प्रमोद जोशी का लेख : जातियों का मसला, समस्या या समाधान

बिहार में जातियों की जनगणना के नतीजे आने के बाद देश में जातिगत-आरक्षण की बहस फिर से तेज होने जा रही है, जिसका असर लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा। सर्वेक्षण का फायदा गरीब, पिछड़ों और दलितों को मिले या नहीं मिले, पर इसका राजनीतिक लाभ सभी दल लेना चाहेंगे। राष्ट्रीय स्तर पर जाति-जनगणना की मांग और शिक्षा तथा नौकरियों में आरक्षण की 50 फीसदी की कानूनी सीमा पर फिर से विचार करने की मांग जोर पकड़ेगी। न्यायपालिका से कहा जाएगा कि आरक्षण पर लगी ‘कैप’ को हटाया जाए। हिंदुओं के व्यापक आधार तैयार करने की मनोकामना से प्रेरित भारतीय जनता पार्टी और ओबीसी, दलितों और दूसरे सामाजिक वर्गों के हितों की रक्षा के लिए गठित राजनीतिक समूहों के टकराव का एक नया अध्याय अब शुरू होगा। यह टकराव पूरी तरह नकारात्मक नहीं है। इसके सकारात्मक पहलू भी हैं। यह जानकारी भी जरूरी है कि हमारी सामाजिक-संरचना वास्तव में है क्या। सर्वेक्षण से पता चला है कि बिहार की 13 करोड़ आबादी के 63 फीसदी हिस्से का ताल्लुक अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की श्रेणियों में शामिल की गई जातियों से है। इसमें लोगों के सामाजिक-आर्थिक विवरण भी दर्ज किए गए हैं, लेकिन वे अभी सामने नहीं आए हैं। उधर गत 31 जुलाई रोहिणी आयोग ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। हालांकि, रिपोर्ट की सिफारिशों को सार्वजनिक नहीं किया गया है, पर उसके निहितार्थ भी महत्वपूर्ण साबित होंगे।
सवाल ही सवाल
अब तीन या चार तरह के सवाल खड़े होंगे। इन नतीजों ने राष्ट्रीय-स्तर पर क्या ऐसी ही जनगणना की जरूरत को उजागर किया है? महामारी के कारण इस बार की जनगणना समय से नहीं हो पाई है। इस जनगणना के साथ देश के लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन जुड़ा हुआ है। महिला-आरक्षण भी जनगणना से जुड़ गया है। अभी तक लाभ किस वर्ग को मिला और कौन सा वर्ग सबसे ज्यादा लाभान्वित हुआ और कौन सबसे वंचित है? बिहार के सर्वेक्षण से गणना-पद्धति पर भी रोशनी पड़ी है। सूची में दर्ज 214 जातियों में से हरेक को एक कोड दिया गया। पहले विभिन्न उप-जातियों एवं संप्रदायों की पहचान की गई और फिर एक व्यापक जाति नाम के अंतर्गत उसे शामिल किया गया। केंद्र सरकार के 2011 के ‘सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना’ के विवरण को जारी नहीं कर पाने की एक वजह यह थी कि उसमें हासिल डेटा भ्रामक और जटिल था। लोगों ने अपनी जाति के जो नाम बताए, उससे करीब 46 लाख जातियों का पता लगा था। जातियों, उप-जातियों, संप्रदायों, गोत्रों और स्थानीय उपनामों के कारण सूची बढ़ती चली गई।
व्यापक सवाल
देश की बहुरंगी तस्वीर की झलक और विकास के लिए आवश्यक सूचनाएं हमें जनगणना से मिलती हैं। जनगणना के पैरामीटर्स तय करते हैं कि हमें किस बात की जानकारी लेनी है। हमारी जनगणना में सन 1931 तक जातियों की संख्या भी गिनी जाती थी। वह बंद कर दी गई। सन 2001 की जनगणना के पहले यह मांग उठी कि हमें जातियों की गिनती भी करनी चाहिए। वह मांग नहीं मानी गई। 2009 में तमिलनाडु की पार्टी पीएमके ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की कि जनगणना में जातियों को भी शामिल किया जाए। वह अपील नहीं मानी गई। अदालत ने कहा, यह नीतिगत मामला है। सरकार को इसे तय करना चाहिए। जातिवाद या जाति-चेतना अपनी जगह है और वह जनगणना न कराने से खत्म नहीं होगी। मोटे तौर पर माना जाता है कि देश की हिंदू आबादी में 24-25 प्रतिशत अजा-जजा, 15-20 प्रतिशत सवर्ण और 50-60 प्रतिशत ओबीसी हैं। बेहतर है कि जो तस्वीर है उसे सामने आने दीजिए।
जाति बनी डेटा पॉइंट
जो तस्वीर उभर कर आई है, वह यह भी कह रही है कि समूचा पिछड़ा वर्ग एक नहीं है। उसके भीतर कुछ कम और कुछ ज्यादा पिछड़े हैं। यह भी कि कुछ वर्गों को लाभ काफी मिला और कुछ एकदम वंचित रह गए। जनगणना में जाति की पहचान होने से सिर्फ बेस डेटा बनेगा। समस्याओं का हल हमारी सामाजिक-मशीनरी को ही खोजना होगा, जो शिक्षा और आर्थिक-रूपांतरण पर निर्भर है। कमजोर वर्गों के सबल होने पर वे अपने अधिकारों के लिए खुद भी प्रयास करेंगे, पर प्रयास का मतलब केवल टकराव नहीं है। मीडिया को और राजनीतिक दलों को किसी खास चुनाव क्षेत्र की जातीय संरचना के लिए राजनीतिक पार्टियों का मुंह जोहना नहीं होगा। जातीय जनगणना होने पर ये आंकड़े सरकारी स्तर पर तैयार होंगे। बहुत सी जातीय पहचानों और नेताओं की जमात भी खड़ी होगी। अजा-जजा और ओबीसी में अनेक जातियों के अपने नेता नहीं हैं। राजनीति में नए वर्गों का प्रवेश होगा।
जाति या कुछ और
सिद्धांततः हमारा संविधान धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव रोकने के लिए कृत-संकल्प है। अनुच्छेद 14 से 18 समानता पर केंद्रित हैं। जातीय आरक्षण के बारे में संवैधानिक व्यवस्था की ज़रूरत तब पड़ी, जब 1951 में मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दुरईराजन केस में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी आदेश को रद कर दिया। इसके बाद संविधान के पहले संशोधन में अनुच्छेद 15 में धारा 4 जोड़ी गई। इस धारा में समानता के सिद्धांत के अपवाद के रूप में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को या अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गईं। संविधान में संशोधन करते वक्त अजा-जजा का नाम साफ लिखा गया। अनुच्छेद 366(24)(25) के तहत अनुच्छेद 341 और 342 में अजा-जजा की परिभाषा भी कर दी गई, पर सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की परिभाषा नहीं की गई। इसे पारिभाषित करने के लिए 1953 में काका कालेलकर आयोग और 1978 में बीपी मंडल की अध्यक्षता में आयोग बनाए गए। संविधान की शब्दावली में शैक्षिक व सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों का उल्लेख जाति-निरपेक्ष है। इसमें जाति शब्द से बचा गया है।
सामाजिक परतें
हालांकि ज्यादातर अदालती फैसलों में जाति एक महत्वपूर्ण बिंदु है, पर केवल मात्र जाति पिछड़ेपन का आधार नहीं है। अदालतों की भावना है कि जाति भी नागरिकों का एक वर्ग है, जो समूचा सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हो सकता है। जाति की सामाजिक पहचान है, इसलिए उससे शुरूआत की जा सकती है। पिछड़ेपन की कई परतें खुलने से यह समस्या जटिल हुई है और बिहार की जनगणना ने इसे सुलझाने के बजाय और जटिल बनाया है। यह मसला राजनीतिक रस्साकशी का विषय होने के कारण और जटिल बन गया है। कई जगह गांव का निवासी होना या पहाड़ी क्षेत्र का निवासी होना भी पिछड़ेपन का आधार बनता है। स्त्रियां स्वयं में क्या एक अलग सामाजिक वर्ग नहीं हैं? यदि हैं, तो उनके भीतर भी कई परतें हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि ट्रांस-जेंडर भी पिछड़ा वर्ग हो सकता है। इसका मतलब है कि पिछड़ेपन की नवीनतम परिभाषाओं की हमें जरूरत है।
जितनी भागीदारी
गत 3 अप्रैल को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने विरोधी दलों की बैठक इसी इरादे से बुलाई थी। उसके बाद कर्नाटक-चुनाव के दौरान कोलार की एक रैली में राहुल गांधी ने नारा लगाया, ‘जितनी आबादी, उतना हक।’ वस्तुतः यह बसपा के संस्थापक कांशीराम के नारे का ही एक रूप है, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।’ राहुल गांधी ने इसे दोहरा तो दिया है, पर यह बात समस्या बनकर खड़ी भी हो सकती है। भविष्य में परिसीमन के बाद संसद में उत्तरी राज्यों की सीटें बढ़ेंगी, तब उसका दक्षिण में विरोध होगा। तब राहुल गांधी ‘जिसकी जितनी संख्या भारी’ के सिद्धांत को किस प्रकार उचित ठहराएंगे, यह देखना होगा। क्या वे अपनी पार्टी के भीतर उस भागीदारी को जगह देंगे?
आरक्षण की सीमा
राहुल गांधी ने यह भी कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने जातीय आधार पर आरक्षण की जो सीमा 50 प्रतिशत तक रखी है, उसे खत्म करना चाहिए। इसके पहले रायपुर में हुए पार्टी महाधिवेशन में इस आशय का एक प्रस्ताव पास भी किया गया है। पार्टी ने मंडल-राजनीति का वरण करके आगे बढ़ने का निश्चय किया है। ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल ज्यादातर पार्टियां मंडल-समर्थक हैं। इन पार्टियों की मांग है कि देश में जाति-आधारित जनगणना होनी चाहिए। जाति से जुड़े कुछ सवाल अभी और हैं। मसलन क्या कोई वर्ग अनंत काल तक सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा रहेगा। पूरा वर्ग न भी रहे तो क्या उसका कोई हिस्सा पिछड़ेपन से कभी उबरेगा। इस दृष्टि से मलाईदार परत की अवधारणा बनी है।
जातीय यथार्थ
बड़ी संख्या में पार्टियां जाति विशेष का प्रतिनिधित्व करती हैं। उत्तर में और दक्षिण में भी। ऐसा भी नहीं है कि ब्राह्मणों की एक, क्षत्रियों की एक, वैश्यों की एक और ओबीसी की एक पार्टी हो। हर राज्य के अपने जातीय-बंधु हैं। बीजेपी को लोग सवर्णों की पार्टी मानते हैं, पर सबसे ज्यादा ओबीसी सांसद और विधायक इसी पार्टी में हैं। ज्यादा सवाल सामाजिक हैं। विजातीय विवाह करने पर हत्याओं की खबरें मिलती रहती हैं। विजातीय होना ऊंच-नीच से नहीं जुड़ा। हरियाणा में खाप के झगड़े एक ही जातीय स्तर के हैं। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और पिछड़ों में भी अनेक वर्ग एक-दूसरे से शादी-विवाह नहीं करते। हमें इन बातों से भागना नहीं, समझना चाहिए। न भूलें कि संविधान का लक्ष्य जाति-विहीन समाज का निर्माण है। देश को जातिगत पहचान पर ज़ोर दिए बिना अवसर की समानता और संसाधनों के समान वितरण सुनिश्चित करने के तरीकों की तलाश करनी चाहिए, पर राजनीति, जातिगत पहचान पर टिकी है, तो कोई वजह जरूर है। यह वजह अगर देश की एकता अखंडता में बाधक बन सकती है, तो इस पर हमें सजग होना चाहिए।
(लेखक- प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने निजी विचार हैं)
© Copyright 2025 : Haribhoomi All Rights Reserved. Powered by BLINK CMS
-
Home
-
Menu
© Copyright 2025: Haribhoomi All Rights Reserved. Powered by BLINK CMS