डॉ. रमेश ठाकुर का लेख : भारत के लिए नवाज भरोसेमंद नहीं

नवाज शरीफ वापस लौटकर भारत के लिए सहजता दिखा रहे हैं। कराची की रैली में उन्होंने अच्छे रिश्ते गढ़ने की वकालत भी की है। ये उनका हृदय परिवर्तन है या इसमें भी कोई चाल छिपी है। सवाल ये भी है कि आखिर नवाज भारत के लिए ‘शरीफ’ क्यों बन रहे हैं। हालांकि, उनकी टिप्पणी पर अभी हमारी सरकार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। देने की जरूरत भी नहीं, जल्दबाजी करने की अभी आवश्यकता नहीं है। पाक में सियासत ने एक बार फिर करवट ली है। पीएमएलएन पार्टी के लिए राजनीतिक मैदान फिर से सजा है। नवाज कितनी ‘शराफत’ क्यों न दिखाएं, भारत एकदम विश्वास नहीं करेगा, फूंक-फूंक कर कदम आगे बढ़ाएगा।
नवाज शरीफ वापस लौटकर भारत के लिए सहजता दिखा रहे हैं। कराची की रैली में उन्होंने अच्छे रिश्ते गढ़ने की वकालत भी की है। ये उनका हृदय परिवर्तन है या इसमें भी कोई चाल छिपी है। सवाल ये भी है कि आखिर नवाज भारत के लिए ‘शरीफ’ क्यों बन रहे हैं। हालांकि, उनकी टिप्पणी पर अभी हमारी सरकार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। देने की जरूरत भी नहीं, जल्दबाजी करने की अभी आवश्यकता नहीं है। पाकिस्तान राजनीतिक रूप से अक्षम हुआ पड़ा है। दलदल की ऐसी गहरी खाई में समाया है जहां से निकालकर दोबारा अपने पैरों पर खड़ा करने की कुव्वत फिलहाल मौजूदा प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ में कतई नहीं है।
तभी उन्होंने फौज और निर्वासित जीवन जीने वाले अपने बड़े भाई पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के मध्य एक गुप्त समझौता करवाया। गुप्त समझौते पर जैसे ही मुहर लगी नवाज की वतन वापसी का रास्ता साफ हुआ। इसी सप्ताह वह करीब सवा चार वर्ष का राजनीतिक वनवास काटकर वतन लौटे हैं। ये पहली मर्तबा हुआ है, जब पाकिस्तान अपने किसी नेता का निर्वासित जीवन इतनी आसानी से पचाया हो। हो सकता है शायद पाक को भी नवाज की जरूरत हो। नवाज का वनवास अभी और लंबा खींचता, अगर उनका फौज के साथ अंदरूनी गठबंधन न हुआ होता। वरना, उनके साथ भी वही होता, जो पूर्व प्रधानमंत्रियों के साथ हुआ था।
ये सोलह आने सच है कि पाकिस्तानी सियासत कभी भी फौज के दबदबे से आजाद नहीं हो पाएगी। पिछले चुनाव में नवाज की पार्टी को हराकर पूर्व क्रिकेटर इमरान खान ने अपनी सरकार बनाई थी। इमरान जैसे-जैसे फौज के खिलाफ मुखर हुए, उनकी सत्ता से विदाई की जमीन भी तैयार होती गई। इस कड़वी सच्चाई से नवाज विदेश में बैठे-बैठे और वाकिफ हो गए। तभी, उन्होंने बिना शर्त फौज के आगे घुटने टेक दिए। परवेज मुशर्रफ भी जीते जी निर्वासित जीवन में ही मर गए। अंतिम सांस भी उनको अपने वतन में नसीब नहीं हुई। कमोबेश, कुछ ऐसा ही नवाज शरीफ के साथ भी होता, लेकिन वह सियासत के बड़े चतुर और माहिर खिलाड़ी हैं। बदली सियासी हवा की नब्ज को जानते-समझते हैं। वतन से बाहर रहते हुए भी उनके दिमाग में राजनीतिक पारी खेलने की ललक बनी रही और अपनी स्वदेश वापसी की रणनीति पाकिस्तान के बाहर रहते हमेशा बनाते रहे।
पाकिस्तान में बेशक उनके छोटे भाई प्रधानमंत्री हैं, लेकिन फैसले सभी उन्होंने ही लिए। उनका सरकार के भीतर अप्रत्यक्ष रूप से दखल रहा है। सर्वविदित है कि पाकिस्तान में बगैर फौज के कोई भी नेता राजनीति नहीं कर सकता। सियासत में फौज के बिना वहां पत्ता तक नहीं हिलता। नवाज शरीफ अपने सियासी और उम्र के अंतिम पड़ाव में पहुंच चुके हैं, इसलिए उन्होंने बहुत सोच समझकर फैसला लिया। इसे समझदारी कहें, या घुटने टेकना। फिलहाल राजनीति और राजनेताओं को इससे फर्क नहीं पड़ता। बहरहाल, फौज संग गुप्त समझौते के बाद वतन लौटे नवाज शरीफ के समझ चुनौतियां कम नहीं होंगी, भरमार रहेगी। हालांकि उनके लौटने के बाद फौज के इशारों पर पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली की सुगबुगाहट शुरू हुई है। हालांकि ये सुगबुगाहट पार्टी विशेष के लिए तो फायदेमंद हो सकती हैं, पर अस्थिर लोकतंत्र को लेकर ज्यादा उम्मीद लगाना अभी बेमानी होगा, क्योंकि पाकिस्तान इस वक्त अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। भुखमरी, अस्त-व्यस्त कानून व्यवस्था, चरम पर बेरोजगारी आदि फैली हुई है।
पड़ोसी मुल्क में सियासत ने एक बार फिर करवट ली है। पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) पार्टी के लिए राजनीतिक मैदान फिर से सजा है। सरकार उनके भाई की है, इसलिए सामाजिक और सरकारी स्तर पर शरीफ के लिए माहौल बनाया जा रहा है। वतन लौटने के तुरंत बाद उन्होंने सबसे पहले लाहौर में ‘मीनार-ए-पाकिस्तान’ में रैली आयोजित की, जिसमें उमड़ी भीड़ को देखकर वह गदगद हुए। भीड़ देखकर उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे पूरा पाकिस्तान उनके लौटने का बड़ी ही बेसब्री से इंतजार कर रहा था। 74 वर्ष के हो चुके नवाज शरीफ तीन मर्तबा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रह चुके हैं, अब उन्होंने चौथी बार प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश जाहिर की है। वे प्रधानमंत्री बन भी सकते हैं कोई बड़ी बात नहीं। पिछले चुनाव में उन्हें मात मिली थी, लेकिन पाकिस्तान इस वक्त जहां खड़ा है, वहां से नवाज शरीफ ही निकाल पाएंगे। वहां बेशक हल्की ठंड पड़नी शुरू हो गई हो, लेकिन समूचे मुल्क में राजनीतिक माहौल इस वक्त गर्माया हुआ है।
आम चुनाव भी नजदीक हैं, कुछ ही महीनों में चुनाव होने हैं। इमरान खान का कमजोर पड़ना नवाज शरीफ के लिए फायदेमंद साबित हो रहा है। भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्ते बातचीत से ही सुधरेंगे। ये सभी जानते हैं, लेकिन अब बातचीत के जरिये रिश्ते सुधारना उतना आसान नहीं होगा, क्योंकि हर बार पाकिस्तान ने भारत का विश्वास तोड़ा है। दोबारा से नवाज शरीफ ने बातचीत के रूप में भारत के लिए ‘शालीनता’ शब्द का इस्तेमाल किया है, जिसका क्या मतलब है? इसको लेकर बहस छिड़ी है। क्या वह पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान सरकार की आलोचना के रूप में कहना चाहते हैं कि पाकिस्तान की पूर्ववर्ती सरकारों ने कश्मीर का मुद्दा ‘शालीनता’ से नहीं छेड़ा था? हालांकि उनकी बातों पर भारत ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहता? नवाज शरीफ आज भले ही भारत के साथ रिश्ते सुधारने की बात कह रहे हों, लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1999 में उन्हीं के प्रधानमंत्री रहते कारगिल में युद्ध हुआ था। एक बात वो और भूले हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बातचीत का एक और बेहतरीन मौका उन्होंने गवाया था। जब दिल्ली से लाहौर तक बस सेवा शुरू कर भारत ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया तो उसके बाद भी पाकिस्तानी फौज ने हमारी सीमा में घुसपैठ की नाकाम हरकतें की, उसके बाद बातचीत के तकरीबन रास्ते बंद हो गए थे।
भारत के लिए पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पाकिस्तान वापसी कितनी महत्त्वपूर्ण है, ये बड़ा सवाल सभी के मन में उठ रहा है। वो तीन मर्तबा प्रधानमंत्री रहे तब दोनों देशों के बीच बेहतर रिश्तों की वकालत करते रहे। अपने वतन लौटने के बाद रैली में भी उन्होंने कह भी दिया कि नासूर बना कश्मीर का मसला ‘शालीनता’ से सुलझाकर भारत से अच्छे रिश्ते दोबारा से शुरू करेंगे। हालांकि भारत तो हमेशा से इसका पक्षधर रहा है। भारत ने बातचीत के रास्ते कभी बंद नहीं किए, 2014 में जब केंद्र की सत्ता में प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का आगमन हुआ तो उन्होंने बड़े मानवीय तरीके से बातचीत को आगे बढ़ाने की अलहदा तस्वीर पेश की थी। बिना आमंत्रण के वह पाकिस्तान पहुंचे थे। उनके इस कदम का भारत में जमकर विरोध भी हुआ था। बावजूद इसके पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आया। फिलहाल नवाज कितनी ‘शराफत’ क्यों न दिखाएं, भारत एकदम विश्वास नहीं करेगा, फूंक-फूंक कर कदम आगे बढ़ाएगा।
डॉ. रमेश ठाकुर (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
यह भी पढ़ें - Sonipat : पुगथला के नवीन मलिक ने अंडर-23 विश्व कुश्ती चैंपियनशिप में जीता कांस्य पदक
© Copyright 2025 : Haribhoomi All Rights Reserved. Powered by BLINK CMS
-
Home
-
Menu
© Copyright 2025: Haribhoomi All Rights Reserved. Powered by BLINK CMS