डाॅ. एन.के. सोमानी का लेख : जेलेंस्की की कूटनीतिक नाकामी

डाॅ. एन.के. सोमानी
मई 2019 में जब यूक्रेन की जनता ने छठे राष्ट्रपति के रूप में व्लोदिमिर जेलेंस्की को सत्ता सौंपी थी उस वक्त कौन जानता था जेलेंस्की यूक्रेन की 4 करोड़ जनता को तबाही और बर्बादी के ऐसे मंजर में धकेल देेंगे जहां से निकलना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा। राष्ट्रपति बनने से पहले जेलेंस्की टीवी कलाकार थे। देश के भीतर उनकी छवि कॉमेडियन से अधिक नहीं थी। कॉमेडियन से राष्ट्रपति बने जेलेंस्की में न कूटनीति सूझबूझ थी और न ही सामरिक मामलों की समझ। परिस्थितियों के आंकलन और भू-राजनीति को समझने की क्षमता न होने के बावजूद वे पश्चिम की उन तथाकथित महाशक्तियों की बातों पर विश्वास करते रहे, जिनके लिए स्वयं के राष्ट्रहित हमेशा प्राथमिक रहे हैं। महाशक्तियों की चाल, चरित्र और चेहरे को समझने की कुव्वत न होने के कारण जेलेंस्की अमेरिका की बातों में आ गए और अपने से कई गुना ज्यादा शक्तिशाली रूस के साथ उलझने की हिमाकत कर बैठे, जिसका नतीजा यह हुआ कि यूक्रेन जैसा समृद्ध देश देखते ही देखते खाक होने की कगार पर आ गया।
जेलेंस्की के यूक्रेन के राष्ट्रपति बनने की पटकथा उस वक्त ही लिखी जाने लगी थी जब साल 2014 में यूक्रेनी जनता ने रूस समर्थक राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को सत्ता से बेदखल कर दिया था। इससे क्षुब्ध रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण कर क्रीमिया पर कब्जा कर लिया। इस घटना के एक साल बाद टीवी सीरियल सर्वंेट आॅफ द पीपल ने जेलेंस्की को सुर्खियों में ला दिया। इस सीरियल में जेलेंस्की ने राष्ट्रपति का किरदार निभाया था। साल 2019 के राष्ट्रपति चुनाव में जेलेंस्की ने तत्कालीन राष्ट्रपति पेट्रो पोरोशेंको को चुनौती दी और 70 फीसदी से अधिक मतों से पेट्रो को हराकर यूक्रेन के राष्ट्रपति बन गए। अमेरिका इसी दिन का इंतजार कर रहा था। वह बीते 8 साल से यूक्रेन को नाटो में शामिल करने का झांसा देते आ रहा था, लेकिन पेट्रो के सत्ता में रहते अमेरिकी मंसूबे पूरे नहीं हो रहे थे। जेलेंस्की के सत्ता में आते ही अमेरिका ने यूक्रेन पर डोरे डालना शुरू कर दिया। उसने यूक्रेन को नाटो का सदस्य बनाने का भरोसा देकर रूस के खिलाफ खड़ा कर दिया। सत्त्ाा में आते ही जेलेंस्की ने यूक्रेन के संविधान में संशोधन कर देश को नाटो और यूरोपीय संघ का सदस्य बनाने का फैसला किया। यूक्रेन के इस कदम को रूस प्रत्यक्ष खतरे के रूप में देखने लगा। दरअसल, पूरे घटनाक्रम के नेपथ्य में रूस और अमेरिका के बीच चल रहा तेल का खेल भी था। तेल के इस खेल में बाइडेन यूक्रेन को आगे कर पुतिन को कमजोर करना चाहते थे। रूस का तेल भंडार उसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। रूस अकेले यूरोपीय देशों को करीब 35 फीसदी कच्चे तेल का निर्यात करता है। इसके साथ ही वह यूरोपीय देशों का प्राकृतिक गैस की भी आपूर्ति करता है। रूस के तेल भंडार पर नजरें गड़ाए रखने वाला अमेरिका यूरोप और पूर्व सोवियत देशों को रूस के खिलाफ भड़काता रहता है, ताकि तेल के भंडार कर कब्जा करके वह आर्थिक तौर पर रूस को कमजोर कर सके। अमेरिका और रूस के बीच चल रहे तेल के इस खेल को जेलेंस्की समझ नहीं सके और जाने-अनजाने अमेरिका के बहकावे में आकर यूक्रेन को विनाश के मंुह में धकेल दिया। इसके अलावा बाइडेन पर घरेलू राजनीति का भी दबाव था। यूक्रेन के मोर्चे पर ट्रंप उनकी लगातार आलोचना कर रहे हैं।
अमेरिका इस समय महंगाई, बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था के संकट जैसी समस्याओं से भी जूझ रहा है। अफगानिस्तान में किरकिरी करवा चुकने के बाद बाइडेन खुद भी यूक्रेन में सैन्य हस्तक्षेप से बचना चाहते थे, परन्तु नासमझ जेलेंस्की यह सब नहीं समझ सके और अमेरिका के भरोसे और बहकावे में आकर यूक्रेन को युद्ध की आग में झोंक दिया। इसके बाद जो हुआ वो दुनिया के सामने है। एक अकेला यूक्रेन इतनी बड़ी सैन्य शक्ति के साथ कब तक टिके रह सकता था और देखते ही देखते यूरोप की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का एक मजबूत किला ढहने की कगार पर आ गया। जेलेंस्की महाशक्तियों की मनोदशा को भी नहीं भांपने में नाकाम रहे। पिछले छह महीनों से रूस उसकी सरहद पर सैन्य जमावड़ा बढ़ता रहा और महाशक्तियां केवल बयानबाजी करती रही। फ्रांस पुतिन के इस फैसले को यूरोप का इतिहास बदलने वाली घटना बता रहा है। अभी भी जब यूक्रेन नष्ट होने के कगार पर है, दुनिया का हर बड़ा नेता केवल जुबानी मिसाइलें दागता हुआ दिख रहा है। दुनिया का आका भी स्पष्ट तौर पर सामने नहीं आ रहा है। यूएनओ केवल बैठकों में उलझा हुआ है और यूरोपियन यूनियन पूरी तरह से कन्फ्यूजन की स्थिति में है। वो यह तय ही नहीं कर पा रही है कि आखिर उसे करना क्या है। बाइडेन को नाटो देशों की सुरक्षा की चिंता तो है, लेकिन यूक्रेन की नहीं। वे बार-बार कह रहे हैं कि नाटो देशों की हर इंच जमीन की रक्षा की जाएगी, लेकिन नाटो में शामिल होने के चक्कर में तबाही झेल रहे यूक्रेन में अपनी सेना तैनात नहीं करेंगे। नि:संदेह अमेरिका और पश्चिमी देशों के इस रवैये को देख जेलेंस्की खुद को ठगा सा महसूस कर रहे होंगे।
ताज्जुब तो इस बात पर है कि हमले के 6 दिन गुजर जाने के बाद भी जेलेंस्की कूटनीतिक हल ढूढने के बजाय रूस के विरुद्ध अमेरिका और पश्चिमी देशों से मदद की गुहार लगा रहे हैं। एक वीडियो संदेश में वह कह रहे हैं कि हमने अपने 137 हीरो (नागरिक) खो दिए हैं। हमें युद्ध में लड़ने के लिए अकेला छोड़ दिया है। हमें किस देश का साथ नहीं मिला। उन्होंने सवाल किया कि हमारे लिए लड़ने को कौन खड़ा है। मुझे कोई नहीं दिख रहा है। यूक्रेन को नाटो सदस्यता की गांरटी देने के लिए कौन तैयार है, हर कोई डरता है। मैंने यूरोप के 27 नेताओं से पूछा है कि क्या यूक्रेन नाटो में शामिल होगा। किसी ने कोई जवाब नहीं दिया, सभी डरे हुए हैं। सच तो यह है कि जेलेंस्की फुलटाइम कलाकार और पार्टटाइम राजनीतिज्ञ थे, इसलिए अमेरिकी कूटनीति को समझ नहीं सके और तेल के खेल में एक मोहरे के तौर पर इस्तेमाल हो गए हैं।
हालांकि, जेलेंस्की का बाइडेन को यह संदेश कि मुझे भागने के लिए सवारी नहीं, लड़ने के लिए हथियार दीजिए। एक बारगी तो उन्हें दुनिया में एक हीरो के रूप में स्थापित कर देगा, लेकिन यूक्रेन के इतिहास में उनका नाम एक ऐसे नासमझ राष्ट्रपति के रूप में दर्ज होगा जिसकी नासमझी के कारण यूक्रेन कई दशकों पीछे हो गया है। शायद यूक्रेनी जनता इसके लिए उन्हें कभी माफ न करे। - (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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