डॉ. मोनिका शर्मा का लेख : दिव्यांगों को सहयोगी परिवेश की आवश्यकता

डॉ. मोनिका शर्मा का लेख : दिव्यांगों को सहयोगी परिवेश की आवश्यकता
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सरकारी प्रयासों के अलावा आम लोगों में साथ, सम्मान देने का भाव जरूरी है। जन मानस को यह समझना होगा कि अक्षमता से जूझ रहे लोगों को सहानुभूति नहीं चाहिए। जरूरत पड़ने पर बस सहयोग किए जाने की दरकार होती है। आमजन का संवेदनशील व्यवहार उन्हें कमतर नहीं बल्कि बराबरी महसूस करवाता है। दिव्यांगजन खुद को अलग-थलग नहीं बल्कि अपने परिवेश से जुड़ा हुआ पाते हैं। यूं भी किसी इंसान का मूल्यांकन उसकी शारीरिक क्षमता से नहीं, बल्कि उसकी सोच और काबिलियत से होना चाहिए। हमारे देश में ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जिनमें शारीरिक अक्षमता के लोगों ने भी खुद साबित किया है।

डॉ. मोनिका शर्मा

कोरोना संकट से जूझते हुए सबसे संबलदायी समाचार पैरालम्पिक खेलों से मिले| मेडल और देश का मान तो बढ़े ही मन की मजबूती का सन्देश भी घर-घर पहुंचा। स्पष्ट हुआ कि दिव्यांगजन भी खुद को साबित कर सकते हैं। बस, सहयोगी और सम्मानजनक परिवेश मिलना चाहिए|समाज और सरकार दोनों के साझे प्रयास ही ऐसा परिवेश बना सकते हैं। प्रशासनिक स्तर पर संवेदशीलता और सामाजिक स्तर पर दिव्यांगों के प्रति सम्मान व साथ देने का भाव जरूरी है। ऐसा मान और मनोबल से जुड़ा बर्ताव अपनापन और हौसला देने वाला होता है।

समझना जरूरी है कि डिसेएबिलिटी के शिकार लोग सहानुभूति नहीं सहयोग चाहते हैं| सकारात्मक और सहयोग भरी भावनाओं के साथ अक्षमता से जूझ रहे इंसान की मदद करना, हर नागरिक के लिए मौका होता है इंसानियत दिखाने का। जिंदगी को संवेदनशीलता के साथ जीने का| किसी दूसरे इंसान की जद्दोज़हद को समझने की संवेदनशीलता के अहसास को महसूस करने का। यों भी देखा जाए तो किसी दिव्यांग का साथ देना अपने देश के एक नागरिक को साथ लेकर चलने जैसा है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा हर साल 3 दिसंबर, दिव्यांगों के अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस खास दिन की शुरुआत डिसेबिलिटी के शिकार व्यक्तियों के प्रति संवेदना और उनके मन-जीवन से जुड़ी चिंताओं और मुद्दों पर बात करने के लिए की गई थी। इतना ही नहीं दिव्यांगजनों के आत्मसम्मान, अधिकार और बेहतर जिंदगी के अन्य पहलू भी इस विशेष दिन से जुड़े हैं। विश्व विकलांग दिवस मनाने का उद्देश्य अक्षमता से जूझ रहे लोगों के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और वित्तीय, जीवन को हर मोर्चे पर बेहतर बनाए जाने की कोशिशों से जुड़ा है। गौरतलब है कि मौजूदा समय में विश्व की जनसंख्या 7 अरब से अधिक है।

इस आबादी का लगभग 15 प्रतिशत हिस्सा किसी न किसी तरह की विकलांगता के साथ जी रहा है। इन्हीं लोगों के जीवन से जुड़े कई पहलुओं पर संवेदशीलता, जागरूकता और सशक्तीकरण के प्रयास को संबोधित यह दिन हर वर्ष खास विषय को लेकर मनाया जाता है। साल 2021 का विषय 'कोविड के बाद के युग में अधिकारों के लिए लड़ाई' है। समझना मुश्किल नहीं कि दिव्यांग व्यक्तियों के कल्याण और प्रभावी भागीदारी के लिए इस आपदा से उबरने के बाद नए सिरे सोचा जाना जरूरी है। कोरोना संकट ने दिव्यांगों के जीवन के लिए भी मोर्चों पर मुश्किलें बढ़ा दी हैं। दुनिया के किसी भी कोने में संवेदनाओं और सहयोग के भाव से जुड़े प्रयासों की सफलता वहां के नागरिकों की संवेदनशीलता पर निर्भर करती है। हमारे यहां आज भी दिव्यांगजनों के प्रति सहानुभूति ज्यादा और सहयोग का भाव कम है, जबकि विकलांगता से जूझ रहे लोगों को एक बेहतर परिवेश, सहज-सुलभ सुविधाओं और सम्मानजनक व्यवहार की दरकार है। ग़ौरतलब है कि 2018 की राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) सर्वेक्षण की रिपोर्ट के मुताबिक़ देश की जनसंख्या में विकलांगता वाली आबादी 2.2 प्रतिशत है।

विकलांगता के शिकार लोगों की संख्या ग्रामीण क्षेत्रों में 2.3 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 2 प्रतिशत है। यह रिपोर्ट बताती है कि डिसएबल्ड जनसंख्या में महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या अधिक है। विकलांग व्यक्तियों में हर उम्र के लोग शामिल हैं| राइट्स ऑफ पर्सन्स विथ डिसएबिलिटीज एक्ट-2016 तहत कुल 21 प्रकार की विकलांगताओं को मान्यता दी गई है। इनमें 19 फीसदी लोगों में दृष्टि संबंधी और 19 प्रतिशत लोगों में सुनने से जुड़ी अक्षमताएं हैं। सबसे ज्यादा 20 फीसदी लोग चलने-फिरने से जुड़ी, 7 प्रतिशत लोग बोलने से जुड़ी और 18 प्रतिशत दूसरी किसी तरह की डिसएबिलिटी के शिकार हैं। समझना जरूरी है कि अलग-अलग तरह की डिसएबिलिटीज से जूझ रहे लोगों की समस्याएं भी अलग-अलग हैं। ऐसे में आमजन सहयोगी व्यवहार की भूमिका अहम हो जाती है। आम लोगों में साथ, सम्मान देने का भाव जरूरी है। आमजन का संवेदनशील व्यवहार उन्हें कमतर नहीं बल्कि बराबरी महसूस करवाता है। दिव्यांगजन खुद को अलग-थलग नहीं बल्कि अपने परिवेश से जुड़ा हुआ पाते हैं। यूं भी किसी इंसान का मूल्यांकन उसकी शारीरिक क्षमता से नहीं, बल्कि उसकी सोच और काबिलियत से होना चाहिए। हमारे देश में ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जिनमें शारीरिक अक्षमता के लोगों ने भी खुद साबित किया है।

दरअसल, असहयोग और असंवेदशीलता का परिवेश कई बार खुद दिव्यागों में भी हिचक और सहजता पैदा करता है| घर, दफ्तर या सार्वजनिक स्थलों पर शारीरिक रूप से सक्षम इंसान द्वारा अपनाया गया बेवजह का सहानुभूतिपूर्ण रवैया इस असहजता को और पोषित करता है। अफसोसजनक यह भी है कि आमतौर पर सहानुभूति दिखाते हुए उनकी सुविधा की अनदेखी की जाती है। ऐसे में जरूरी यह है कि व्यावहरिक धरातल पर दिव्यांग व्यक्तियों के सहयोग के लिए समाज का हर इंसान आगे आए| उनकी काबिलियत निखारने और किसी खास क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने को लेकर मददगार बने| यों सहजता से उनका मार्गदर्शन कर पूरा सामाजिक-पारिवारिक परिवेश सहज और सहयोगी बनाया जा सकता है। आज की डिजिटल दुनिया में सही सूचनाओं और जानकारियों के माध्यम से उन्हें सही मायने में सशक्त बनाया जा सकता है| तकनीकी तरक्की के इस दौर में कई ऐसी सुविधाएं हैं, जो रोज़मर्रा की जिंदगी में दिव्यांगों के लिए बेहद मददगार हैं, पर देखने सुनने, बोलने या चलने से जुड़ी सीमित क्षमता के चलते उन लोगों को इनकी जानकारी नहीं होती| डिसएबिलिटी से जूझ रहे किसी इंसान या उसके परिवारजनों को इन सुविधाओं के बारे में बताकर भी उनकी सहायता की जा सकती है| केंद्र सरकार का दिव्यांग सारथी एक बेहद जरूरी एप है। यह दिव्यांगजनों जानकारियां उपलब्ध करवाता है|

दिव्यांगजनों के प्रति सहयोग भरा बर्ताव हर नागरिक की ज़िम्मेदारी है। इस दायित्व के निर्वहन के लिए हर वो कोशिश जरूरी है जो दिव्यांगों के साथ सम्मान और सहयोग का मानवीय संबंध बनाए|संयुक्त राष्ट्र समझौता, जिसे विकलांगता समझौता भी कहा जाता है, के तहत आम लोगों जैसे ही मानवीय अधिकारों के साथ ही विकलांग लोगों के लिए कुछ अलग मानवाधिकारों की भी बात की गई है। इनमें सुरक्षित रहना यानी चोट आदि से उनकी सुरक्षा की जा सके, अपने खुद के निर्णय ले सकना, अच्छा जीवन बिता पाना और अपने समुदाय व समाज में शामिल हो सकने जैसे अधिकार भी शामिल हैं। कहना गलत नहीं होगा कि आमजन का सहयोगी और संवेदनशील व्यवहार बहुत हद तक यह पुख्ता कर सकता है कि ऐसे अधिकार उनके हिस्से आएं, इसीलिए अपना परिवेश हो या अनजान जगह, दिव्यांगों के प्रति सहयोग और सम्मान भरा व्यवहार अपनाना जरूरी है।

( ये लेखक के अपने विचार हैं। )

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