जाति के नाम पर राजनीति भारत का स्याह सच

जाति के नाम पर राजनीति भारत का स्याह सच
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जाति के नाम पर राजनीति भारत का स्याह सच है। यह दशकों से की जा रही है। जातीय समीकरण के आधार पर टिकट बांटे जाते हैं, चुनाव के दौरान जाति के आधार वोटरों की गोलबंदी की जाती है। जातिगत गठजोड़ को केंद्र में रखकर दल अपना एजेंडा तय करते हैं। कई दलों का राजनीतिक अस्तित्व ही जातीय सियासत पर टिका है। कुछेक जातियों का समूह बनाकर अस्मिता की राजनीति की जाती है।

जाति के नाम पर राजनीति भारत का स्याह सच है। यह दशकों से की जा रही है। जातीय समीकरण के आधार पर टिकट बांटे जाते हैं, चुनाव के दौरान जाति के आधार वोटरों की गोलबंदी की जाती है। जातिगत गठजोड़ को केंद्र में रखकर दल अपना एजेंडा तय करते हैं। कई दलों का राजनीतिक अस्तित्व ही जातीय सियासत पर टिका है। कुछेक जातियों का समूह बनाकर अस्मिता की राजनीति की जाती है। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले शायद ही कोई चुनाव हो, जिसमें जाति को केंद्र में रखकर सियासत का दांव न चला गया हो।

उत्तर और दक्षिण दोनों भारतीय राज्यों में अनेक दल हैं जिनका वजूद ही जीतिगत वोटबैंक पर टिका है। उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, झारखंड मुक्ति मोर्चा, तृणमूल, अपना दल, लोक जनशक्ति पार्टी, रालोसपा, रालोद, शिअद, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, एनसी, पीडीपी, बीजू जनता दल आदि ऐसे दल हैं, जिनकी जाति विशेष के दल के तौर पहचान बन गई है।

दक्षिण भारत में डीएमके, अन्नाद्रमुक, टीडीपी, जेडीएस, वाईएसआरसी, जनसेना, महाराष्ट्र गोमांतक पार्टी आदि की पहचान भी जाति विशेष की राजनीति करने वाले दल के रूप में है। बिहार व उत्तर प्रदेश की तरह कर्नाटक व तमिलनाडु में सबसे अधिक जाति के आधार पर राजनीतिक विभाजन है। जातिगत गोलबंदी व समीकरण की राजनीति कांग्रेस भी करती रही है, लेकिन इसकी पहचान जातिगत पार्टी की नहीं है।

ऐसा नहीं है कि भाजपा दूध की धुली हुई है। यह पार्टी भी जातिगत गुणा-भाग का ध्यान रखकर टिकट बांटती है, लेकिन वह जाति को केंद्र में रखकर कभी राजनीति नहीं करती है। 2014 में देश में पहली बार जातिगत जनाधार दरकते देखा गया, मोदी लहर में जाति की दीवार टूटी। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि जातिगत राजनीति करने वाले दलों को या तो एक भी सीट नहीं मिली, या न्यूनतम सीटें मिलीं।

भाजपा को अधिकतम सीटें मिलना प्रमाण था कि लोगों ने जाति की दीवार तोड़कर वोटिंग की। 2014 के आम चुनाव में सबसे तगड़ा झटका बसपा को लगा था, जो सबसे अधिक दलित स्मिता की राजनीति करती रही है। बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी। कमाल की बात थी कि सबसे अधिक सुरक्षित सीटों पर भाजपा को ही मिली थी। इसका मतलब था कि बसपा सरीखे दलों का जातिगत अस्मिता के सियासी कॉकस का तिलिस्म टूटा था।

2019 में बसपा प्रमुख मायावती को यही डर सता रहा है कि कहीं उनकी दलित राजनीति डिरेल न हो जाए, इसलिए वह सबसे अधिक भाजपा व पीएम नरेंद्र मोदी को निशाना बना रही हैं। मैनपुरी की रैली में मुलायम सिंह को असली पिछड़ा बताते हुए नरेंद्र मोदी को फर्जी पिछड़ा बता कर मायावती ने ही पहले जाति को उछालने का धत्कर्म शुरू किया था। ऐसी स्थति में दूसरे पक्ष को भी जवाब देना पड़ता है। मोदी की डिग्री व जाति को लेकर पहले भी राजनीति हुई है।

सबका साथ सबका विकास की शैली की राजनीति व सरकार के बाद जातिगत अस्मिता की राजनीति करने वाले दलों को अपना सियासी वजूद खत्म होते दिख रहा है, शायद इसलिए आम चुनाव के मध्य में असली-नकली जाति का वितंडा खड़ा किया जा रहा है। आज 21वीं सदी में जरूरत विकासपरक राजनीति की है, जातिगत राजनीति की नहीं। पेरियार, डा. भीमराव आंबेडकर, डा. राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण आदि नेताओं ने जातिगत राजनीति का हमेशा विरोध किया था।

जाति के आधार पर की जाने वाली हर राजनीति को नकारा जाना चाहिए। इसमें चुनाव आयोग अहम भूमिका निभा सकता है। जिस तरह धर्म और अपशब्द के प्रयोग को आचार संहिता का उल्लंघन मानकर चुनाव आयोग ने कार्रवाई की, ठीक वैसे ही जाति को लेकर भी आचार संहिता का मानदंड तय किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट भी संज्ञान लेकर जातिगत राजनीति पर विराम लगा सकता है। देश में हर हाल में जाति-धर्म की राजनीति बंद होनी चाहिए। इसके चलते असली मसले नेपथ्य में चले जाते हैं।

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