कुमार प्रशांत का लेख : सुनक और हमारी सनक

पिछले 210 साल के ब्रितानी इतिहास में सबसे कम 42 साल के, अश्वेत, हिंदू धर्मावलंबी ऋषि सुनक को इंग्लैंड का प्रधानमंत्री बनाना इंग्लैंड के लिए और भी और कंजरवेटिव पार्टी के लिए भी संतोष भरे गर्व का विषय होना चाहिए। अपने सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक जीवन के एक अत्यंत नाजुक दौर में, पार्टी ने हर तरह के भेद को भुलाकर, अपने बीच से एक ऐसा आदमी खोज निकाला है जो उसे लगता है कि उसके लिए अनुकूल रास्ता खोज सकता है। उसका यह चयन कितना सही है, यह समय बताएगा, लेकिन यह खोज ही अपने अाप में इंग्लैंड को विशिष्ट बनाती है। सुनक की कंजरवेटिव पार्टी भारत के लिए बहुत अनुकूल नहीं रही है, लेकिन आज की बदलती दुनिया में, पुरानी छवियां खास मतलब नहीं रखती हैं। आज जो है वही आज के मतलब का है। भारत को भी और इंग्लैंड को भी जरूरत है एक-दूसरे से नया परिचय करने की और सुनक इसे शायद आसान बना सकेंगे।
सुनक के इंग्लैंड का प्रधानमंत्री बनने का भारतीय संदर्भ में इतना ही मतलब है-न इससे ज्यादा, न इससे कम, लेकिन सुनक के प्रधानमंत्री बनते ही जैसी सनक भारतीय मन व मीडिया पर छाई है- आम लोगों से लेकर अमिताभ बच्चन तक! वह अफसोसजनक बचकानी है। ऐसा कुछ भाव बनाया जा रहा है मानो सुनक के बहाने अब भारत इंग्लैंड पर वैसे ही राज करने जा रहा है, जिस तरह कभी इंग्लैंड ने हम पर राज किया था। किसी ने इसे 'बदला' बताया है तो किसी ने 'स्वाभाविक न्याय'। मुंगेरीलाल के हसीन सपनों में बावलापन था, हमारी इन प्रतिक्रियाअों में अतिरेक है। सुनक एक प्रतिबद्ध, समर्पित ब्रितानी नागरिक हैं, जैसा कि उन्हें होना चाहिए। उनका विवाह एक भारतीय लड़की से हुआ है। उस भारतीय लड़की का नारायण-सुधामूर्ति परिवार- भारत के सबसे प्रतिष्ठित व संपन्न परिवारों में ऊंचा स्थान रखता है। इस लड़की से शादी के बाद सुनक इंग्लैंड के सबसे अमीर 250 लोगों में गिने जाते हैं। इसके अलावा सुनक का कोई तंतु भारत से नहीं जुड़ता है। न ऋषि सुनक भारत में जन्मे हैं, न उनके माता-पिता, यशवीर व उषा सुनक का जन्म भारत में हुआ है। उनके दादा-दादी जरूर अविभाजित भारत के पंजाब के गुजरांवाला में पैदा हुए थे, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान में चला गया। दादा-दादी परिवार ने भी अर्से पहले गुजरांवाला छोड़ दिया था और अफ्रीका जा बसे थे। जहां से 1960 में, अर्द्ध-शताब्दी पहले वे इंग्लैंड जा बसे। जिस तरह अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा केन्या में जन्मे थे और ईसाई धर्म में आस्था रखते हैं, ठीक वैसे ही सुनक इंग्लैंड में जन्मे, हिंदू धर्म में आस्थ् रखते हैं। हमें अपनी सोनिया गांधी से सुनक को समझना चाहिए जिनका जन्म इटली में हुआ, जो जन्ममना ईसाई धर्म की अनुयायी हैं लेकिन एक भारतीय लड़के से शादी कर भारतीय बनीं तो आज उनका कोई भी तंतु इटली से पोषण नहीं पाता है। धर्म की परिकल्पना एक संकीर्ण बाड़े के रूप में करने वालों के लिए सोनिया व सुनक जैसे लोग एक उदाहरण बन जाते हैं कि धर्म निजी चयन व आस्था का विषय है, होना चाहिए, लेकिन उससे नागरिकता या पहचान तय नहीं की जा सकती है। सुनक के मामले में ऐसा करके हम इंग्लैंड के अंग्रेजों में मन में नाहक संकीर्णता का वह बीज बो देंगे जो कहीं है नहीं यह न भारत के हित में है और न ही इंग्लैंड के।
रंग-धर्म-जाति-लिंग-भाषा आदि के मामले में दुनिया का मन जरा-जरा-सा बदल रहा है। हम उसे पहचानें तथा उसका सम्मान करें, यह हमारे व संसार की हमारी भावी पीढ़ियों के हित में है। पूर्णकालिक राजनीतिक बनने से पहले सुनक इन्वेस्टमेंट बैंकर रहे, फिर गोल्डमैन सांच तथा हेज फंड पार्टनर रहे हैं। आर्थिक जगत में बड़ा मुकाम रखने वाली कुछ अन्य कंपनियों से भी उनका नाता रहा। मतलब यह कि प्रारंभ से ही वे पैसों की दुनिया में चहलकदमी करते रहे हैं। विडंबना यह है कि पैसे वालों की दुनिया ने ही आज पैसे का बुरा हाल कर रखा है जिससे दुनिया का बुरा हाल है। सवाल उठता है कि क्या अब इस बदहाल दुनिया को संभालने-संवारने का काम सिर्फ पैसों के खिलाड़ी कर सकते हैं? हमने मनमोहन सिंह को देश की बागडोर थमाकर यह प्रयोग किया था। आर्थिक संकट को संभालने में वे किसी हद तक कामयाब भी हुए थे, लेकिन मनमोहन-काल देश को समग्रता में संवारने के लिए नहीं, बिगाड़ने के लिए याद किया जाता है। उसी विफलता में से आज का शासन सामने आया जिसके पास न आर्थिक समझ है, न भारतीय समाज की समग्र समझ! सुनक कोरोना-काल में इंग्लैंड के वित्तमंत्री थे। उन्होंने इंग्लैड को तब जिस तरह संभाला, उसकी सर्वत्र तारीफ भी हुई, लेकिन कई दूसरी बातें भी हुईं जो बताती हैं कि उनके पास वह समग्र सोच नहीं है जिसके बगैर इंग्लैंड आज के संकट से पार नहीं पा सकता है। ब्रेक्जिट से निकलने के बाद से हम देख रहे हैं कि इंग्लैंड आर्थिक रूप से किसी हद तक निराधार हो गया है अौर गहरी राजनीतिक अस्थिरता से घिर गया है। 2008 से छाई वैश्विक मंदी का गहरा परिणाम वह भुगत रहा है। उत्पादक सूचकांक लगातार गिरता जा रहा है तथा रोजगार तेजी से सिकुड़ता जा रहा है। महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है। ऊर्जा संकट उसे अंधकार में खींच रहा है तो यूक्रेन-रूस युद्ध उसके वैकल्पिक रास्ते बंद करता जा रहा है। बोरिस जाॅन्सन की खिलंदड़ी राजनीति ने इंग्लैंड को इस तरह डरा दिया कि उसे रूस से अपनी सुरक्षा की चिंता होने लगी। परिणामत: उसका रक्षा बजट अंधाधुंध बढ़ने लगा जो आज भी जारी है और उसे खोखला कर रहा है। कंजरवेटिव पार्टी भीतर से बिखरी हुई, गुटों में टूटी हुई तथा अवसरवादियों से भरी हुई है। लेबर पार्टी के पास भी कोई प्रभावी नेतृत्व नहीं है। सुनक के पास विकल्प कितने कम हैं, इसे हम इस तरह पहचान सकते हैं कि सुनक ने अपने मंत्रिमंडल में उन मुख्य लोगों को बनाए रखा है जिन्हें 45 दिनों की प्रधानमंत्री लिज ट्रस चुना था और जिनकी सलाह व मदद से उन्होंने वह मिनी-बजट पेश किया था जिसने उनकी सरकार व उनके राजनीतिक भविष्य को ही लील लिया। ऐसी विकल्पहीनता में से सुनक को खुद को बेहतर विकल्प साबित करना है।
राजनीतिक व सामाजिक चुनौतियों के समक्ष सुनक नए भी पड़ेंगे और अकेले भी। उनका यह कार्यकाल ब्रितानी जनता द्वारा प्रमाणित नहीं है, इसका दवाब भी उन्हें झेलना होगा। मतलब यदि कांटों का ताज जैसी कोई उपमा होती है तो सुनक ने आगे बढ़कर वह ताज स्वयं अपने माथे पर रख लिया है। हम उस माथे के लिए भी और उस ताज के लिए भी सहानुभूति रखते हैं और शुभकामनाएं भी भेजते हैं।
(ये लेखक कुमार प्रशांत के अपने विचार हैं।) लेख पर अपनी प्रतिक्रिया [email protected] पर दे सकते हैं।
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