यूपी में सबके लिए कठिन रहा चुनाव

यूपी में सबके लिए कठिन रहा चुनाव
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इस बार उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव शुरू में भाजपा के लिए जितना आसान लग रहा था, अंत आते आते उतना ही कठिन होता गया। सपा ने भी पूरे दमखम से चुनाव में वापसी के सपने बुने हैं। बसपा और कांग्रेस केवल चुनाव लड़ती दिखी है, लेकिन दोनों दलों ने सोशल इंजीनियरिंग का पूरा ध्यान रखा है। अब तक के अनुमान के मुताबिक यूपी में मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा के बीच दिखाई पड़ रहा है। 10 मार्च को नतीजे आ जाएंगे और ऊंट किस करवट बैठ रहा है, इसका पता चल जाएगा। ग्राउंड रिपोर्ट के मुताबिक मतदाता के साइलेंट बिहेवियर के चलते यूपी का इस बार का चुनाव भाजपा समेत सभी दलों के लिए कठिन है।

अवधेश कुमार

उत्तर प्रदेश चुनाव को निकट से देखने के बावजूद मेरे लिए परिणाम का पूर्व आकलन कारण कठिन हो गया। आरंभ से ही यह साफ दिख रहा था कि मुसलमान और अपवाद को छोड़ दें तो यादव आक्रामक होकर भाजपा विरुद्ध समाजवादी पार्टी के पक्ष में मतदान कर रहे हैं। अखिलेश यादव ने पश्चिम में मुसलमानों और पूरे उत्तर प्रदेश में यादवों को कम टिकट दिया ताकि पूर्व सरकार के दौरान हुए अपराध और उत्पात को लोग भूल जाएं। उसने जिन जातियों को टिकट दिया कि उस जाति के लोगों का भी बड़ा वर्ग उसके पक्ष में मतदान कर रहा था। इस तरह 20% मुसलमान, 8% यादव और दो चार प्रतिशत भी अन्य जातियों को मिला दें तो 30 - 32% वोट ज्यादातर जगह सपा को ऐसे ही मिल रहा था। भाजपा को पहले इतने मत पाने थे। दूसरे ,आरंभ में लग रहा था कि बसपा कहीं भी मैदान में नहीं है।

उम्मीदवारों की घोषणा के बाद अनेक जगह बसपा को अपनी कोर जाटव के अलावा उन जातियों का भी वोट मिल रहा था जिसके उम्मीदवार थे। मुसलमानों का वोट वह कम जगह काट पाई । वास्तव में बसपा सपा का बहुत कम वोट काटी लेकिन भाजपा के हिस्से का वोट उसने अनेक जगह काटा। भाजपा की बसपा पर हमला न करने की रणनीति गलत थी। शायद चुनाव बाद समझौते को ध्यान में रखकर ऐसा किया या फिर यह सोचा गया कि वह सपा का वोट काटेगी। ऐसा कम जगह हुआ। उसने ज्यादातर जगह भाजपा का वोट काटा । मैंने आरंभ में लोगों से पूछा कि क्या आपको योगी आदित्यनाथ सरकार पसंद है तो ज्यादातर उत्तर मिलता था कि हां ,हमें पसंद है। क्या यही सरकार वापस आएगी तो अच्छा लगेगा? इसका भी उत्तर मिलता था कि हां, यही सरकार आए तो अच्छा लगेगा। तो आप वोट किसको दे रहे हैं? कुछ लोग कहते थे कि भाजपा को दे रहे हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या काफी थी जो कहते थे कि नहीं, हमारा विधायक बेकार है, हम तो इसे वोट नहीं देंगे, योगी मोदी तो ठीक हैं लेकिन लोकल लीडर गलत है, इसलिए हमारा वोट दूसरी पार्टी को जाएगा। यह कहते हुए भी कहते थे लेकिन हमारे वोट से क्या होगा जीतेगा वही और आएगी योगी सरकार ही।

मैंने कुछ जगह मतदान के बाद जाकर समझने की कोशिश की तो लोग कह रहे थे कि बीजेपी सरकार ही आएगी, यह भी कह रहे थे कि मुझे अच्छा लगेगा कि यही सरकार हो लेकिन हमारे यहां यह उम्मीदवार अच्छा था इसलिए हमने उसे वोट दे दिया। अगर दो -चार जगह की बात होती तो निष्कर्ष निकाला जा सकता था। मैंने जगह-जगह पूरे उत्तर प्रदेश में इसी तरह की आवाज सुनी। लोग यह भी कहते मिले कि इस सरकार ने कानून और व्यवस्था इतना संभाल दिया है कि हम लोगों को कोई भय नहीं है। कई जगह लोग कहते थे कि हमारा विकास हो नहीं हो ,लेकिन निश्चिंता से सोते हैं और परिवार को लेकर या रात में आने- जाने को लेकर चिंता नहीं रहती है। ऐसे लोगों में भी वे निकल जाते थे जो वोट देने में कहते थे कि नहीं हम फलां को वोट देंगे। फिर वही बात कि लेकिन आएगी योगी सरकार ही। मैं पूछता कि जब आप वोट नहीं देंगे तो सरकार कैसे आएगी तो उनका उत्तर होता है एक जगह से क्या होगा । मैं कहता कि अगर बहुत जगह यह हो गया तो सरकार नहीं आएगी । तब कहीं- कहीं लोग कहते कि ऐसा हो सकता है। अनेक जगह जातीय कारक प्रबल होने लगे। लोग चाहते थे कि योगी सरकार आए लेकिन उनकी जाति का टिकट दूसरी पार्टी ने दिया है तो वोट उसको दे रहे हैं। मजे की बात कि वह भी कह रहे हैं कि लेकिन आएगी तो योगी सरकार ही। यह एक विचित्र स्थिति मैंने पूरे उत्तर प्रदेश में देखी। हां ,समाजवादी पार्टी के समर्थक अवश्य कहते थे कि सरकार जा रही है और अखिलेश जी मुख्यमंत्री बन रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि भाजपा को वोट नहीं मिल रहा था। खूब मिल रहा था लेकिन इसके समानांतर समाजवादी पार्टी का वोट भी जगह-जगह प्रबल दिखाई पड़ता था। दूसरे, पूरे चुनाव में समाजवादी पार्टी के समर्थक बिल्कुल मुखर और प्रखर थे जबकि भाजपा के समर्थकों में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या थी जो चुप और रक्षात्मक मुद्रा में थे। कई जगह तो लोग कतराते मिले यह कहने से कि हम भाजपा के हैं या उसको वोट देंगे। भाजपा की पहचान प्रखर और मुखर कार्यकर्ताओं और समर्थकों की रही है लेकिन इस चुनाव में बड़ी संख्या में ये सहमे हुए जैसे थे या दब्बू बने दिख रहे थे। ऐसे लगता था जैसे उनके सिर पर किसी का हाथ नहीं हो। जमीन पर साफ दिखाई देता था कि भाजपा के लिए चुनाव बिखर गया है। वह संभाल नहीं पा रही है, राज्यव्यापी अपने मुद्दे नहीं बना पा रही है। शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र है जहां कार्यकर्ताओं में विधायक, प्रशासन और सरकार के विरुद्ध असंतोष नहीं हो। पूर्व विधायक उम्मीदवार के साथ नेता- कार्यकर्ता लगे हुए थे लेकिन उनमें से कुछ को अकेले बुलाकर पूछिए तो खुल जाते थे कि विधायक जी ने काम नहीं किया, हम लोग पार्टी में होने के कारण मजबूरी में लगे हैं। यह भी पूरे यूपी में हवा बनी हुई थी कि हमारा विधायक जीतने के बाद कभी आया ही नहीं। शुरू में दो, चार ,पांच जगह जब यह प्रतिक्रिया मिली तो मुझे लगा कि ऐसा होगा। जब जगह-जगह यही प्रतिक्रिया आने लगी तो मेरी समझ में आ गया कि एक हवा बन चुकी है और एक व्यक्ति से दूसरे, तीसरे, चौथे ,पांचवें…. में पूरे उत्तर प्रदेश में फैल चुका है। भाजपा इसका खंडन कभी नहीं कर पाई कि विधायकों के बारे में यह धारणा गलत है। जिसके दरवाजे पर शायद ग्राम प्रधान भी नहीं आये होंगे वह भी कहता कि विधायक तो जीत कर हमारे पास आया ही नहीं।

भाजपा को चुनौती अपनी पार्टी के अंदर से भी मिल रही थी। ऐसे कम जगह मिले जहां पार्टी पदाधिकारियों - कार्यकर्ताओं और समर्थकों में असंतोष या गुस्सा अपनी सरकार, प्रशासन और मंत्रियों- नेताओं के प्रति नहीं हो। जगह-जगह शिकायत थी कि विधायक अपने ही कुछ लोगों के बीच सीमित रहते हैं और पार्टी संगठन से उनका लेना-देना नहीं। भाजपा अगर अपने विधायकों में से ज्यादातर का टिकट काट देती और नए उम्मीदवार लाती तो पार्टी के अंदर असंतोष और लोगों का गुस्सा काफी कम हो जाता। अगर नेतृत्व पार्टी के असंतोष को दूर करने का आरंभ से ही कोशिश किया होता तथा अपने मुद्दों को सबसे ऊपर लाकर सरकार के प्रति सहानुभूति और समर्थन को वोट के रूप में सुदृढ़ करने की रणनीति पर फोकस करती तो उसके लिए चुनाव इतनी बड़ी चुनौती नहीं होती।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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