प्रो. निरंजन कुमार का लेख : शिक्षा नीति से साकार होंगे बिरसा के स्वप्न

स्वतंत्रता दिवस की 75वीं वर्षगांठ को भारत सरकार 'आजादी का अमृत महोत्सव' के रूप में मना रही है जिसके माध्यम से देश अपने स्वतंत्रता संग्राम के महान योद्धाओं को स्मरण कर रहा है। इसी क्रम में आज 15 नवंबर को ही 1875 में जन्मे महान स्वाधीनता सेनानी बिरसा मुंडा को भी याद करने का अवसर है। आज की किशोर-युवा पीढ़ी के मन में एक सवाल उठता है कि बिरसा मुंडा या विभिन्न स्वाधीनता सेनानियों को याद करने का वर्तमान में क्या औचित्य है? इन बच्चों को बताने की जरूरत है कि हमारे स्वाधीनता के नायक-नायिकाओं ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए अपना तन-मन-धन और सम्पूर्ण जीवन जो समर्पित कर दिया था, उसके पीछे उनके कुछ स्वप्न थे। ये थे-आमजन का कल्याण। ऐसे ही एक स्वप्नद्रष्टा स्वाधीनता सेनानी थे 'धरती आबा' के नाम से प्रसिद्ध भगवान बिरसा मुंडा।
मुंडा नामक एक जनजातीय समूह में झारखंड के रांची में जन्मे बिरसा मुंडा गरीब घर से थे, लेकिन बिरसा पढ़ाई-लिखाई में शुरू से ही मेधावी थे। उनकी इच्छा एक मिशनरी स्कूल में प्रवेश लेने की हुई, लेकिन उस क्षेत्र में तब ईसाई स्कूलों में नामांकन के लिए ईसाई मजहब अपनाना अनिवार्य था। मज़बूरी में बिरसा ने भी अपना धर्म परिवर्तन कर लिया। इस समय ईसाई मिशनरियां ना सिर्फ अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करती थीं बल्कि दूसरे धर्मों अथवा संप्रदायों-संस्कृतियों को हीन एवं नीचा साबित करने और अपने पंथ की श्रेष्ठता सिद्ध करने में लगी रहती थीं। इस क्रम में मिशनरियों ने मुंडाओं की परम्परागत मान्यताओं और व्यवस्थाओं की घोर निंदा की। इन सब कारणों से बिरसा मुंडा का ईसाई धर्म से मोहभंग हो चला। वह अपनी आदिवासी परंपरा एवं रीति-रिवाजों की ओर लौट आए। बिरसा के जीवन में एक और मोड़ तब आया जब उनका हिंदू धर्म तथा महाभारत से परिचय हुआ। बिरसा ने अब एक अलग धार्मिक पद्धति का विकास किया जिसको उनके अनुयायियों ने 'बिरसाइत' कहा। उन्होंने नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्मसुधार आदि का उपदेश दिया। जब 1894 में अकाल और महामारी छोटानागपुर में फैली तब बिरसा ने पीड़ित लोगों के लिए जिस तरह से कार्य किया उससे वे धरती आबा अर्थात भगवान हो गए। आज झारखंड, बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में उन्हें भगवान की तरह पूजा जाता है। उन दिनों जनजाति क्षेत्रों में अंग्रेज प्रशासकों, जमींदारों और बाहर से आए हुए शोषणकारी तत्वों के द्वारा जनजातीय लोगों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक एवं धार्मिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करने का प्रयास किया गया। जनजातीय समुदाय के लोगों ने उसका प्रतिकार किया।
बिरसा मुंडा के 'उलगुलान विद्रोह' को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। पारंपरिक भूमि व्यवस्था के 'जमींदारी व्यवस्था' में बदलने के कारण बिरसा मुंडा ने उलगुलान विद्रोह आरंभ किया और ब्रिटिश सरकार को लगान न देने का आदेश अपने अनुयायियों को दिया था। मुंडा लोगों में सामूहिक भू-स्वामित्व की खुतकुंटी भूमि-व्यवस्था थी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने खत्म कर निजी भू-स्वामित्व पर आधारित नई व्यवस्था को लागू कर दिया था। इससे जनजातीय लोगों की जमीन छिनती जा रही थी। बिरसा ने इनसे निपटने के लिए अंग्रेज सरकार के खिलाफ नारा दिया 'रानी का शासन खत्म करो और हमारा राज्य स्थापित करो।'1897 से 1900 के मध्य बिरसा एवं उनके अनुयायियों और अंग्रेज सेना के बीच युद्ध होते रहे। अगस्त 1897 में बिरसा और उनके चार सौ सिपाहियों ने तीर-कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे बिरसा सेना और अंग्रेज सेनाओं की भिड़ंत हुई। इसमें पहले तो अंग्रेजी सेना की हार हुई, लेकिन बाद में अनेक आदिवासी नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया। जनवरी 1900 को डोम्बरी पहाड़ पर एक और युद्ध हुआ। विद्रोह की विकरालता तथा इसके बढ़ते प्रभाव से चिंतित ब्रिटिश शासन ने इस विद्रोह को कुचलना शुरू किया। अन्त में बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया गया। उनका देहावसान ब्रिटिश हिरासत में ही 9 जून 1900 को मात्र 25 वर्ष की अवस्था में हो गया। बिरसा मुंडा के योगदान और बलिदान को याद करते हुए ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिरसा मुंडा की जयंती को 'जनजातीय गौरव दिवस' के रूप में प्रत्येक वर्ष मनाने की घोषणा की है। देश की आजादी में जनजातीय नायक-नायिकाओं के संघर्ष और स्वप्नों को भी याद करने के लिए 15 से 22 नवंबर तक पूरे भारत में जनजातीय महोत्सव मनाया जाएगा। साथ ही जनजातीय कला और संस्कृति पर कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे. स्वयं पीएम मोदी 15 नवंबर को भोपाल में जनजातीय गौरव दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में शामिल हो रहे हैं।
यहां यह उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा कि बिरसा मुंडा के सपनों के अनुरूप नई शिक्षा नीति-2020 में जनजातियों की अभिरुचियों, आकांक्षाओं और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बहुत सारे नीतिगत प्रावधान बनाए गए हैं। सर्वप्रथम तो यही कि यथासंभव 5वीं क्लास तक की शिक्षा मातृभाषा में दी जाएगी, खासतौर से उन जनजातीय क्षेत्रों में जहाँ बच्चे कोई अन्य भाषा नहीं समझते। स्कूली व कॉलेज शिक्षा में जनजातीय बच्चों की भागीदारी बढ़ाने के प्रयासों के तहत उन क्षेत्रों में विशेष छात्रावास, ब्रिज कोर्स, और शुल्क छूट और वित्तीय सहायता की पेशकश की जाएगी। फिर, सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित समूहों के शैक्षिक विकास के लिए सरकारी शिक्षण संस्थानों के अतिरिक्त प्राइवेट संस्थानों में भी छात्रवृति के प्रयास किए जाएंगे।
जनजातीय समाज की एक प्रमुख समस्या है उनकी भाषाओं के विलुप्त होने का खतरा। यूनेस्को ने 197 भारतीय भाषाओं को 'संकटग्रस्त' घोषित किया है। इन भाषाओं, संस्कृति की अभिव्यक्तियों को संरक्षित या रिकॉर्ड करने के लिए एनईपी-2020 अत्यंत सजग है। एनईपी-2020 में समग्र और बहु-विषयक शिक्षा के लिए अन्य चीजों के अतिरिक्त खेल पर भी विशेष बल दिया गया है। जनजातियों के लिए यह प्रावधान विशेष उपयोगी होगा, जिनमें खेल-प्रतिभासहज विद्यमान होती है। जनजाति समुदायों के बच्चे अक्सर अपनी शिक्षा को सांस्कृतिक और अकादमिक रूप से अप्रासंगिक, अपने जीवन के लिए अनुपयोगी और बेगाना या अजनबी पाते हैं, इसीलिए उच्च शिक्षा के स्तर पर जनजातीय-औषधीय प्रथाओं, वन प्रबंधन, पारंपरिक (जैविक) फसल की खेती, प्राकृतिक खेती आदि में विशिष्ट पाठ्यक्रम को विशेष बढ़ावा दिया जाएगा। इसके अतिरिक्त रक्षा मंत्रालय के तत्वावधान में जनजातीय बहुल क्षेत्रों में स्थित राज्य विद्यालयों में एनसीसी विंग खोलने को प्रोत्साहन दिया जाएगा। यह जनजातीय छात्रों की प्राकृतिक प्रतिभा और अद्वितीय क्षमता का विकसित करने और रक्षा बलों में एक सफल कैरियर की आकांक्षा को पूरा करने में मदद करेगा। एनईपी-2020 के इन प्रावधानों को भली-भांति लागू किया जाए तो निश्चित रूप से जनजातीय समुदाय का समुचित विकास हो सकेगा, जो भगवान बिरसा मुंडा का स्वप्न भी था।
(लेखक दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं ये उनके अपने विचार हैं।)
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