प्रणय कुमार का लेख : अंकों की दौड़ में गुम होता बचपन

प्रणय कुमार
हाल ही में बोर्ड-परीक्षा के परिणाम घोषित हुए। 12वीं में 92.71 तो 10वीं में 94.40 प्रतिशत विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए। पिछले वर्ष के मुकाबले इस वर्ष 12वीं के परिणाम में 6.66 तो दसवीं में 4.44 प्रतिशत की गिरावट आई है। यद्यपि बोर्ड ने विद्यार्थियों का बोझ कम करने की दृष्टि से सत्र को दो भागों में विभाजित किया था, पर इससे बोझ और बढ़ा तथा मूल्यांकन में देरी और अनावश्यक जटिलता भी पैदा हुई। बल्कि प्रथम सत्र की परीक्षा में छूटे छिद्रों के कारण विभिन्न केंद्रों पर कदाचार के मामले सामने आए। कदाचित बोर्ड ने भी सत्रों के विभाजन एवं बहु वैकल्पिक प्रश्नों पर आधारित वस्तुपरक परीक्षा को अनुचित एवं अपर्याप्त माना, तभी उसने सत्र 2022-23 में पूर्व-प्रचलित पद्धत्ति से केवल वार्षिक परीक्षा कराने का निर्णय लिया है।
बोर्ड-परीक्षाओं के परिणाम एवं विभिन्न प्रतियोगी-परीक्षाओं की प्रतिभा-सूची को देखकर कहीं बधाइयों का तांता लगा तो कहीं शोक का सन्नाटा पसरा है। कोई ठहरकर यह सोचने को तैयार नहीं कि कोई भी परीक्षा जिंदगी की अंतिम परीक्षा नहीं होती और न ही किसी एक परीक्षा के परिणाम पर सब कुछ निर्भर ही करता है। जीवन अवसर देता है और बहुधा बार-बार देता है। अंततः ज्ञान और प्रतिभा ही मायने रखती है और इन्हीं पर जीवन की स्थायी सफलता-असफ़लता निर्भर किया करती है। समाज में प्रायः ऐसे दृष्टांत देखने को मिलते हैं कि बोर्ड-परीक्षाओं में कम अंक या प्रतियोगी परीक्षाओं में मिली प्रारंभिक विफलता के बाद भी धैर्य और निरंतरता के साथ किए गए परिश्रम और पुरुषार्थ अंततः फलदायी सिद्ध होते हैं, परंतु ऐसे तमाम दृष्टांतों के बावजूद बोर्ड एवं प्रतियोगी परीक्षाओं के दबाव और तनाव में एक ओर गुम होता बचपन दिखाई देता है तो दूसरी ओर येन-केन-प्रकारेण पास होने और अधिक-से-अधिक अंक बटोरने का तीव्रतम उतावलापन भी। सवाल है कि क्या कागज के एक टुकड़े भर से किसी के ज्ञान या व्यक्तित्व का समग्र और सतत आकलन-मूल्यांकन किया जा सकता है? क्या किसी एक परीक्षा की सफलता-असफलता पर ही भविष्य की सारी सफलताएं-योजनाएं निर्भर करती हैं? जीवन की वास्तविक परीक्षाओं में ये परीक्षाएं कितनी सहायक हैं? इन्हें जाने बिना अंकों के पीछे बदहवास होकर दौड़ने की प्रवृत्ति दिनों-दिन बढ़ रही है। यदि किसी विद्यार्थी के प्राप्तांक प्रतिशत कम हैं, पर वह नैतिक व्यावहारिक कसौटियों पर खरा उतरता हो तो क्या यह सब उसकी योग्यता का मापदंड नहीं होना चाहिए? क्या उसके संवाद-कौशल, नेतृत्व-क्षमता, सेवा-भाव, प्रकृति-परिवेश के प्रति सजगता आदि का आकलन नहीं किया जाना चाहिए। पिछले सौ वर्षों की महानतम मानवीय उपलब्धियों पर यदि नज़र डालें तो मानवता को दिशा देने वाले लोग विद्यालयी परीक्षाओं में सर्वोच्च अंक लाने वाले लोग नहीं थे, बल्कि उनमें से कई तो तत्कालीन शिक्षण-तंत्र की दृष्टि में कमज़ोर या फिसड्डी थे। हां, समाज को लेकर उनका ज्ञान विशद और दृष्टिकोण व्यापक अवश्य था।
अंकों की अंधी दौड़ का हिस्सा बनने से उचित क्या यह नहीं होता कि हम इस पर गंभीर चिंतन और व्यापक विमर्श करते कि क्यों हमारे शिक्षण-संस्थान वैश्विक मानकों एवं गुणवत्ता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते? क्यों हमारे शिक्षण संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में मौलिक शोधों एवं वैज्ञानिक व्यावहारिक दृष्टिकोण का अभाव परिलक्षित होता है? क्यों हमारे शिक्षण संस्थान अभिनव प्रयोगों, विश्लेषणपरक प्रवृत्तियों को बढ़ावा नहीं देते? क्यों हमारे शिक्षण-संस्थानों से निकले अधिकांश विद्यार्थी आत्मनिर्भर और स्वावलंबी नहीं बन पाते? क्यों उनमें कार्यानुकूल दक्षता एवं कुशलता की कमी देखने को मिलती है? क्यों वे साहस और आत्मविश्वास के साथ जीवन की चुनौतियों, विषमताओं, प्रतिकूलताओं का सामना नहीं कर पाते?
अंकों की प्रतिस्पर्धा का ऐसा आत्मघाती दबाव दुःखद है। इस दबाव में बच्चे सहयोगी बनने की अपेक्षा परस्पर प्रतिस्पर्धी बन रहे हैं। ऐसी अंधी प्रतिस्पर्धा कुछ के अहं को सेंक देकर उन्हें एकाकी और स्वार्थी बनाती है तो कुछ को अंतहीन कुंठा के गर्त्त में धकेलती है और यह तथ्य है कि प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या में व्यक्ति प्रकृति में सर्वत्र व्याप्त सहयोग, सामंजस्य और सौंदर्य को विस्मृत कर बैठता है। फिर वह चराचर में फैले जीवन के गीत को गुनगुनाना भूल जाता है। प्रतिस्पर्धा करते-करते वह घर-परिवार, समाज के प्रति भी वही भाव रखने लगता है। कई बार तो वह अपनों के प्रति भी कृतघ्न हो उठता है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि हम उसे बचपन से ही दूसरों को पछाड़ने की सीख दे रहे हैं, जबकि हमें साथ, सहयोग और सामंजस्य की सीख देनी चाहिए। 'जीवन एक संघर्ष है' उससे कहीं अधिक आवश्यक है यह जानना-समझना कि जीवन 'विरुद्धों का सामंजस्य' तथा 'सहयोग व संतुलन' की सतत साधना है। अंकों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले इस दौर में सफलता के सब्ज़बाग दिखाते कुकुरमुत्ते की तरह उग आए ऑनलाइन-ऑफलाइन कोचिंग संस्थान कोढ़ में खाज़ का काम करते हैं। वे अभिभावकों से सफलता का सौदा करते हैं। सफल अभ्यर्थियों को चमकता सितारा और बढ़ा-चढ़ाकर किए गए अतिरेकी दावों के पीछे वे तमाम विफल अभ्यर्थियों की सूची और उनका दर्द नहीं दिखाते। रातों-रात करोड़पति बनने या छा जाने की मानसिकता हमारी सोचने-समझने की शक्ति को कुंद कर देती है। भ्रामक प्रचार-प्रसार या आक्रामक विज्ञापनों के जरिये भोले-भाले मासूमों और अभिभावकों को फुसलाया जाता है। बल्कि कई बार तो बहुतेरे अभिभावक अपने बच्चों की रुचि एवं क्षमता का विचार किए बिना अपने सपनों का बोझ कोमल कंधों पर डालने की भूल कर बैठते हैं। प्रायः बच्चे उनके सपनों व महत्वाकांक्षाओं का भार ढोते-ढोते अपना सहज-स्वाभाविक बचपन और जीवन तक भूल जाते हैं। वे कुछ और कर सकते थे। कुछ बेहतर बन सकते थे, लेकिन भेड़चाल के कारण उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं (जेईई, नीट, क्लेट, सीए) की अंतहीन दौड़ एवं भीड़ में धकेल दिया जाता है और यदि वे सफल हुए तो ठीक, पर कहीं जो वे विफल हुए तो जीवन भर वे उस विफलता की ग्लानि भरी मनोदशा से बाहर नहीं निकल पाते। फिर उनके होठों से सहज हास और जीवन से आंतरिक आनंद एवं उल्लास ग़ायब हो जाता है।
समाज और संस्थाओं को सोचना होगा कि ये बच्चे उत्पाद न होकर जीते-जागते मनुष्य हैं और मनुष्य का निर्माण स्नेह-समर्पण-त्याग और संवेदनाओं से ही संभव है। ध्यान रहे कि मनुष्य का मनुष्य हो जाना ही उसकी चरम उपलब्धि है, इसलिए अपनी संततियों को अंकों की अंधी प्रतिस्पर्धा एवं अंतहीन दौड़ में झोंकने की बजाय उनके समग्र, संतुलित एवं बहुआयामी व्यक्तित्व के विकास पर ध्यान देना चाहिए। जीवन बहुरंगी एवं बहुपक्षीय है और हर रंग व पक्ष का अपना सौंदर्य, महत्व व आनंद है। हर रंग और पक्ष को हृदय से स्वीकार करने में ही जीवन की सार्थकता है, कृतार्थता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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