प्रमोद भार्गव का लेंख : जीएम सरसों पर गहराता विवाद

प्रमोद भार्गव का लेंख : जीएम सरसों पर गहराता विवाद
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बीटी कपास के बीज से रूई उत्पादन के दो दशक बाद पहली खाद्य फसल जीएम यानी जेनेटीकली मोडिफाइड (आनुवांशिक परिवर्धित) बीज से सरसों की व्यावसायिक खेती को विशेषज्ञ समिति ने अनुमति दे दी है। इससे बहुप्रतीक्षित आधुनिक तकनीक आधारित सरसों की फसल का उत्पादन शुरू हो जाएगा। इस खेती को शुरू करने का कारण खाद्य तेलों के मामले में देश को आत्मनिर्भर होने में मदद मिलने का दावा किया जा रहा है। लेकिन इस सिफारिश के तत्काल बाद स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय किसान संघ ने कहा है कि ‘जीएम सरसों की खेती खतरनाक है। अत: इस बीज को खेतों में न बोया जाए।

देश में बीटी कपास के बीज से रूई उत्पादन के दो दशक बाद पहली खाद्य फसल जीएम यानी जेनेटीकली मोडिफाइड (आनुवांशिक परिवर्धित) बीज से सरसों की व्यावसायिक खेती को विशेषज्ञ समिति ने अनुमति दे दी है। इससे बहुप्रतीक्षित आधुनिक तकनीक आधारित सरसों की फसल का उत्पादन शुरू हो जाएगा। इस खेती को शुरू करने का कारण खाद्य तेलों के मामले में देश को आत्मनिर्भर होने में मदद मिलने का दावा किया जा रहा है। आनुवांशिक अभियांत्रिकी अनुमोदन समीति (जीईएसी) की 147वीं बैठक में समीति ने सरकार से इसकी खेती की जाने की सिफारिश की है। कृषि और जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में इसे क्रांतिकारी निर्णय के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन इस सिफारिश के तत्काल बाद स्वदेशी जागरण मंच (एसजेएम) और भारतीय किसान संघ (बीकेएस) ने जीएम बीज से सरसों की खेती करने की अनुमति दिए जाने पर कड़ा विरोध जताते हुए कहा है कि 'जीएम सरसों की खेती खतरनाक है। अतएव केंद्र सरकार से अपील है कि वह यह तय करे कि इस बीज को खेतों में कभी न बोया जाए।'

दरअसल जैव तकनीक बीज के डीएनए यानी जैविक संरचना में बदलाव कर उनमें ऐसी क्षमता भर देता है, जिससे उन पर कीटाणुओं, रोगों और विपरीत पर्यावरण का असर नहीं होता। बीटी की खेती और इससे पैदा फसलें मनुष्य और मवेशियों की सेहत के लिए कितनी खतरनाक हैं इसकी जानकारी निरंतर आ रही है। इसके बावजूद देश में सरकार को धता बताते हुए इनके बीज और पौधे तैयार किए जा रहे हैं। भारत में 2010 में केंद्र सरकार द्वारा अखाद्य फसल बीटी कपास की खेती की अनुमति दी गई है। इसके परिणाम भी खतरनाक साबित हुए हैं। एक जांच के मुताबिक जिन भेड़ों और मेमनों को बीटी कपास के बीज खिलाए गए, उनके शरीर पर रोंए कम आए और बालों का पर्याप्त विकास नहीं हुआ। इनके शरीर का भी संपूर्ण विकास नहीं हुआ, जिसका असर ऊन के उत्पादन पर पड़ा। बीटी बीजों का सबसे दुखद पहलू है कि ये बीज एक बार चलन में आ जाते हैं तो परंपगत बीजों का वजूद समाप्त कर देते हैं। बीटी कपास के बीज पिछले एक दो़ दशक से चलन में हंैं। जांचों से तय हुआ है कि कपास की 93 फीसदी परंपरागत खेती को कपास के ये बीटी बीज लील चुके हैं। जिस बीटी बैंगन के बतौर प्रयोग उत्पादन की मंजूरी जीईएसी ने दी थी, उसके परिवर्धित कर नए रूप में लाने की शुरुआत कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय धारवाड़ में हुई। इसके तहत बीटी बैंगन, यानी बोसिलस थुरिनजिनसिस जीन मिला हुआ बैंगन खेतों में बोया गया था। इसके प्रयोग के वक्त जीएम बीज निर्माता कंपनी ने दावा किया था कि जीएम बैंगन के अंकुरित होने के वक्त इसमें बीटी जीन इंजेक्शन से प्रवेश कराएंगे तो बैंगन में जो कीड़ा होगा वह उसी में भीतर मर जाएगा। मसलन, जहर बैंगन के भीतर ही रहेगा और यह आहार बनाए जाने के साथ मनुष्य के पेट में चला जाएगा। बीटी जीन में एक हजार गुना बीटी कोशिकाओं की मात्रा अधिक है, जो मनुष्य या अन्य प्राणियों के शरीर में जाकर आहार तंत्र की प्रकृति को प्रभावित कर देती है, इसलिए इसकी मंजूरी से पहले स्वास्थ्य पर इसके असर का प्रभावी परीक्षण जरूरी था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया था। राष्ट्रीय पोषण संस्थान हैदराबाद के प्रसिद्ध जीव विज्ञानी रमेश भट्ट ने करंट साइंस पत्रिका में लेख लिखकर चेतावनी दी थी कि बीटी बीज की वजह से यहां बैंगन की स्थानीय किस्म 'मट्टुगुल्ला' बुरी तरह प्रभावित होकर लगभग सामप्त हो जाएगी। बैंगन के मट्टुगुल्ला बीज से पैदावार के प्रचलन की शुरुआत 15वीं सदी में संत वदीराज के कहने पर मट्टू गांव के लोगों ने की थी। इसका बीज भी उन्हीं संत ने दिया था। कर्नाटक में मट्टू किस्म का उपयोग हर साल किया जाता है। लोक पर्वों पर इसे पूजा जाता है। इसके विशिष्ट स्वाद और पौष्टिक विलक्षण्ाता के कारण हरे रंग के इस भटे को शाकाहार में श्रेष्ठ माना जाता है।

बीटी बैंगन की ही तरह गोपनीय ढंग से बिहार में बीटी मक्का का प्रयोग शुरू किया गया था। इसकी शुरुआत अमेरिकी बीज कंपनी मोंसेंटो ने की थी। लेकिन कंपनी द्वारा किसानों को दिए भरोसे के अनुरूप जब पैदावार नहीं हुई तो किसानों ने शर्तों के अनुसार मुआवजे की मांग की। किंतु कंपनी ने अंगूठा दिखा दिया। दरअसल भारत के कृषि और डेयरी उद्योग को काबू में लेना अमेरिका की प्राथमिकताओं में शामिल है। जिससे यहां के बड़े और बुनियादी जरूरत वाले बाजार पर उसका कब्जा हो जाए। इसलिए जीएम प्रौद्योगिकि से जुड़ी कंपनियां और धन के लालची चंद कृषि वैज्ञानिक भारत समेत दुनिया में बढ़ती आबादी और खाद्य तेलों में आत्मनिर्भर हो जाने का बहाना बनाकर इस तकनीक के मार्फत खाद्य सुरक्षा की गारंटी का भरोसा जताते हैं, परंतु इस परिप्रेक्ष्य भारत को सोचने की जरूरत है कि बिना जीएम बीजों का इस्तेमाल किए ही पिछले दो दशक में हमारे खाद्यान्नों के उत्पादन में पंाच गुना बढ़ोतरी हुई है। जाहिर है, हमारे परंपरागत बीज उन्नत किस्म के हैं और वे भरपूर फसल पैदा करने में सक्षम हैं, इसीलिए अब कपास के परंपरागत बीजों से खेती करने के लिए किसानों को कहा जा रहा है। आनुवांशिक परिवर्धित बीजों से खेती करने की बजाय, हमें भंडारण की समुचित व्यवस्था करने की जरूरत है।

जीएम बीज पिछले कई दशकों से चर्चा में है। कई बार दावा किया गया है कि इनसे फसल की उत्पादकता बढ़ेगी, किंतु बाद में इन्हें पुरुष बांझपन के लिए भी जिम्मेदार ठहरा गया। बाद में इन्हें खरपतवारों को नियंत्रित करने के लिए बनाए जाने का दावा किया गया। अतएव इन विरोधाभासी दावों से संदेह पैदा होता है कि इनकी वास्वतिकता को कोई नहीं जानता। जीईएसी ने विकासकर्ता को एक अनुमति पत्र में कहा है कि जीएम सरसों के समर्थन में प्राप्त सभी जानकारी विदेश से लाई गई थी। भारत में अभी इसका अध्ययन किया जाना शेष है। यदि भारत में कोई अध्ययन किया ही नहीं गया है तो फिर जीईएसी जैसे जिम्मेदार संगठन अवैध निर्णय कैसे ले सकता है।

मुनाफे की खेती में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने पेटेंट के बहाने सेंध लगा दी है। बीजों पर कंपनियों का एकाधिकार होता जा रहा है। दुनिया में बीज और पौधों से जुड़े जैविक अधिकारों पर बहस छिड़ी है, कि आखिरकार बीज किसान का है या कंपनियों का? इसका सरकारी स्तर पर निराकरण नहीं हो पाने के कारण खाद्य सुरक्षा संकट से घिरती जा रही है। भारत में बीजों का कारोबार 2018 में 4.30 लाख करोड़ का था, जिसके 2024 में बढ़कर 6.45 लाख करोड़ हो जाने की उम्मीद है। 50 प्रतिषत वैश्विक बीज बाजार पर मोेनसेंटो, पेप्सिको, सिनजेंटा और ड्यूपोंट का कब्जा है। इसमें हैरानी की बात यह भी है कि बीज परागकर्ण हवा और पानी से भी फैलकर दूसरे खेतों में चले जाते हैं, जिन्हें कंपनी अपना बताकर पेटेंट का दावा ठोक देती है।

(ये लेखक प्रमोद भार्गव के अपने विचार हैं।)

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