सुशील राजेश का लेख : महिलाओं की प्रेरणास्रोत बनेंगी द्रौपदी मुर्मू

सुशील राजेश
यह एक चुनाव, घटनाक्रम, तारीख ही नहीं है, बल्कि एक शिलालेख लिखा गया है। जब तक मानवता और लोकतंत्र अस्तित्व में रहेंगे, तब तक इस शिलालेख का भी जिक्र किया जाता रहेगा। कई मिथक टूटे हैं और आगे भी टूटते रहेंगे। अभी तो कई किंवदन्तियां सामने आएंगी। जंगल की बेटी, गरीबी और किल्लतों में पली-बढ़ी, पारिवारिक त्रासदियां झेलते हुए, अंधेरों को चीरकर राष्ट्रीय पटल पर उभरी हैं, तो यह भारत के लोकतंत्र और गणतंत्र के शानदार सफ़र का एक पड़ाव है। आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू देश की 15वीं महामहिम चुनी गई हैं। देश के करीब 1.30 लाख गांवों के करीब 11 करोड़ आदिवासियों में उत्सव का माहौल है। जश्न के लम्हे हैं। देश के आदिवासी तो जंगलों के सहारे, पहाड़ों के बीच, कबीलों की शक्ल में भी, दूरदराज के इलाकों में रहने के आदी रहे हैं। उन्हें आज यथार्थ का अनुभव हुआ है कि उनके बीच की बेटी भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद तक पहुंच सकती है।
बेमिसाल कार्य
द्रौपदी मुर्मू ने न सिर्फ प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को पराजित किया है, बल्कि विपक्ष के 126 विधायकों और 17 सांसदों को क्राॅस वोटिंग के लिए प्रेरित भी किया है। देश में जब स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने के मौके पर 'अमृत महोत्सव' का माहौल है, तब एक 'आदिवासी शक्ति' राष्ट्रपति चुनी गई हैं। उन्हें झारखंड के राज्यपाल पद पर भी काम करने का मौका मिला। वह तब राष्ट्रीय सुर्खियों में सामने आईं, जब भाजपा की ही रघुवर दास सरकार द्वारा पारित दो बिलों पर उन्होंने हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया और बिलों को लौटा दिया। छोटा नागपुर और संथाल परगना इलाकों में किराएदारी से संबंधित बिल पारित हो जाते, तो ज़मीन औद्योगिक इस्तेमाल के लिए आसानी से स्थानांतरित की जा सकती थी। आदिवासियों ने बिलों का पुरजोर विरोध किया और गवर्नर द्रौपदी मुर्मू से मिलकर गुहार की। वे बिल अंततः कानून नहीं बन सके।
कड़क संवैधानिक शख्सियत
कमोबेश विपक्ष के उन चेहरों के लिए यह उदाहरण ही पर्याप्त है कि मुर्मू 'मूर्ति' नहीं, कड़क संवैधानिक शख्सियत भी हैं। वह अपनी नई भूमिका में संविधान की संरक्षक साबित होंगी, यह देश का विश्वास है। आदिवासी समाज को देखने और आंकने का नज़रिया भी बदलेगा। देश जंगलात की दुनिया में झांककर देखेगा और उसकी तकलीफों को समझने और साझा करने की कोशिश करेगा। आदिवासियों को माओवादी या नक्सलवादी करार देने की रवायत भी कम होगी। बहरहाल जब 25 जुलाई को द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति पद की औपचारिक शपथ के बाद 'राष्ट्रपति' का कार्यभार संभाल लेंगी, तो उसके बाद समीक्षा की जाए कि लोकतंत्र और संविधान सुरक्षित हैं या उन पर आंच आई है। बहरहाल द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से बहुस्तरीय संदेश प्रवाहित होंगे। पत्थर तोड़ती और जंगल से लकड़ियां ढोकर लाती आदिवासी महिला के साथ-साथ देश के शहरों तक सक्रिय युवतियों में भी उम्मीद और संकल्प की नई लहर प्रवाहित होनी चाहिए। सामाजिक, सांस्कृतिक के अलावा राजनीतिक और चुनावी समीकरण भी बदलेंगे, क्योंकि 47 लोकसभा और 487 विधानसभा सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। इनमें से 31 सांसद तो भाजपा के हैं। यकीनन आने वाले चुनावों में भाजपा के पक्ष में लाभ की स्थिति दिखाई देगी। दरअसल आदिवासी कभी कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक होते थे, लेकिन आज वह राजनीति समाप्त हो चुकी है। चूंकि दबे-कुचले, वंचित समुदायों को सशक्त बनाने का काम भाजपा कर रही है, बेशक यह भी विशुद्ध रूप से सियासत है, चुनाव ही सियासत के निष्कर्ष हैं, लेकिन हाशिए पर पड़े तबकों को देश की मुख्यधारा में प्रतिनिधित्व भी हासिल हो रहा है, लिहाजा वे भाजपा के साथ ही लामबंद होंगे। आदिवासियों का संदर्भ है, तो आज वह यथार्थ भी देश के सामने आना चाहिए कि 21वीं सदी के भारत और विकास के तमाम दावों के बावजूद आदिवासी दयनीय और अमानवीय हालात में जीने को अभिशप्त क्यों हैं? करीब 73 फीसदी ग्रामीण आदिवासियों के घरों में शौचालय, करीब 21 फीसदी घरों में बिजली, करीब 75 फीसदी घरों में जल का स्रोत और करीब 78 फीसदी के पास पक्का घर नहीं थे। मुर्मू के गांव में भी तब बिजली आई थी, जब वह विधायक बनी थीं।
आदिवासियों पर फोकस
आदिवासियों में करीब 91 फीसदी घरों की रसोई में साफ़ ईंधन नहीं पहुंचा है। करीब 35 फीसदी किसानी से जुड़े हैं, तो करीब 45 फीसदी खेतिहर मजदूर हैं। मात्र 1.4 फीसदी आदिवासी पक्के घरों में रहते हैं, जिनमें बिजली, पानी, शौचालय की सुविधाएं हैं। आदिवासियों में 5 साल की उम्र के 45 फीसदी से ज्यादा बच्चों का औसत वजन कम है, क्योंकि वे कुपोषित हैं। करीब 26 फीसदी स्कूलों में स्वच्छ पेयजल है और करीब 71 फीसदी स्कूलों में बिजली और 86 फीसदी स्कूलों में चारदीवारी तक नहीं है। ये आंकड़े कम-ज्यादा हो सकते हैं, क्योंकि आदिवासियों के विकास पर फोकस बढ़ा है। महामहिम के तौर पर मुर्मू का नाम आना और फिर उन्हें जिताना हमारी बात की पुष्टि करता है।
गौरवशाली पारिवारिक पृष्ठभूमि
महामहिम चुनी गईं मुर्मू की यह पृष्ठभूमि भी गौरतलब है कि उनके पुरखों ने 1857 की क्रांति से पहले ब्रिटिश सरकार की ईस्ट इंडिया कंपनी और तत्कालीन ज़मींदारी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह किया था। जिन इलाकों में बगावत की गई थी, आज वे झारखंड और बंगाल राज्यों में हैं। भारतीय इतिहास में वह विद्रोह सुर्खियों के साथ दर्ज किया जाना चाहिए। शायद मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से ऐसे संदर्भ खुलेंगे और देशवासी उस शानदार अतीत से भी प्रेरणा भी लेंगे। बहरहाल राष्ट्रपति को सजावटी पद कहना छोड़ देना चाहिए। वह सेनाओं का 'सुप्रीम कमांडर' होता है। वह देश का प्रथम नागरिक होता है। भारत सरकार और कई संदर्भों में राज्य सरकारें भी 'राष्ट्रपति' के नाम और आधार पर काम करती हैं। दरअसल हमारा संविधान ही ऐसा है कि तमाम कार्यकारी शक्तियां केंद्र सरकार में निहित होती हैं। सरकार राष्ट्रपति के विवेक और संवैधानिक सहमति के आधार तक ही सहज होती है, नहीं तो सब कुछ असंतुलित हो जाता है। बहरहाल प्रथम आदिवासी महिला के 'रायसीना हिल्स' तक पहुंचने के सफ़र पर गर्व महसूस करना चाहिए और भविष्य में झांकने की कोशिश की जाए कि यह सर्वोच्च प्रयोग भी कितना सफल साबित होता है। आदिवासियों में राजनीतिक चेतना के नए उभार का दौर शुरू होगा।
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