डाॅ. नंदकिशोर सोमानी का लेख : भारत से रिश्ते सुधारेंगे एर्दोगन !

रेसेप तैयप एर्दोगन एक बार फिर से तुर्किये के भाग्यविधाता बन गए हैं। वे पिछले दो दशकों से तुर्किये की सत्ता पर काबिज हैं। इस्लामी जगत का खलीफा बनने का सपना देख रहे एर्दोगन ने देश के भीतर उन तमाम सुधारों और उदारवादी प्रयासों को धता बताया जो उनके इस्लामी (Islamic) कट्टरपंथ के एक सूत्री कार्यक्रम में बाधा बन रहे थे। साल 2018 में चुनाव जीतने के एक महीने बाद ही उन्होंने देश की संसदीय व्यवस्था को समाप्त कर नया संविधान लागू किया गया। एर्दोगन कट्टरपंथी स्वरूप के पैरोकार रहे हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि एर्दोगन देश के भीतर इस्लामिक नीतियों को बढ़ावा देने और वैश्विक राजनीति में तुर्किये के प्रभाव बढ़ाते हुए दिखाई देंगेे।
जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी (एकेपी) के अध्यक्ष रेसेप तैयप एर्दोगन एक बार फिर से तुर्किये के भाग्यविधाता बन गए हैं। वे पिछले दो दशकों से तुर्किये की सत्ता पर काबिज हैं। पिछले सप्ताह सम्पन्न हुए दूसरे दौर के चुनाव में उन्होंने संयुक्त मोर्चें के कमाल कलचदारलू को करीब चार फीसदी मतों के अंतर से हरा दिया। 14 मई को हुए चुनाव में एर्दोगन को 49. 24 फीसदी, कमाल को 45. 07 और एक अन्य उम्मीदवार सिनेन ओगन को 5. 28 फीसदी वोट मिले। किसी भी उम्मीदवार को 50 फीसदी से अधिक मत नहीं मिलने के कारण 28 मई को दोबारा मतदान हुआ। दूसरे दौर में एर्दोगन को 52.18 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए और वे दूसरे कार्यकाल के लिए चुन लिए गए। अब एर्दोगन 2028 तक सत्ता में रह सकते हैं।
करीब 8.5 करोड़ आबादी वाले मुस्लिम देश तुर्किये पर एर्दोगन की पार्टी साल 2002 से शासन कर रही है। सत्ता में आने के बाद एर्दोगन ने देश पहले राष्ट्रपति अतातुर्क के धर्मनिरपेक्ष सिंद्धात को तिलांजलि देकर तुर्किये को धार्मिक कट्टरवाद की नीति पर आगे बढ़ाया। वे तुर्किये को पूरी तरह से धार्मिक कट्टरता पर आधारित एक रूढ़िवादी संस्कृति वाला देश बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उन पर विवादित नीतियों के जरिये धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देने के अलावा विपक्ष को दबाने और राजनीतिक पैंतरेबाजी के भी आरोप लगे। ऐसे में इन चुनावों में एर्दोगान की राह मुश्किल नजर आ रही थी, लेकिन चुनाव नतीजों ने स्पष्ट कर दिया कि देश के भीतर उनकी लोकप्रियता बरकरार है। फरवरी में आए विनाशकारी भूंकप के दौरान आपदा प्रबंधन को लेकर भी विपक्षी पार्टियों ने एर्दोगन पर सवाल उठाए थे।
7.8 तीव्रता के इस विनाशकारी भूकंप में करीब 50 हजार से अधिक लोग मारे गए थे। भूंकप से तुर्किये के जो 11 शहर सबसे ज्यादा प्रभावित हुए थे। इनमें से 8 शहरों में एर्दोगन की पार्टी का जबर्दस्त प्रभाव था। आपदा प्रबंधन के उपाय एवं राहत कार्यों को लेकर लोगों में आक्रोश था। आपदा से निपटने के लिए सरकार के कदमों की कड़ी आलोचना की गई थी। इतना ही नहीं आर्थिक मोर्चें पर भी तुर्किये की स्थिति डांवाडोल थी। डाॅलर के मुकाबले लीरा का मूल्य तेजी से गिर रहा है। विदेशी निवेश में आश्चर्यजनक ढंग से कमी आई है। चालू घाटा बढ़ रहा है। महंगाई आसमान छू रही है। मुद्रास्फीति चरम पर है। अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन को लेकर भी विपक्ष लगातार एर्दोगन को घेर रहा था। दूसरी ओर विपक्ष के साझे उम्मीदवार व पूर्व नौकरशाह कमाल कलचदारलू ने तुर्किये को तानाशाही की तरफ बढ़ने से रोकने और देश की अर्थव्यवस्था को ठीक करने का वादा किया था।
उन्होंने संसदीय प्रणाली की वापसी और पश्चिम के साथ मजबूत संबंधों का भी वादा किया। ऐसे में माना जा रहा था कि भूकंप के तुंरत पश्चात हो रहे चुनाव में एर्दोगन को सत्ता से हाथ धोना पड़ सकता है, लेकिन भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में एर्दोगन की पार्टी ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन कर सत्ता में बने रहने की राह आसान कर दी। इस्लामी जगत का खलीफा बनने का सपना देख रहे एर्दोगन ने देश के भीतर उन तमाम सुधारों और उदारवादी प्रयासों को धता बताया जो उनके इस्लामी कट्टरपंथ के एक सूत्री कार्यक्रम में बाधा बन रहे थे। साल 2018 में राष्ट्रपति चुनाव जीतने के एक महीने बाद ही उन्होंने देश की संसदीय व्यवस्था को समाप्त कर नया संविधान लागू किया गया। नए संविधान में प्रधानमंत्री का पद समाप्त कर खुद को सरकार का मुखिया घोषित कर दिया। नए संविधान को एर्दोगन यह कहकर सही ठहरा रहे हैं कि इन बदलावों से सरकार में स्थायित्व आएगा और तुर्किये सुरक्षा के मोर्चे पर मजबूत होगा। करीब एक दशक तक तुर्की के प्रधानमंत्री रहने के बाद एर्दोगन 2014 में राष्ट्रपति बने ।
करीब 20 वर्षों से तुर्किये की सत्ता पर काबिज एर्दोगन का रुख लगभग भारत विरोधी रहा है। कश्मीर मसले पर वे हमेशा पाकिस्तान के पाले में खड़े दिखाई देते हैं। वे संयुक्त राष्ट्र से लेकर दूसरे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर का मुद्दा उठा चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर का मुद्दा में उठाते हुए उन्होंने कहा कि कश्मीर में अवाम पर जुल्म हो रहा है। उसका निपटरा यूएन चार्टर के मुताबिक होना चाहिए। भारत ने एर्दोगन के बयान की कड़ी निंदा करते हुए तुर्किये को कश्मीर मुद्दे से दूर रहने को कहा और साथ ही तुर्किये के धुर-विरोधी साइप्रस से रिश्ते मजबूत किए। साल 2017 में जब एर्दोगन भारत के दौरे पर आए थे उस वक्त भी उन्होंने कश्मीर को लेकर बयान दिया था। तुर्किये के भारत विरोधी रवैये के बावजूद आपदा के समय भारत ने तुर्किये को मदद पहुंचाई।भूकंप के अगले ही दिन भारत ने तुर्किये में ऑपरेशन दोस्त चलाकर एनडीआरएफ की दो टीमों को बचाव कार्य के लिए भेजा।
इसमे विशेष रूप से प्रशिक्षित डाॅग स्क्वायड और सभी आवश्यक उपकरण शामिल थे। भारत की ओर से भेजी गई मदद के लिए तुर्किये ने भारत को दोस्त कहा और भूकंप से बचे लोगों के लिए आपात्तकालीन किट भेजने के लिए भारत को धन्यवाद दिया। खास बात यह है कि भारत ने यह सारी मदद उस वक्त दी जब तुर्किये के साथ संबंध तनावपूर्ण थे। दूसरी ओर कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जब भारत में हालात काफी भयावह थे। देश में आॅक्सीजन और वेंटिलेटर्स की भारी कमी थी। उस वक्त तुर्किये ने भारत को 50 टन चिकित्सा सामग्री, आॅक्सीजन जेनेरेटर्स, सिलेंडर व वेंटिलेटर्स भेजे, लेकिन सवाल यह है कि दोनों देशों के टाॅप नेतृत्व में सहयोग एवं सद्भाव की भावना होने के बावजूद कूटनीतिक मोर्चे पर दोनों ‘दोस्त’ परस्पर विरोध में खड़े क्यों नजर आते हैं।
सच तो यह है कि तुर्किये के साथ द्विपक्षीय संबंधों में दो बड़ी अड़चनें है। प्रथम, तुर्किये द्वारा अपनी विदेश नीति में इस्लाम को प्रमुख कारक के तौर पर स्वीकार किया जाना और द्वितीय, तुर्किये का इस्लामिक जगत का खलीफा बनने का सपना। मुस्लिम जगत में नेतृत्व की भूमिका हासिल करने की इसी इच्छा के चलते तुर्किये जब-तब कश्मीर मुद्दे को हवा देकर पाकिस्तान जैसे बड़े इस्लामिक राष्ट्र का समर्थन हासिल करना चाहता है। इन्ही दो बड़ी अड़चनों के कारण भारत और तुर्किये के बीच रिश्ते कभी सामान्य नहीं हो पाए हैं।
यूरोप और एशिया के चौराहे पर अवस्थित होने के कारण आज तुर्किये ग्लोबल पाॅलिटिक्स में एक अहम खिलाड़ी के तौर पर उभर रहा है। विशिष्ट भौगालिक स्थिति और नाटो का अहम सदस्य होने के कारण यह न केवल क्षेत्र के लिए बल्कि वैश्विक राजनीति में भी एक महत्वपूर्ण शक्ति बन चुका है। यही वजह है कि वैश्विक राजनीति का काफी हद तक निर्धारण इस बात पर निर्भर रहता है कि तुर्किये में सत्ता की बागडोर किस के हाथ में होती है। एर्दोगन कट्टरपंथी स्वरूप के पैरोकार रहे हैं। उन्हें कट्टरपंथी वोटरों का समर्थन भी हासिल है। ऐसे में कहा जा सकता है कि एर्दोगन अपने तीसरे कार्यकाल के दौरान देश के भीतर इस्लामिक नीतियों को बढ़ावा देने और वैश्विक राजनीति में तुर्किये के प्रभाव बढ़ानेे की दिशा में काम करते हुए दिखाई देंगेे।
डाॅ. नंदकिशोर सोमानी (लेखक सूरतगढ़ में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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