रवि शंकर का लेख : बढ़ती महंगाई पर अंकुश जरूरी

रवि शंकर
खाद्य पदार्थ के आसमान छू रहे दाम से पहले ही लोग परेशान थे। अब पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोतरी ने उनकी परेशानी को और बढ़ा दिया है। यूपी चुनाव खत्म होने के बाद इनके दाम बढ़ने के कयास लगाए जा रहे थे, जो सच होने लगा है। चुनाव खत्म होते होने के महज कुछ ही दिन बादर सोई गैस के दाम बढ़ा दिए गए, तो वहीं पेट्रोल-डीजल के दाम भी लगातार बढ़ रहे हैं। मौजूदा हालत यह है कि देश के कई हिस्सों में ईंधन की कीमतें रिकॉर्ड स्तर पर हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि अब पेट्रोलियम विपणन कंपनियां अपने घाटे की भरपाई कर रही हैं। कच्चे तेल की कीमतों के बढ़ोतरी के बावजूद 137 दिन पेट्रोल और डीजल की कीमतें नहीं बढ़ाने से भारत की तेल कंपनियों को 19,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। रेटिंग एजेंसी मूडीज ने अपनी रिपोर्ट में यह बात कही है। वैसे ही डीजल व पेट्रोल के दाम भी करीब साढ़े चार माह बाद बढ़े हैं। तेल कंपनियों ने 4 नवंबर, 2021 से 21 मार्च, 2022 के बीच पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बदलाव नहीं किया, जबकि नवंबर में कच्चे तेल की कीमत 80 डॉलर प्रति बैरल थी जो इस दौरान बढ़कर 110 डॉलर के पार पहुंच गई। यह ठीक है कि विधानसभा चुनाव के चलते लोगों ने राहत की सांस ली थी, लेकिन अब फिर से दाम बढ़ने से लोग व्यथित हैं। मालूम हो, भारत अपनी तेल की जरूरत पूरी करने के लिए आयात पर 80 से 85 फीसदी निर्भर है।
सरकार की दलील है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 2008 के बाद सबसे ऊंचे स्तर पर है। इसकी कीमतों में करीब चालीस फीसदी का इजाफा हुआ है। यूक्रेन संकट से कच्चा तेल, पाम आयल और गेहूं के दामों में जबरदस्त उछाल आया है। खैर, विधानसभा चुनाव के दौरान मतदाताओं में महंगाई मुद्दा न बने, इसके चलते तेल कंपनियों ने सरकार के दबाव में दाम नहीं बढ़ाए थे। सवाल उठना स्वाभाविक है कि चुनाव व सरकार बनने के बीच कीमतें बढ़ाने का यह खेल लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनपक्षीय कहा जा सकता है? वैसे महंगाई केवल पेट्रोलियम पदार्थों की ही बढ़ी हो,ऐसा भी नहीं है। पिछले दिनों दूध,सीएनजी की कीमतों में वृद्धि हुई है। इसी तरह ज्यादा उपयोग किए जाने वाले मशहूर कॉफी ब्रांडों व चायपत्ती के दामों में बढ़ोतरी हुई है। महंगाई की चौतरफा मार का सिलसिला यह नहीं खत्म हुई हैं। बल्कि 1 अप्रैल से कई जरूरी दवाओं की कीमतें बढ़ गई हैं। भारत की ड्रग प्राइसिंग अथॉरिटी ने शेड्यूल दवाओं के लिए कीमतों में 10.7 फीसदी की बढ़ोतरी की अनुमति के बाद दवाओं के दाम बढ़ गए हैं। चिंता की बात यह भी है कि कोरोना संकट से उपजे हालात में आय के संकुचन के चलते महंगाई की मार दोहरी नजर आ रही है।
कह सकते हैं कि रूस-यूक्रेन युद्ध के प्रभावों का असर देश की अर्थव्यवस्था पर भी नजर आने लगा है। यह महंगाई केवल भारत में ही है, ऐसा भी नहीं है। दुनिया के तमाम देश महंगाई की बड़ी डोज से जूझ रहे हैं। कोरोना संकट के चलते सरकारों ने महामारी से लड़ने के लिएजो अधिक मुद्रा बाजार में उतारी,वह भी महंगाई बढ़ने की एक बड़ी वजह रही है। बहरहाल, कोरोना महामारी के बाद घटी आय के बीच आसमान छूती महंगाई से आम आदमी पर चौतरफा मार पड़ी है। बीते एक साल में पेट्रोल-डीजल,रसोई गैस, दूध, चीनी, दाल से लेकर खाने के तेल की कीमत में भयंकर उछाल आया है। इससे कम आय, नौकरीपेशा और मध्यमवर्ग की मुश्किलें बढ़ गई हैं। हालत यह है कि मार्च, 2021 के मुकाबले इस साल मार्च तक सभी जरूरी वस्तुओं की कीमतों में जोरदार तेजी दर्ज की गई है। यह जगजाहिर तथ्य है कि पेट्रोलियम पदार्थों के उत्पादों की कीमतों में उछाल का महंगाई से सीधा रिश्ता होता है। पेट्रोल-डीजल के मूल्य बढ़ते ही सभी उपभोक्ता वस्तुओं के दाम चढ़ जाते हैं। यूं कहे इससे फूड कॉस्ट बढ़ जाता है। लेकिन हर वृद्धि के साथ सरकार का यही तर्क होता है कि भारत अपनी पेट्रोलियम जरूरतों की पूर्ति करने के लिए आयात पर ज्यादा निर्भर है और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दाम तेजी से आसमान छू रहे हैं। बेशक यह सच है,पर अधूरा सच। सरकार अकसर इस सच से मुंह चुरा लेती है, क्योंकि जितना उसका वास्तविक मूल्य होता है, उतने ही कर-शुल्क भी सरकार वसूलती है। इसीलिए बार-बार मांग उठती है कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के मूल्य में भारी वृद्धि का पूरा बोझ आम उपभोक्ता पर डालने के बजाय सरकार अपनेकर-शुल्कों में भी कुछ कमी करे। बता दें,पिछले साल 3 नवंबर को केंद्र ने पेट्रोल पर 5 रुपये और डीज़ल पर 10 रुपये सीमा शुल्क घटा दिया था ताकि पूरे देश में रिटेल कीमतों में कमी की जा सके। इसके बाद तमाम राज्य सरकारों ने वैट को घटा दिया था जिससे लोगों को बढ़ी हुई पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों से थोड़ी राहत जरूर मिली थी।
खैर, अर्थशास्त्र का यह सामान्य नियम है कि जब बाजार में मांग होती है, तब महंगाई बढ़ती है। पर मांग न होने के बावजूद यदि कीमतें आसमान छू रही हों, तो उसकी एक बड़ी वजह तंत्र की गड़बड़ी मानी जाती है। और यदि मंशा कीमतें बढ़ाकर अर्थव्यवस्था को संभालना हो, तो चढ़ती महंगाई मांग को कम कर देती है, जिससे अर्थव्यवस्था का नुकसान ही होता है। भारत में फिलहाल ऐसी ही स्थिति है। कोरोना से ध्वस्त हो चुके भारतीय बाजार में मांग काफी कम हो गई है, फिर भी यहां लोगों को बेहिसाब महंगाई से जूझना पड़ रहा है। इसकी सबसे ज्यादा मार असंगठित क्षेत्र से जुड़े लोगों पर पड़ी है, जिनकी हिस्सेदारी श्रम-बल में लगभग 94 फीसदी है। बहरहाल, जनता के सामने सबसे बड़ी समस्या महंगाई है, जिससे वे व्याकुल हो उठी। महंगाई की मार ऐसी कि गरीब तो गरीब, मध्यम वर्ग के लोगों को भी चुभने लगी। लेकिन महंगाई यकायक इतना क्यों बढ़ गया इस सवाल का ठोस जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं।
कुल मिलाकर इस बढ़ती महंगाई ने आम आदमी को उसके सोच में बदलाव लाने पर मजबूर कर दिया है। ऐसे में, क्या सरकार का यह फर्ज नहीं बनता है कि वह जनता को महंगाई से राहत दिलाने की संजीदा कोशिश करे। इसमें कोई शक नहीं कि आम आदमी के लिए महंगाई आज एक बड़ा मुद्दा है। सवाल है कि बढ़ती महंगाई पर लगाम कैसे लगाई जाए? सबसे पहला काम आपूर्ति श्रृंखला को दुरुस्त करने का होना चाहिए। बाजार तक खाद्यान्न की पर्याप्त आमद सुनिश्चित की जानी चाहिए। पेट्रोलियम उत्पादों पर बढ़ाए गए टैक्स को भी कम करने की दरकार है। यदि अर्थव्यवस्था को संभालना प्राथमिकता है, तो उन्हें न सिर्फ मांग बढ़ाने के उपाय करने होंगे, बल्कि लोगों की जेब में पैसे भी डालने होंगे। संभव हो, तो शेयर बाजार में लेन-देन पर टैक्स वसूला जा सकता है। इससे सरकारी खजाने में वृद्धि तो होगी ही, महंगाई भी नहीं बढ़ेगी। महंगाई सियासी मसला भी है। ऐसे में, जो सरकार महंगाई पर नियंत्रण नहीं कर सकती उसके लिए आगे बहुत गहरा संकट खड़ा हो जाता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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