बना। गठबंधन ने राजनीतिक अस्थिरता भी पैदा की, कमजोर सरकारें भी दीं। वर्ष 1980 से 1990 के बीच का दौर ऐसा भी रहा जिसमें देश में बहुतायत में परिवारवादी, वंशवादी, व्यक्तिवादी दल अस्तित्व में आए और लोकतंत्र के नाम पर परिवार की सत्ता को मजबूत किया। वर्ष 1999 से लेकर अब तक दो दशक को भारतीय राजनीति में गठबंधन के स्वर्णिम काल के रूप में माना जाना चाहिए। इस दौरान गठबंधन में भी स्थिर सरकार बनी। 2014 के बाद से भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति के तौर तरीकों ने देश में बिखरे विपक्ष के सामने राजनीतिक अस्तित्व खड़ा कर दिया है। हिंदुत्व, विकास, जनकल्याण, सोशल इंजीनियरिंग, भारतीय अस्मिता और राष्ट्रवाद की राजनीति ने भाजपा को वटवृक्ष बना दिया है। अभी के विपक्षी दल इसमें बहुत पीछे छूट चुके हैं। जाति, बिरादरी की राजनीति से अब लोग ऊब चुके हैं, जबकि वे अभी तक इसी में फंसे हैं। करीब तीन दशक की जातिगत-क्षेत्रगत राजनीति ने निराश ही किया है। रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, सुरक्षा, खेती-किसानी के प्रश्न ज्यों के त्यों हैं।
परिवारवादी दलों ने भ्रष्टाचार को संस्थागत बना दिया, जिसने देश को घुन की तरह खोखला किया। विपक्षी गठबंधन इंडिया में शामिल सभी दलों को दस से बीस-तीस-चालीस-पचास साल तक शासन का अवसर मिला है, लेकिन वे समावेशी विकास व व्यवस्था परिवर्तन की मिसाल पेश नहीं कर सके हैं, इसलिए विपक्षी गठबंधन इंडिया भाजपा के खिलाफ केवल अपने राजनीतिक अस्तित्व बचाने की खातिर सत्ता के लिए जमावड़ा भर ही है, क्योंकि इनमें शामिल अधिकांश नेता फुके हुए कारतूस हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने समाजवाद के नाम पर राज्य, देश व संविधान को छला है और लोकतंत्र के नाम पर परिवारवाद, वंशवाद व व्यक्तिवाद को पोषित किया है। ये सियासत के ‘ययाति’ हैं। सत्ता के लिए विपक्षी दलों का ध्रुवीकरण शुरू हुआ है, अगर यह प्रयोग सफल हुआ तो आगे दो ध्रुवीय गठबंधन की राजनीति का नव दौर देखने को मिलेगा। भविष्य में छोटे दलों के बड़े में विलय की घटनाएं भी देखने को मिलेंगी, क्योंकि राजनीति के कॉरपोरेटीकरण के बाद से पार्टियों का अर्थशास्त्र बदल गया है, जिसमें छोटे दलों का सरवाइव करना मुश्किल होता जाएगा। बहरहाल, राष्ट्रवाद की पिच पर भाजपा को मात देने आए विपक्ष के इंडिया ने भाजपा को ‘इंडिया बनाम भारत’ की सियासत को तेज करने का अवसर दे दिया है।
(लेखक- शंभू भद्रा वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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