आलोक यात्री का लेख : हिरासत में मौत की तय हो परिभाषा

आलोक यात्री
हाथरस में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक कार्यकर्ता की पुलिस हिरासत में मौत देश भर में हिरासत में होने वाली मौतों की ओर ध्यान खींचती है। इससे पहले कासगंज में अल्ताफ नाम के एक मुस्लिम युवक की पुलिस कस्टडी में हुई मौत के बाद भी पुलिस कार्रवाई पर तमाम सवाल खड़े थे। इस मौत के बाद पुलिस कस्टडी में मौत को लेकर एक ऐसी रिपोर्ट सामने आई थी। गृह मंत्रालय के तहत आने वाले नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में पिछले 20 सालों में 1,888 लोगों की पुलिस हिरासत में मौत हुई है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, इन मामलों में पुलिसकर्मियों के खिलाफ 893 केस दर्ज किए गए और 358 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर की गई, जिसमें मात्र 26 पुलिस कर्मियों को ही सजा हुई है। हाल ही में गुजरात में भी ऐसे ही एक प्रकरण ने उस समय ध्यान खींचा था जब विधायक परेश धनानी के एक सवाल के जवाब में गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने सदन में स्वीकार किया था कि बीते दो सालों में सूबे में पुलिस व न्यायिक हिरासत में 188 लोगों की जान गई है। देश के विभिन्न सूबे में हिरासत में मौत के आंकड़े ध्यान खींचते हैं। हिरासत में मौत की बात करें तो बीते तीन साल के आंकड़े बताते हैं कि कई मामलों में अव्वल कहा जाने वाला उत्तर प्रदेश हिरासत में मौत के मामले में भी अव्वल है। यूपी में बीते तीन साल में 1318 लोगों की जान गई है। यह आंकड़ा देश भर में हिरासत में हुई मौत का करीब 23 फीसदी है।
बीते दो दशकों में देश भर में मानवाधिकार आयोग विशेष तौर पर सक्रिय हुआ है। देश में मानवाधिकार आयोग, इससे जुड़े संगठनों और कार्यकर्ताओं की सतर्कता के बावजूद हिरासत में मौत के मामलों पर अंकुश न लग पाना विशेषज्ञों की चिंता का विषय है। जुलाई 2021 में लोकसभा सत्र के दौरान देश भर में हिरासत में हुई मौत पर सवालिया प्रश्न उठाए गए थे। जिसके चलते केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय को देश भर में हिरासत में हुई मौत के आंकड़े सदन के पटल पर रखने पड़े थे। आंकड़ों के अनुसार बीते तीन सालों में देश में पुलिस और न्यायिक हिरासत में 5570 लोगों की मौत हुई है।
हिरासत में होने वाली मौत के लिए पुलिस के खराब बर्ताव को ही जिम्मेदार माना जाता है। पुलिस हिरासत में मौत के मामले पर विभाग के कई आला अफसर समय-समय पर अपनी तरह से चिंता प्रकट कर चुके हैं। सूबे के चर्चित आईपीएस अधिकारी व वरिष्ठ लेखक विभूति नारायण राय भी पुलिस हिरासत में मौत को जघन्य हत्या ठहरा चुके हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़े हैरान करने वाले हैं। आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में न्यायिक और पुलिस हिरासत में 17 हजार 140 लोगों की जान जा चुकी है। इस लिहाज से प्रतिदिन औसतन 5 लोगों की जान जाती है। देश के किसी थाने, चौकी या राज्य की पुलिस हिरासत में जब भी कोई बेमौत मरता है तो मानवाधिकारियों से लेकर कई संगठन कराहते दिखाई देते हैं। ऐसे मामलों में कुछ दिन कोहराम मचता है। कार्यवाही की चहलकदमी भी कुछ दूर जाकर सुस्त पड़ जाती है और फिर सब कुछ पहले जैसा ही सामान्य हो जाता है।
पुलिस या न्यायिक हिरासत में मौत के हजारों मामले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की फाइलों में धूल फांक रहे हैं। आयोग की संसद में पेश अंतिम वार्षिक रिपोर्ट (2017-18) में उल्लिखित है 'देश में हिरासतीय हिंसा और प्रताड़ना अनियंत्रित रूप से जारी है। यह उन लोक सेवकों, जिनके ऊपर कानून को लागू करने की जिम्मेदारी है, के द्वारा की जाने वाली ज्यादती के भयावह रूप को प्रस्तुत करता है। आयोग ऐसे मामलों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए प्रतिबद्ध है। पीड़ितों अथवा उनके निकट संबंधी को मुआवजे की सिफारिश के अतिरिक्त आयोग का प्रयास उस माहौल को खत्म करने की दिशा में जारी है, जिसमें पुलिस वाले हिरासत एवं जेल की चारदीवारी के अंदर, जहां पीड़ित असहाय होता है को 'यूनिफॉर्म' और 'अधिकार' की आड़ तले मानवाधिकार का उल्लंघन करते हैं।'
यहां यह सवाल उठना लाजमी है कि आयोग यदि इतना सब लिख, पढ़ रहा है, निरंकुश पुलिस वालों पर अंकुश के लिए आयोग के पास निर्णय लेने की ताकत भी है, तो देश में और पुलिस हिरासत में मौत का आंकड़ा आखिर नीचे आने का नाम क्यों नहीं ले रहा है? दूसरे शब्दों में कहा जाए तो या तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कमजोर पड़ रहा है या फिर लोगों को हिरासत में अकाल मौत सुलाने की जिद पर अड़ी बेखौफ 'खाकी' इंसानियत के साथ-साथ आयोग पर भी भारी साबित हो रही है। कई प्रकरणों में तो आयोग के उन निर्देशों की अवहेलना भी की जाती है जिसमें कहा गया है कि ऐसे मामलों में आयोग को 24 घंटों के भीतर अवगत कराना जरूरी है। बावजूद इसके कई मामलों में आयोग के संज्ञान लेने के बाद ही मौत की तफसील आयोग को भेजी गई।
हिरासत में मौत के बढ़ते मामले निसंदेह देश के नागरिकों और कानूनविदों के लिए चिंता का सबब हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि हिरासत में यातना देना कानून का उल्लंघन होने के बावजूद कई पुलिसकर्मी हिंसा को एक वैध उपकरण मानते हैं। नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टॉर्चर (एनसीएटी) की रिपोर्ट बताती है कि साल 2019 में हर दिन लगभग 5 लोगों ने हिरासत में दम तोड़ा। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट की संपादक और कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव की सलाहकार माजा दारूवाला की यह टिप्पणी 'हिरासत में मौत की बढ़ती घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि थानों में जांच के नाम पर सबसे महत्वपूर्ण कार्यवाही अभियुक्त को प्रताड़ित करना है। जिससे यह संकेत मिलता है कि सुरक्षाबलों को जांच की जिम्मेदारी सौंपने के साथ उन्हें अवैध कार्यों की स्वीकृति भी प्रदान की गई है' खासी गौरतलब है।
सुप्रीम कोर्ट ने देश भर के पुलिस थानों में सीसीटीवी कैमरे लगवाने के निर्देश दिए थे। जिन पर आज तक अमल नहीं हो सका।' बीते साल अगस्त में देश के प्रमुख न्यायाधीश एन. वी. रमन ने थानों में मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों पर टिप्पणी करते हुए कहा था 'पुलिस थानों में प्रभावी कानून प्रतिनिधित्व का अभाव, गिरफ्तारी या हिरासत में लिए गए सभी व्यक्तियों के लिए एक बड़ा नुकसान है।' देश में हिरासत में होने वाली मौतों की बढ़ती संख्या, जिसमें पुलिस की कोई जवाबदेही नहीं है, ने प्रणाली की उन खामियों पर प्रकाश डाला है जिन्होंने न्यायप्रणाली को नष्ट कर मानवाधिकारों के उल्लंघन को बढ़ा दिया है। हाथरस में संघ के कार्यकर्ता राजकुमार उर्फ राजू चौहान की हिरासत में मौत के साथ वह समय आ गया है जब हमारी न्याय और कार्यपालिका को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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