डॉ ओम प्रभात का लेख: प्रकृति का पलटवार है कोरोना

डॉ ओम प्रभात का लेख: प्रकृति का पलटवार है कोरोना
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ब्रिस्टल विश्वविद्यालय इंग्लैंड का शोध है कि वर्ष 2024 तक उस देश में सात लाख मौतें हो सकती हैं।

आ ज समस्त विश्व कोरोना वायरस (कोविड-19 वायरस) के आक्रमण से त्रस्त है और इसके आगे बेबस और निःसहाय सा लग रहा है। अभी तक यह वायरस तीन लाख से अधिक लोगों को काल के गाल में सौंप चुका है और अभी भी निर्बाध रूप से आगे बढ़ता जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जिन देशों में यह समाप्तप्राय है, वहां भी महामारी के एक और झोंके की आशा की जा सकती है। भारत में बरसाती मौसम में यों भी इसमें अधिक तेजी अपेक्षित है क्योंकि नम वातावरण वायरस को अधिक रास आता है। वस्तुतः वैज्ञानिकों की एक भविष्यवाणी तो यह है कि यह समाप्त होगा ही नहीं और हमें इसके साथ जीना सीखना होगा। ब्रिस्टल विश्वविद्यालय इंग्लैंड का शोध है कि वर्ष 2024 तक उस देश में सात लाख मौतें हो सकती हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह संख्या द्वितीय विश्वयुद्ध में होने वाली कुल मौतों से अधिक है। सिडनी विश्वविद्यालय, आॅस्ट्रेलिया के प्रोफेसर एडवर्ड होम्स के अनुसार प्रारंभ में यह वायरस चमगादड़ों तक सीमित था। वहां से यह किसी प्रकार किसी स्तनपायी पशु में आया और अंततः मानवों में प्रवेश कर गया। चूंकि वायरस जीवित इकाइयों की कोशिकाओं के अंदर ही रह कर अपने स्वयं के विभाजन द्वारा अपना प्रसार कर सकते हैं, अन्यथा नहीं, अतः कहा जा सकता है कि मानव कोशिकाएं इसके लिए आदर्श सिद्ध हुईं और इसका प्रसार तेजी से हुआ। यदि हम यह न मानना चाहें कि कोविड-19 संभवतः एक जैव अस्त्र के विकास के दौरान गलती से बन गया और प्रयोगशाला से बाहर भाग खड़ा हुआ तो प्रोफेसर होम्स की शोध पर विश्वास न करने का कोई कारण नहीं दिखाई देता।

ऐसी दशा में कोरोना अथवा कोविड-19 की चमगादड़ों से मानवों तक की यात्रा कथा संदेह पैदा करती है कि कहीं यह प्रकृति का पलटवार तो नहीं है? हम सभी जानते हैं कि वायुमंडल, मिट्टी, हरित आच्छादन (जंगल आदि) तथा जैव विविधता, यह सब मिलकर पृथ्वी के पर्यावरण का निर्माण करते हैं। अपने सुखभोग के लिए मनुष्य ने जब-जब इनमें से किसी एक या अधिक पर प्रहार किया है तो उसे प्रकृति का पलटवार सहना पड़ा है।

कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण विधानसभा के समक्ष विश्व के 250 वैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत एक रपट के अनुसार मनुष्य के प्रहार से उत्पन्न भयंकर प्रदूषण के कारण इस समय 90 लाख मौतें प्रतिवर्ष हो रही हैं और वर्ष 2050 तक यह प्रदूषण मृत्यु का सबसे बड़ा कारण बन जाएगा। एक ठोस उदाहरण लें। इस समय ऊर्जा उत्पादन के लिए दहन का सहारा लेने के कारण हम 42 करोड़ टन कार्बन डाइआॅक्साइड गैस प्रतिवर्ष वायुमंडल में झोंक रहे हैं। परिणाम- अकल्पनीय ग्लोबल वार्मिंग।

अंटार्कटिका तक की हिम पिघल रही है और समुद्री जल स्तर बढ़ रहा है, जिससे तटीय प्रदेशों के जलमग्न हो जाने का खतरा सिर पर मंडराने लगा है। सच तो यह है कि यह होने भी लग गया है। अब आइए कोरोना को भी प्रकृति के पलटवार की दृष्टि से परख लें। स्पष्ट है कि चमगादड़ जो अब लुप्तप्राय हैं, जैव विविधता के अंग हैं। जैव विविधता बिना पृथ्वी के हरित आच्छादन के जीवित नहीं रह सकती, परंतु आधुनिक मानव की तो चाह है हर प्रकार की सुविधा से सम्पन्न नगर। फिर उद्योग धंधे भी ज़्ामीन घेरते ही हैं। इन्हीं कारणों से वर्ष 1990-2015 के मध्य 1290 लाख हेक्टेयर भूमि से वनों का सफाया कर दिया गया। भारत भूमि से तो लगभग 50 प्रतिशत वन काटे जा चुके हैं। स्पष्ट है कि जैव विविधता तो घटेगी ही। एक वर्ष पूर्व, वैज्ञानिकों के आकलन पर आधारित संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रस्तुत एक रपट के अनुसार जीवों और वनस्पतियों की कुल 80 लाख प्रजातियों में से दस लाख लुप्त होने के कगार पर हैं। रीढ़दार जानवरों की 35 प्रजातियां भी निकट भविष्य में समाप्त हो सकती हैं और इनमें पेंगुइन एवं पोलर बीयर भी सम्मिलित हैं। तीव्रता से बढ़ता नगरीकरण, मनुष्य द्वारा अन्य प्रजातियों का शिकार आदि ऐसे कारण हैं जिनके कारण जैव विविधता के अपने क्षेत्र पर संकट बढ़ता जा रहा है और उनमें रहने वाली प्रजातियां मानवों के निकटतर आने पर विवश हो रही हैं। अभी अप्रैल 2020 में प्रकाशित कैलिफोर्निया डेविस विश्वविद्यालय के शोध पत्र में यह बात बखूबी स्पष्ट की गई है। अब यह ज्ञात सत्य है कि ये जंगली प्रजातियां अनेकानेक वायरसों का घर होती हैं। मनुष्य से बढ़ती निकटता इन वायरसों का उन तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करती हैं। वैज्ञानिक इसे स्पिलओवर कहकर पुकारते हैं। ऐसा हो सकता है-यह सब कुछ 142 ज्ञात वायरसों के इतिहास से सिद्ध किया गया है। अंततः ये वायरस नई-नई बीमारियों को जन्म देते हैं, जैसे आज का कोविड-19। सर्वाधिक खतरा, चमगादड़ों, चूहों तथा वानरों की विभिन्न प्रजातियों से प्रकाश में आया है। कोरोना वायरस तो कुछ माह पहले तक अज्ञात था। परंतु इसके पूर्व की बीमारियां, सार्स, मेर्स, एबोला, निपाह, मारबर्ग तथा टाक्सोप्लाज़्मोसिस आदि इसी प्रकार मनुष्यों में फैली। इनमें अंतिम तो बिल्लियों से आई मानी जाती है (उनके पुरीष से, यह गर्भवती महिलाओं का काल समझी जाती है), परंतु अन्य सभी बीमारियों के जनक वायरस मनुष्यों में चमगादड़ों से ही आए जैसे कोरोना वायरस। निपाह ने तो 1999 में भारत में विशेषकर केरल में कहर ढा दिया था। सार्स और मेर्स कोरोना के ही प्रकार की बीमारियां हैं जो कुछ वर्ष पहले प्रकाश में आई थीं और अपेक्षाकृत कम गंभीर थीं। मारबर्ग वायरस तो उस चमगादड़ से फैले जो प्राचीन गुफाओं में निवास करते हैं। इन गुफाओं को देखने वालों के जरिए मानव में इनका प्रसार हुआ।

चीन की वुहान प्रयोगशाला की उपनिदेशक शी झेंगली ने एक साक्षात्कार में संभावना जताई है कि अभी चमगादड़ों में और भी ऐसे वायरस हैं जिनसे हम अनजान हैं और जो नई महामारियां फैला सकते हैं। उनके अनुसार इन पर शोध आवश्यक है। कहना न होगा कि बहुत समय तक चमगादड़ों पर शोध करने के कारण उन्हें बैट वूमैन (चमगादड़ महिला) कहकर पुकारा जाता है।

आशय स्पष्ट है कि यदि हम पर्यावरण (प्रकृति) के एक अंग, उसके हरित आच्छादन पर आक्रमण कर जैव विविधता को हानि पहुंचाएंगे तो खामियाजा भी हमीं भुगतेंगे। अवश्य ही जंगली जैव प्रजातियों को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से समाप्त करने के प्रयास के अर्थ होंगे उनमें रह रहे वायरसों से संक्रमित होने की बढ़ती संभावना और कोरोना वायरय जैसी नई से नई महामारियों को न्यौता। कोरोना वायरस की चमगादड़ों से मानवों तक की यात्रा कथा यही संदेश देती है। यदि हमने इस तथ्य को समझ नहीं लिया तो कोरोना जैसा प्रकृति का पलटवार बार-बार सहना पड़ेगा।

सच तो यह है कि हमें फिर से सीखना होगा प्रकृति के साथ रहना, न कि उस पर आक्रमण करना। जिस दिन हम यह सीख लेंगे, उस दिन कोरोना जैसी नई बीमारियों में से अधिकांश सिर उठाना बंद कर देंगी और मानवता अौर अधिक सुरक्षित हो जाएगी।

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