डॉ. अश्वनी महाजन का लेख : संकट का दूसरा नाम ‘फ्रीबिज’

समय है, राजनीतिक दलों द्वारा अपने चुनाव घोषणा-पत्रों के माध्यम से मतदाताओं को अपने दलों की नीतियों और प्रस्तावित कार्यक्रमों से अवगत करवाने का। सभी राजनीतिक दल, मतदाताओं को अपने वादों से लुभाने का प्रयत्न करते रहे हैं, लेकिन पिछले डेढ़ दशक में चुनावी वादों का प्रकार बदला है।इन वादों में नीतिओं और कार्यक्रमों की बजाय नकद राशि हस्तांतरण और मुफ्त की स्कीमों की घोषणायें प्रभुखता से होने लगी हैं। महिलाओं, किसानों, विद्यार्थियों, अल्पसंख्यकों व अन्य कमजोर वर्गों को नकद हस्तांतरण, समस्त जनता को मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त यात्रा समेत मुफ्तखोरी की घोषणाएं, अब एक आम बात हो गई है।
सात नवंबर से शुरू होकर 30 नवंबर तक देश के पांच महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव हो रहे हैं। चुनाव हमारे लोकतंत्र के उत्सव के रूप में जाने जाते हैं। आजादी के बाद चुनावों की सतत प्रक्रिया के चलते, भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में उभरा है। यह समय है, राजनीतिक दलों द्वारा अपने चुनाव घोषणा-पत्रों के माध्यम से मतदाताओं को अपने दलों की नीतियों और प्रस्तावित कार्यक्रमों से अवगत करवाने का। इतिहास में सभी राजनीतिक दल, मतदाताओं को अपने वादों से लुभाने का प्रयत्न करते रहे हैं, लेकिन पिछले डेढ़ दशक में चुनावी वादों का प्रकार बदला है। इन वादों में नीतिओं और कार्यक्रमों की बजाय नकद राशि हस्तांतरण और मुफ्त की स्कीमों की घोषणाएं प्रभुखता से होने लगी हैं। महिलाओं, किसानों, विद्यार्थियों व अल्पसंख्यकों और अन्य कमजोर वर्गों को नकद हस्तांतरण, समस्त जनता को मुफ्त बिजली, पानी, मुफ्त यात्रा समेत कई मुफ्तखोरी की स्कीमों की घोषणाएं, अब एक आम बात हो गई है।
मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी ने किसानों के कर्ज माफ करने के अलावा, मुफ्त बिजली, गैस सिलेंडर की सब्सिडी, महिलाओं को 1500 रुपये प्रति माह, युवाओं को 3000 रुपये बेरोजगारी भत्ते के अलावा, कई अन्य मुफ्त की स्कीमों की घोषणा की है। इसी प्रकार की घोषणाएं अलग-अलग राजनीतिक दलों द्वारा की गई हैं। मतदाताओं को रिझाने का हरसंभव प्रयास किया जा रहा है। ऐसे में विचार करने का विषय है कि क्या यह हमारे लोकतंत्र की स्वस्थ परंपरा है। क्या हमारी सरकारें इन मुफ्त स्कीमों के लिए धन जुटा पाएंगी? कहीं राज्य सरकारों पर कर्ज का बोझ तो नहीं बढ़ जाएगा? इन मुफ्त की योजनाओं का सरकारी योजनाओं, सामाजिक क्षेत्रों पर खर्च और उनके स्तर पर इनका क्या प्रभाव पड़ेगा? इन सभी प्रश्नों पर विचार करना जरूरी हो गया है।
दुनिया के कई देशों में मुफ्तखोरी के कारण सरकारी कर्ज के बढ़ने के उदाहरण मिलते हैं। वेनेजुएला और श्रीलंका इत्यादि के उदाहरणों से पता चलता है कि उन जैसे धनाढ़य देश भी मुफ्तखोरी की गलत आर्थिक नीतियों के चलते गरीब देशों से भी बदतर हालत में पहुंच सकते हैं, तो पाकिस्तान सरीखे विकासशील देशों की बिसात ही क्या है। वर्तमान में कल्याणकारी राज्य के नाम पर मुफ्त की स्कीमों के कारण कई अमीर देशों की भी एक लंबी सूची है, जो आज भारी कर्ज में डूबे हुए हैं और अब वे इन स्कीमों को चलाने में सक्षम नहीं हैं, लेकिन यह बीमारी अब भारत के कई राज्यों में फैलती जा रही हैं। इस माह होने वाले चुनावों में तो राजनीतिक दलों ने मुफ्तखोरी की योजनाओं की घोषणाओं की झड़ी लगा दी है। मुफ्त बिजली, मुफ्त यातायात, महिलाओं को अनुदान राशि, युवाओं को बेरोजगारी भत्ता, इत्यादि के साथ-साथ मुफ्त वाहन और कई अन्य मुफ्तखोरी की स्कीमों के बारे में हम रोज सुन रहे हैं। कुछ समय पहले भारतीय रिजर्व बैंक और भारत के महालेखाकार एवं अंकेक्षक (कैग) ने अपनी रिपोर्टों में मुफ्तखोरी के कारण राज्यों पर बढ़ते कर्ज के बारे में आंकड़े प्रकाशित किए हैं और यह चिंता व्यक्त की है कि जहां-जहां मुफ्तखोरी की स्कीमें ज्यादा चल रही हैं, उन राज्यों पर कर्ज भी बढ़ता जा रहा है।
गौरतलब है कि एफआरबीएम अधिनियम के अनुसार किसी भी राज्य में ऋण-जीएसडीपी (राज्य का सकल घरेलू उत्पाद) का लक्षित अनुपात 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए, लेकिन ‘कैग’ का कहना है कि देश के अधिकांश राज्यों में यह अनुपात इस लक्षित अनुपात से कहीं ज्यादा है। पंजाब में यह 48.98 प्रतिशत, राजस्थान में 42.37 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 37.39 प्रतिशत, बिहार में 36.73 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 35.30 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 31.53 प्रतिशत, तेलंगाना में 27.80 प्रतिशत, तमिलनाडु में 27.27 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 26.47 प्रतिशत तक पहुंच गया है और यदि राज्य के सरकारी उद्यमों और राज्य सरकार द्वारा दी गई गारंटियों को भी शामिल कर लिया जाए तो 2020-21 तक राजस्थान में ऋण जीएसडीपी अनुपात 54.94 प्रतिशत और पंजाब में तो यह 58.21 प्रतिशत तक पहुंच चुका था। आंध्र प्रदेश में भी यह 53.77 प्रतिशत आकलित किया गया है। इसके बाद तेलंगाना में यह 47.89 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 47.13 प्रतिशत तक पहुंच चुका है।
पश्चिम बंगाल और बिहार में भी यह क्रमशः 40.35 प्रतिशत और 40.51 प्रतिशत है, और तमिलनाडु में यह 39.94 प्रतिशत। कैग का यह भी कहना है कि राज्यों का कर्ज लक्षित अनुपात की तुलना में लगातार बढ़ता जा रहा है। यह राज्यों के लिए ही नहीं, देश के लिए भी चिंता का विषय है। आंध्र प्रदेश के बारे में रिजर्व बैंक का कहना है कि पंजाब के बाद आंध्र प्रदेश मुफ्त की योजनाओं पर खर्च करने वाला देश का दूसरा ऐसा राज्य है। गौरतलब है कि पंजाब में कुल कर राजस्व का 45.5 प्रतिशत मुफ्त की योजनाओं पर खर्च होता है और आंध्र प्रदेश में 30.3 प्रतिशत। इसके अलावा मध्य प्रदेश में सब्सिडी पर खर्च कर राजस्व का 28.8 प्रतिशत, झारखंड में यह 26.7 प्रतिशत है। गौरतलब है कि ‘कैग’ के आकलन के अनुसार उन राज्यों पर कर्ज ज्यादा है, जहां मुफ्त की स्कीमों पर ज्यादा खर्च किया जा रहा है। इसमें सबसे ऊपर पंजाब और आंध्र प्रदेश है। आंध्र प्रदेश के अलावा दक्षिण का एक अन्य प्रांत तमिलनाडु है, जो जरूरत से ज्यादा मुफ्त की योजनाओं पर खर्च करता है। जब कोई प्रांत मुफ्त की स्कीमों पर अपने कर राजस्व का इतना बड़ा हिस्सा खर्च कर देता है तो स्वाभाविक रूप से आवश्यक सेवाओं और इंफ्रास्ट्रक्चर पर उसका पूंजीगत खर्च कम हो जाता है।
किसी भी राज्य के विकास के लिए जरूरी है कि उसमें निवेश बढ़े। इन्फ्रास्ट्रक्चर के अभाव में निवेश प्रभावित होता है और उसके कारण राज्य का विकास भी। जरूरी है कि राज्यों द्वारा दी जा रही मुफ्त की स्कीमों पर अंकुश लगाकर विकास को गति दी जाए। जहां एक तरफ केन्द्र सरकार कोरोना काल में अपने ऋण जो सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी के 61 प्रतिशत तक पहुंच गया था, को 56 प्रतिशत तक घटाने में सफल हो चुकी है, लेकिन विभिन्न राज्य सरकारों के ऋण राज्य सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में लगातार बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में संपूर्ण सरकार पर कर्ज बढ़ने के कारण देश की आर्थिक रेटिंग घटती जा रही है। यदि इसी प्रकार चलता रहा तो देश को निवेश मिलने में तो कठिनाई होगी ही, हमारी कंपनियों और सरकार के द्वारा जो विदेशों से ऋण लिया जाता है उस पर भी ज्यादा ब्याज चुकाना पड़ेगा। यानी बढ़ते कर्ज न राजकोषीय असंतुलन पैदा कर रहे हैं, बल्कि राज्य सरकारों की कल्याणकारी योजनाएं चलाने की क्षमता को भी प्रभावित कर रहे हैं और देश और उद्योग के विकास के लिए भी मार्ग अवरुद्ध कर रहे हैं। राजनीतिक दल अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते देश को मुश्किल में न डाल सकें, इसके लिए तुरंत कदम उठाने की जरूरत है। राजनीतिक कारणों से विधायिका और सरकारी तंत्र शायद इस काम में सफल न हो सकें, लेकिन हमारे लोकतंत्र के अन्य स्तंभों जैसे न्यायपालिका और मीडिया को इसके लिए आगे आना होगा।
डॉ. अश्वनी महाजन (लेखक दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं, ये उनके अपने विचार है)
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