अवधेश कुमार का लेख : महाराष्ट्र का घटनाक्रम स्वाभाविक

महाराष्ट्र का वर्तमान घटनाक्रम कतई अचंभित करने वाला नहीं है। कुछ दिनों में साफ होने लगा था कि राकांपा नेताओं का बड़ा समूह महाविकास अघाडी को बनाए रखने तथा विपक्षी एकता का भाग बनने की बजाय भाजपा और शिवसेना (शिंदे) समूह के साथ जाने का मन बना चुका है। यह मानना ठीक नहीं कि जो हुआ उसका पता शरद पवार को नहीं था। जब शपथ ग्रहण के पूर्व अजित पवार के घर पर सुप्रिया सुले भी पहुंची तो उन्हें पूरा घटनाक्रम का ज्ञान था। आज भाजपा पर अनैतिकता का आरोप लगाने वालों में से एक भी नेता या पार्टी ने तब यही बात नहीं कही जब भाजपा शिवसेना गठबंधन को बहुमत मिलने के बावजूद सरकार महाविकास अघाडी की बनाई गई। शरद पवार पिछले 4 वर्षों से जैसी राजनीति कर रहे थे उसकी यही स्वाभाविक परिणति थी। नवंबर 2019 में अजित पवार ने देवेंद्र फडणवीस के साथ शरद पवार की अनुमति से शपथ ली थी। एक ओर वे भाजपा से बात कर रहे थे और दूसरी ओर उद्धव ठाकरे से भी। उन्होंने कहा है कि ऐसा करके वे भाजपा को एक्सपोज करना चाहते थे। इसमें सबसे ज्यादा अपमान और बदनामी अजित पवार की हुई। उनके मन में लगातार इस बात की कसक थी। दूसरे, लगभग यह भी साफ हो चुका है कि शरद पवार ने एक समय उद्धव ठाकरे सरकार में रहते हुए भाजपा के साथ जाने के लिए भी बातचीत की। संभवतः उनके राष्ट्रपति बनाने पर नरेंद्र मोदी ने सहमति नहीं दी। इस तरह की राजनीति करने वाले व्यक्ति की पार्टी उसके साथ सदा रहे और वह भी इस स्थिति में जब प्रदेश में गठबंधन कमजोर होता दिखे यह संभव नहीं। थोड़े शब्दों में कहें तो यह पवार की राजनीति की ही स्वाभाविक परिणाम है।
एक वर्ष पहले हुआ शिवसेना में विद्रोह और राकांपा के वर्तमान टूट में गुणात्मक अंतर यही है कि तब उद्धव ठाकरे को इसका आभास नहीं था और शरद पवार जानकारी होते हुए भी रोक नहीं सके। शरद पवार विरोध में उतर रहे हैं तो कुछ समय के लिए नेताओं विधायकों का एक समूह उनके साथ दिखेगा, पर तस्वीर बता रही है कि उनके हाथ से नियंत्रण बाहर जा चुका है। इस घटना का तीन और पहलुओं के आधार पर संपूर्ण विश्लेषण किया जा सकता है। पहला , यह राकांपा की टूट है तो इस पर किसका दावा बनता है? दूसरे, इसका महाराष्ट्र की राजनीति में क्या असर होगा और तीसरा, राष्ट्रीय राजनीति यानी नरेंद्र मोदी और भाजपा विरोधी विपक्षी एकजुटता इससे कितनी प्रभावित होगी? प्रफुल्ल पटेल ने कहा कि पार्टी ने फडणवीस और शिंदे सरकार में शामिल होने और समर्थन करने का फैसला किया है। यानी यह टूट नहीं पार्टी का निर्णय है। यह भी कहा कि शरद पवार हमारे नेता थे, हैं और रहेंगे। अजित पवार ने भी राकांपा के संदर्भ में यही बात कही। यानी ये कह रहे हैं कि पार्टी के फैसले से हम गए हैं हमने न बगावत की, न पार्टी को तोड़ा है। यह स्टैंड ऐसा है जिसकी काट जरा मुश्किल होगी। शरद पवार के विरुद्ध ये कुछ नहीं बोलेंगे, लेकिन स्टैंड यही रहेगा। उद्धव ठाकरे के विपरीत शरद कह रहे हैं कि वे कानूनी लड़ाई नहीं लड़ेंगे, जनता के बीच जाएंगे। हालांकि विधानसभा में अजित और विद्रोहियों की सदस्यता रद करने की मांग की गई है। तो होगा क्या? अजित और प्रफुल्ल कह रहे हैं कि वह राकांपा के चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ेंगे। यानी चुनाव के पूर्व पार्टी चुनाव चिह्न को लेकर अभी तक दोनों पक्ष दावा करने के लिए चुनाव आयोग जाने का संकेत नहीं दे रहे। शरद अगर चुनाव आयोग के पास जाते हैं तभी इसकी कानूनी लड़ाई आरंभ होगी। वैसे विधानसभा में अध्यक्ष के पास आवेदन देने के साथ कानूनी और संवैधानिक लड़ाई आरंभ हो गई है। कानूनी लड़ाई के व्यवहार में बहुत ज्यादा मायने नहीं होते। किसी को चुनाव चिह्न मिल जाए और नेता, विधायक, सांसद साथ नहीं हो तो उसका कोई अर्थ नहीं। प्रफुल्ल पटेल, छगन भुजबल जैसे नेता शरद पवार से अलग निर्णय करते हैं तो यह साधारण घटना नहीं है। प्रफुल्ल पिछले करीब ढाई दशक से शरद पवार के सर्वाधिक विश्वसनीय एवं निकटस्थ नेताओं में हैं। छगन भुजबल की हैसियत भी बहुत बड़ी है। यही स्थिति लगभग दिलीप वलसे पाटील की भी है। ऐसे नेताओं के बाहर जाने के बाद शरद पवार के साथ पूरे प्रदेश में पहचान रखने वाले नेताओं की तलाश करनी पड़ेगी। शरद पवार की मराठवाडा में प्रतिष्ठा है खासकर गांव में और उनके साथ लोग खड़े होंगे, किंतु यह स्थायी नहीं हो सकता। 84 वर्ष की उम्र के व्यक्ति के साथ राजनीति का कोई व्यक्ति तभी खड़ा होगा जब उसे आगे अपना भविष्य दिखाई दे। सुप्रिया सुले और प्रफुल्ल पटेल को कार्याध्यक्ष बनाकर उन्होंने अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। सुप्रिया संगठन की व्यक्ति नहीं हैं। उनकी पूरी ताकत शरद पवार हैं। सुप्रिया के साथ जाकर कोई जोखिम मोल लेना नहीं चाहेगा। दूसरे, महाराष्ट्र विधानसभा में कांग्रेस को छोड़कर शरद के साथ बचे राकांपा और उद्धव शिवसेना के नेताओं की यह हैसियत नहीं कि वे ज्यादा लोगों को साथ ला सकें। वहां का माहौल एकपक्षीय होगा। शरद पवार स्वयं विधानसभा में नहीं है तो इसका भी असर होगा, इसलिए इस समय शरद पवार के साथ खड़े लोगों, या उनकी रैली आदि में संख्या के आधार पर भविष्य का निष्कर्ष मत निकालिए।
चूंकि शरद पवार पटना की विपक्षी बैठक में शामिल हो चुके हैं इस कारण उन्हें उन पार्टियों का समर्थन मिलेगा। धरातल का सच यही है कि शरद की राजनीतिक पारी का लगभग अंत हो चुका है। 1999 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल के सैद्धांतिक मुद्दे को उठाकर उन्होंने कांग्रेस से अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाई। यह बात अलग है कि बाद में वह कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़े, यूपीए सरकार में मंत्री रहे, प्रदेश में भी सरकार चली। शरद के कमजोर होने और राकांपा के बड़े समूह का प्रमुख और प्रभावी नेताओं के साथ भाजपा गठबंधन में साथ आने के बाद महाराष्ट्र का पूरा राजनीतिक वर्णक्रम बदल गया है। अब महाविकास अघाडी में कांग्रेस प्रमुख पार्टी है और शरद के नेतृत्व वाली राकांपा,उद्धव ठाकरे की शिवसेना काफी कमजोर। वर्तमान राष्ट्रीय राजनीति पर इसका दो तरीकों से असर होगा। पहला, शरद भाजपा और मोदी विरोधी मोर्चाबंदी के वरिष्ठ नेता है। पार्टी के इस बड़े टूट के बाद उनका वह प्रभाव नहीं होगा। मान सकते हैं कि अजित विचारधारा के स्तर पर कोई सिद्धांतवादी नेता नहीं है। बावजूद वे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत का अच्छा भविष्य होने की बात कह रहे हैं तो इसे केवल टूट के लिए गढ़ा गया तर्क मानना उचित नहीं होगा। निस्संदेह, इसके पीछे अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता होगी। किसके साथ जाने से हमारा राजनीतिक लाभ होगा यह कोई भी सोचता है पर आधार ठोस होता है। शरद पवार विरोधी इस समूह का कदम बताता है कि उनकी दृष्टि में महाराष्ट्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव जीतने की संभावना ज्यादा प्रबल है। यह न केवल महाराष्ट्र बल्कि देश के विपक्षी गठजोड़ की दृष्टि से बहुत बड़ी टिप्पणी है। जो नेता विपक्षी मोर्चाबंदी में बैठ रहे हैं उनकी पार्टी साथ है या नहीं इसे लेकर बड़ा प्रश्न चिह्न खड़ा हो गया है।
(लेखक- अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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