प्रमोद भार्गव का लेख : सामाजिक न्याय का बड़ा संदेश

प्रमोद भार्गव
हमारे संविधान के तीन आधारभूत सिद्धांत हैं, न्याय, समता और असंचय! बावजूद इन 75 सालों में हम इन मूलभूत सिद्धांतों पर पूरी तरह खरे नहीं उतरे हैं। अतएव असमानता और वैध-अवैध धन संग्रह की प्रवृत्ति के चलते आर्थिक विषमता की खाई भी चौड़ी होती जा रही है। आधुनिक व औद्योगिक विकास और शहरीकरण ने इन विसंगतियों को निरंतर बढ़ाने का काम किया है। पूंजीवादी इस विकास का यदि सबसे ज्यादा नुकसान किसी जाति समुदाय ने उठाया है तो वह आदिवासी समुदाय है। इस कथित विकास के नाम पर चार करोड़ आदिवासी विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। ऐसे में देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहली बार एक आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू को सत्तारूढ़ राजग ने बिठाने की तैयारी लगभग पूरी कर ली है। यदि कोई अनहोनी पेश नहीं आती है तो उनका राष्ट्रपति चुना जाना तय है, क्योंकि इस उम्मीदवारी के राजनीतिक निहितार्थ जो भी हों, अंततः देश में सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता का संदेश गया है।
द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से सामाजिक समरसता का वातावरण तो निर्मित होगा ही, देश के प्रथम नागरिक के रूप में आदिवासी चेहरा भी सामने आएगा। इस बार के चुनाव की यही बड़ी विलक्षण्ाता होगी। देश में करीब 13 करोड़ विभिन्न आदिवासी समुदाय हैं, जिनकी अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान है। सनातन हिंदुत्व में समाहित व समादृत मंत्रों की द्रौपदी मुर्मू एक निष्ठावान अनुयायी हैं, इसलिए उनका राष्ट्रपति बनना हाशिए के समाज को उत्थान और राजनीति की मुख्यधारा से जोड़ना तो होगा ही, उन वामपंथी ताकतों को भी झटका लगेगा, जो इस समुदाय को हिंदू और हिंदुत्व से काटने की कुटिल चालें पिछली शताब्दी से ही चल रहे हैं। जिस विधवा को समाज, विकृत परंपराओं के चलते समाज की मांगलिक भागीदारियों से वंचित कर देता है, उन वर्जनाओं को द्रौपदी मुर्मू ने रानी लक्ष्मीबाई और इंदिरा गांधी की तरह नकारा और विपरीत सामाजिक परिस्थितियों में कुरीतियों व कुप्रथाओं से जूझते हुए सामाजिक व राजनीतिक परिदृश्य बदलने में अपनी अहम भूमिका का निर्वहन किया। उन्होंने ऊपरबेड़ा गांव में रहते हुए ही शालेय शिक्षा और फिर भुवनेश्वर के रमादेवी महाविद्यालय से कला स्नातक की उपाधि प्राप्त की। सरकारी शिक्षिका बन गईं, लेकिन जिसे सामाजिक चुनौतियों से संघर्षरत रहते हुए कुछ क्रांतिकारी बदलाव करना था, वह मामूली शिक्षक रहते हुए परिवर्तन का वाहक कैसे बनता? गोया, उन्होंने नौकरी छोड़ दी और राजनीति में पदार्पण कर इस व्यापक क्षेत्र की पहली सीढ़ी पार्षद के पद पर निर्वाचित हुईं। हालांकि उन्हें राजनीति की शिक्षा अपने परिवार से ही मिली थी, उनके पिता और दादा भी गांव के प्रधान रहे थे। इसके बाद इस मेधावी महिला ने पलटकर नहीं देखा।
वे रायरंगपुर विधानसभा सीट से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर पहली बार 2000 में विधायक चुनी गईं और फिर 2004 में भी दोबारा चुनी गईं। मुर्मू बीजू जनता दल और भाजपा की गठबंधन सरकार में वाणिज्य एवं परिवहन तथा मत्स्य पालन एवं पषु संसाधन विकास मंत्री भी रहीं। 2015 से 2021 के दौरान भारत की पहली झारखंड राज्य की आदिवासी महिला राजपाल बनने का गौरव भी उन्हें प्राप्त है। जाहिर है उनकी यह यात्रा सामाजिक समरसता का आधार तो बनेगी ही, लोकतंत्र की जड़ें भी मजबूत करेगी, क्योंकि उन्हें एक मुखर सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में जाना जाता है। अतएव जो लोग उन्हें जनजाति समुदाय के एक प्रतीकात्मक प्रतिनिधि के रूप में देख रहे हैं, वे भूले हुए हैं कि अंततः वे संघ और भाजपा के उस एजेंडे को कारगर रूप देने में प्रयत्नशील दिखाई देंगी, जिससे आदिवासियों के सामुदायिक व धार्मिक हितों की तो प्रतिपूर्ति हो ही, आदिवासियों को जनगणना पत्रक में जो अलग धर्म-समुदाय चिन्हित करने के लिए खाना निर्धारित करने की मांग उठ रही है, उस मांग पर भी अंकुश लगेगा। झारखंड के आदिवासी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने एक आभासी परिचर्चा में कहा था कि भारत के आदिवासी हिंदू नहीं हैं। वे पहले भी कभी न कभी हिंदू थे और न कभी हिंदू होंगे। उन्होंने यह बात अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक वेबिनार में कही थी। झारखंड में 32 आदिवासी प्रजातियां हैं जो अपनी भाषा, संस्कृति और रीति-रिवाजों को अस्तित्व में बनाए रखने के लिए ईसाई मिशनरियों से संघर्षरत हैं। वैसे तो इस बयान को मिशनरियों की कुटिल चाल बताते हुए विश्व हिंदू परिषद के महासचिव मिलिंद परांडे ने आपत्ति जताई थी, अलबत्ता यह वेबिनार एक पश्चिमी विश्वविद्यालय द्वारा प्रायोजित थी और हम जानते हैं कि पश्चिमी शिक्षा पर मिशनरियों का प्रभाव है। संघ एवं भाजपा का लक्ष्य उन कानूनी लोचों को खत्म करना भी है, जिनके बूते आदिवासियों का धर्मांतरण आसान बना हुआ है।
दरअसल संविधान के अनुच्छेद-342 और 341 में धर्म परिवर्तन से जुड़े प्रावधानों में लोच है। 341 में स्पष्ट है कि अनुसूचित जाति (एसटी) के लोग धर्म परिवर्तन करेंगे तो उनका आरक्षण समाप्त हो जाएगा। इस कारण यह वर्ग धर्मांतरण से बचा हुआ है, जबकि 342 के अंतर्गत संविधान निर्माताओं ने जनजातियों के आदि मत और पुरखों की पारंपरिक सांस्कृतिक आस्था को बनाए रखने के लिए व्यवस्था की थी कि अनुसूचित जनजातियों को राज्यवार अधिसूचित किया जाएगा। यह आदेश राष्ट्रपति द्वारा राज्य की अनुशंसा पर दिया जाता है। इस आदेश के लागू होने पर उल्लेखित अनुसूचित जनजातियों के लिए संविधान सम्मत आरक्षण के अधिकार प्राप्त होते हैं। इस आदेश के लागू होने के उपरांत भी इसमें संशोधन का अधिकार संसद को प्राप्त है। इसी परिप्रेक्ष्य में 1956 में एक संशोधन विधेयक द्वारा अनुसूचित जनजातियों में धर्मांतरण पर प्रतिबंध के लिए प्रावधान किया गया था कि यदि इस जाति का कोई व्यक्ति ईसाई या मुस्लिम धर्म स्वीकार्यता है तो उसे आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। किंतु यह विधेयक अब तक पारित नहीं हो पाया है। गोया, अनुच्छेद-342 में 341 जैसे प्रावधान हो जाते हैं, तो अनुसूचित जनजातियों में धर्मांतरण की समस्या पर स्वाभाविक रूप से अंकुश लग जाएगा। द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद ऐसे झोलों को खत्म करने की संभावना बढ़ जाएगी।
हालांकि आपातकाल के दौरान किए गए 44वें संविधान संशोधन के द्वारा मंत्रिमंडल के सुझाव व प्रस्ताव पर राष्ट्रपति की स्वीकृति को बाध्यकारी बना दिया है। अतएव तय है आदिवासियों के हितों से संबंधित जो भी प्रस्ताव राष्ट्रपति के समक्ष आएगा, उन पर गंभीरता पूर्वक विचार होगा, इसीलिए कहा जा रहा है कि मुर्मू के राष्ट्रपति बनने पर भाजपा अपने राजनीतिक लक्ष्य साधने का काम करेगी। यही नहीं द्रौपदी मुर्मू का चयन उन सिद्धांतों को भी आकार देने वाला है, जिसके बूते अपनी योग्यता, प्रतिभा व कौषल दक्षता के बूते साधारण व्यक्ति भी देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने का अधिकारी बन जाता है। रामनाथ कोविंद, लालबहादुर शास्त्री और नरेंद्र मोदी प्रजातंत्र की इसी महिमा के उत्कृष्ट उदाहण हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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