उमेश चतुर्वेदी का लेख : कांग्रेस का गुरूर महंगा ना पड़ जाए

उमेश चतुर्वेदी का लेख :  कांग्रेस का गुरूर महंगा ना पड़ जाए
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राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बेशक सीधा मुकाबला कांग्रेस और बीजेपी के ही बीच है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी जैसे दलों की इन चुनावों में कोई भूमिका नहीं है, लेकिन जिस तरह कांग्रेस, विशेष कर राहुल गांधी का इन चुनावों में आईएनडीआईए गठबंधन के दलों और उनके नेताओं के साथ जैसा व्यवहार है, उसके संकेत साफ हैं। संकेत यह कि कांग्रेस अपनी शर्तों और मनमर्जी पर इन दलों को मौका देगी और अगर उसे महसूस हुआ तो वह सहयोगी दलों के लिए मौका भी नहीं छोड़ेगी। सवाल यह है कि किस बिना पर कांग्रेस अगले आम चुनाव में अपने सहयोगी दलों का दिल से साथ हासिल कर पाएगी।

क्या आईएनडीआईए गठबंधन फेल होने जा रहा है? पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बीच ऐसे सवाल उठना सोशल मीडिया के दौर में ट्रोलिंग और आलोचना का कारण बन सकता है। लेकिन यह सवाल मौजूं हो चुका है। इसकी वजह है, विशेषकर उत्तर और मध्य भारत के विधानसभा चुनावों में बिना सामंजस्य के उतरे विपक्ष गठबंधन के उम्मीदवार। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बेशक सीधा मुकाबला कांग्रेस और बीजेपी के ही बीच है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी जैसे दलों की इन चुनावों में कोई भूमिका नहीं है, लेकिन जिस तरह कांग्रेस, विशेष कर राहुल गांधी का इन चुनावों में आईएनडीआईए गठबंधन के दलों और उनके नेताओं के साथ जैसा व्यवहार है, उसके संकेत साफ हैं। संकेत यह कि कांग्रेस अपनी शर्तों और मनमर्जी पर इन दलों को मौका देगी और अगर उसे महसूस हुआ तो वह सहयोगी दलों के लिए मौका भी नहीं छोड़ेगी। विपक्षी गठबंधन में सबसे बड़ा दल निश्चित तौर पर कांग्रेस है। उसका संगठन भी सबसे पुराना है। इस नाते उसका अगुआई का स्वाभाविक दावा भी बनता है। लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि उसकी सोच से आगे दुनिया निकल चुकी है। अगर वह सचमुच बड़ा दल ही होती है, जमीन पर उसकी वैसी ही पकड़ होती, जैसी करीब तीन दशक पहले तक थी, तब उसे गठबंधन की भला जरूरत ही क्यों पड़ती? लेकिन कांग्रेस और उसका नेतृत्व अब भी अतीत के चमकदार पन्नों में ही अपना इतिहास देखने का आदी है। वह स्वीकार नहीं कर पा रही है कि सुनहरे इतिहास के पन्ने आधुनिकता की यात्रा करते-करते धुंधले पड़ गए हैं। यह धुंधलापन ही उसे गठबंधन के लिए मजबूर कर रहा है।

संख्याबल के लिहाज से देखें तो विपक्षी गठबंधन में ममता बनर्जी का दल सबसे बड़ा है, लेकिन ममता इन दिनों गठबंधन की गतिविधियों में कम ही दिलचस्पी दिखा रही हैं। जाहिर है कि वे गठबंधन को अपने हिसाब से तौलना और उसका बंगाली माटी में इस्तेमाल की गुंजाइश देख रही हैं। जनता दल यू भी बड़ा दल है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके सांसदों की संख्या बीजेपी के साथ के चलते इतनी है। इस लिहाज से विपक्षी गठबंधन में समाजवादी पार्टी दूसरे नंबर का महत्वपूर्ण दल है। लोकसभा में उसके सांसदों की संख्या भले ही कम हो, लेकिन यह तय है कि जनसंख्या और लोकसभा सीटों के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में वही बीजेपी के सीधे मुकाबले में है। ऐसे में समाजवादी पार्टी का गठबंधन में अहमियत की चाहत रखना स्वाभाविक है। इसी चाहत के चलते अखिलेश यादव ने मध्य प्रदेश में अपने लिए कुछ सीटों की उम्मीद रखी। कांग्रेस ने उनकी बात सुनना तो दूर, एक तरह से अपमानित कर दिया। कमलनाथ का यह कहना कि छोड़िए अखिलेश-वखिलेश को, एक तरह से समाजवादी पार्टी का अपमान ही है। रही-सही कसर उत्तर प्रदेश के नवेले कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय ने पूरी कर दी। ऐसे में अखिलेश ने आपा खो दिया। इसका असर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान तीनों राज्यों में दिख रहा है। यहां समाजवादी भी मैदान में है। शायद अखिलेश का हश्र आम आदमी पार्टी ने देखकर ही तीनों राज्यों में अपने उम्मीदवार उतार दिए।

मीडिया के कुछ मोदी विरोधी समीक्षक आजकल यह स्थापित करने में जुटे हैं कि मल्लिकार्जुन खरगे कांग्रेस अध्यक्ष का पद दमदार तरीके से संभाल रहे हैं। इस कथन का अभिप्राय यह स्थापित करना है कि राहुल गांधी बेहद लोकतांत्रिक हैं, लेकिन हकीकत इससे कहीं दूर है। हकीकत यह है कि असल में कांग्रेस पर नियंत्रण राहुल गांधी का ही है। ऐसे में यह मानने में हर्ज नहीं होना चाहिए कि चाहे नीतीश कुमार को किनारे रखना हो या फिर अखिलेश पर कांग्रेसी हमला हो, या फिर आम आदमी पार्टी की उपेक्षा हो, सबके पीछे उनकी ही सोच है।

राहुल गांधी इन दिनों जाति जनगणना की बात खूब कर रहे हैं। कुछ साल पहले एक वामपंथी पत्रकार समूह ने मीडिया समूहों की जाति जनगणना कराई थी। तब से लेकर वह समूह बार-बार यह स्थापित करने की कोशिश करता है कि मीडिया घरानों में दलित, अन्य पिछड़ा वर्ग आदि का उचित प्रतिनिधित्व नहीं है। आजकल राहुल गांधी इसे अपनी रिसर्च बता रहे हैं और राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना की वकालत कर रहे हैं। उनके नेता राज्यों में वादा कर रहे हैं कि जैसे ही उनकी सरकार बनी, वह जाति जनगणना कराएगी। राजस्थान में तो ऐन चुनावों के बीच ऐसा ऐलान अशोक गहलोत ने कर भी दिया, जिसे चुनाव आयोग ने रोक दिया। जाति जनगणना की मांग हो या लागू करना हो, पिछड़े वर्गों को फायदा पहुंचाने की बजाय उसका असल मकसद राजनीतिक फायदा उठाना ज्यादा है। राहुल गांधी भी निश्चित तौर पर इसी वजह से बार-बार इस मसले को उठा रहे हैं।

अगर जाति जनगणना का मुद्दा विकास की दौड़ में पीछे रह गई जातियों को फायदा पहुंचाना होता और अन्य पिछड़ा वर्ग की राजनीति को शह देना होता तो कांग्रेस कम से कम अखिलेश से ऐसा व्यवहार नहीं करती। बेशक अखिलेश और उनका परिवार क्रीमी लेयर तबके से आता हो,लेकिन सच यह भी है कि वे भी उसी अन्य पिछड़े वर्ग के हैं। बेहतर तो होता कि कांग्रेस अखिलेश के साथ पिछड़े वर्ग के नेता की ही तरह व्यवहार करती। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।

कांग्रेस को कुछ राज्यों मसलन हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में जीत के बाद लगता है कि अब उसके लिए बयार बह रही है। लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि कर्नाटक, हिमाचल, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसे जीत पहले भी मिली, लेकिन लोकसभा चुनावों में भाजपा की जैसे लहर चली। राजस्थान की समूची सीटें भाजपा ने जीती, कर्नाटक में भी यही हाल रहा, हिमाचल में भी कांग्रेस का सूपड़ा साफ हुआ और मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस के दो ही सांसद चुने गए। साफ है कि कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व पर तब जनता ने भरोसा नहीं किया और लगता नहीं कि बहुत हालात बदले हुए हैं। कांग्रेस जिस तरह अपने सहयोगी दलों की अनदेखी कर रही है और कई बार वह अनदेखी अपमान तक पहुंच जाती है, ऐसे में लग नहीं रहा है कि कांग्रेस अपनी गलतियों से चेत रही है।

हाल ही में मोतीहारी स्थित केंद्रीय विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में नीतीश ने जिस तरह बीजेपी के लोगों के प्रति अपनी दोस्ती का इजहार किया, उसे कांग्रेस के व्यवहार से उपजी मायूसी का नतीजा बताया गया। कांग्रेस के प्रति आम आदमी पार्टी भी सशंकित नजर आ रही है। ऐसे में सवाल यह है कि किस बिना पर कांग्रेस अगले आम चुनाव में अपने सहयोगी दलों का दिल से साथ हासिल कर पाएगी। उसके लिए ऐसा कर पाना आसान नहीं लगता। कांग्रेस भले ही सोच रही हो कि लोकसभा चुनावों तक गठबंधन के मतभेद दूर हो जाएंगे, पर ऐसा होना आसान नहीं लगता। नीतीश का अतीत गवाह है कि वे अपना अपमान नहीं भूल पाते।

(लेखक- उमेश चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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