प्रमोद जोशी का लेख : लोकतंत्र के आंगन में चुनावी हथकंडे

प्रमोद जोशी
पांच राज्यों के चुनाव अंतिम दौर में हैं। पिछले 75 वर्ष में राजनीति हमारी राष्ट्रीय संस्कृति बन चुकी है और चुनाव उसके महोत्सव। स्वतंत्र चुनाव-व्यवस्था हमारी उल्लेखनीय उपलब्धि है, पर 'चुनावी हथकंडे' इस उपलब्धि पर पानी फेरते हैं। हाल में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके अनुरोध किया गया है कि निर्वाचन आयोग को उन दलों का पंजीकरण रद करने का निर्देश दें, जो चुनाव के पहले सार्वजनिक धन से, विवेकहीन तोहफे देने का वादा करते हैं या बाँटते हैं। याचिका में कहा गया है कि वोट पाने के लिए के लिए इस तरह के तोहफों पर पूरी तरह पाबंदी लगनी चाहिए।
वादों की बौछार
इन चुनावों से पहले घोषणापत्रों और चुनाव सभाओं में लोकलुभावन तोहफों के वादों की भरमार है। कोई 300 यूनिट बिजली मुफ्त में दे रहा है और कोई 400 यूनिट, युवाओं को लैपटॉप से लेकर स्कूटी तक देने के वादे हैं। किसानों को कर्जे माफ करने की घोषणाएं हैं, तमिलनाडु में जैसी अम्मा कैंटीनें खुली थीं, वैसी ही सस्ते भोजन की कैंटीनें और सस्ते किराना स्टोर खोलने का वादा है। कोई पाँच लाख नए रोजगार देने का वायदा कर रहा है, तो दूसरा बीस लाख रोजगार के अलावा, बेरोजगारी भत्ता, पेंशन योजना, कन्याधन, बसों में मुफ्त यात्रा जैसे वादे हैं। एक नेता ने कहा कि हमारी सरकार आई, तो मोटर साइकिल पर तीन सवारी ले जाने वालों का चालान नहीं होगा।
सस्ता अनाज, रंगीन टीवी
वादों के व्यावहारिक-पक्ष पर कोई ध्यान नहीं देता। द्रमुक के संस्थापक सीएन अन्नादुरै ने 1967 में वादा किया था कि 1 रुपये में साढ़े चार किलो चावल दिया जाएगा। वे अपने वादे से मुकर गए, क्योंकि उन्हें समझ में आ गया कि इससे राज्य पर भारी बोझ पड़ेगा। नब्बे के दशक में आंध्र में एनटी रामाराव ने दो रुपये किलो चावल देने का वादा किया। वे जीत गए, पर चुनाव के बाद वहाँ आठ रुपये किलो चावल बिका, पर दक्षिण भारत में तोहफों की राजनीति का एक नया दरवाजा खुल चुका था। सस्ते अनाज के वायदे के पीछे जन-कल्याण की भावना समझ में आती है, पर वायदों का पिटारा खुला तो खुलता ही चला गया। वर्ष 2006 में द्रमुक के एम करुणानिधि ने रंगीन टीवी देने का वादा किया और चुनाव जीता। इसे लेकर सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य मामला हाईकोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट तक आया था, जिसपर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चुनावी घोषणा पत्र में किए वादों को भ्रष्ट-आचरण नहीं माना जा सकता। तमिलनाडु में लैपटॉप, गैस के चूल्हे और टीवी से लेकर मंगलसूत्र तक देने के वादे चुनाव में होते हैं। लड़कियों की शादी के समय रुपये दिए जाते हैं। चुनावी वादे भ्रष्ट आचरण हैं या नहीं, यह विषय एक अरसे से चर्चा का विषय है। अब इसे फिर सुप्रीम कोर्ट में उठाया गया है। पिछले साल किसी दूसरे विषय पर जनहित याचिका पर विचार करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने कहा थ्ाा कि मुफ्त की चीजों ने तमिलनाडु के लोगों को आलसी बना दिया है।
पद और मर्यादा
इस चुनाव के दौरान और उसके पहले भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अपने पद पर रहते हुए राजनीतिक बयान देने के आरोप लगे हैं। संसद के बजट अधिवेशन में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस और नेहरू का नाम कई बार लिया। इस पर कांग्रेस की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई। राज्यसभा में तो उनके बोलने के बाद कांग्रेस सांसदों ने वॉकआउट कर दिया। विधानसभा चुनाव करीब होने के कारण इस वक्तव्य के राजनीतिक निहितार्थ स्पष्ट हैं। पर क्या संसदीय-कर्म को राजनीति से अलग किया जा सकता है? राजनीतिक-कर्म की मर्यादा रेखा होनी चाहिए, पर उसे तय कौन करेगा? राजनीति संसद से सड़क तक जाती है, पर संसद और सड़क के वक्तव्य एक जैसे नहीं हो सकते।
अभद्र भाषा के बढ़ते प्रयोग
राजनीति में व्यंग्य, कटाक्ष और व्यक्तिगत टिप्पणियाँ कोई नई बात नहीं हैं, पर उनके स्तर में निरंतर गिरावट ध्यान खींचती है। विरोधी दलों के कटाक्षों पर भी ध्यान देना चाहिए। कुछ साल पहले अमित शाह ने एक ट्वीट में एक सूची दी थी कि प्रधानमंत्री को कांग्रेस पार्टी किस किस्म की इज्जत बख्शती रही है। इनमें से कुछ विशेषण हैं, 'यमराज, मौत का सौदागर, रावण, गंदी नाली का कीड़ा, मंकी, वायरस, भस्मासुर, गंगू तेली, गून' वगैरह। 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री की रैलियों को लेकर कांग्रेस पार्टी चुनाव आयोग से शिकायत की और जब आयोग ने कांग्रेस के मनमाफिक आदेश जारी नहीं किए, तब सुप्रीम कोर्ट में भी शिकायत की। चुनाव आयोग और ईवीएम पर विरोधी-दलों ने जिस तरह से हमले किए हैं, वे भी अमर्यादित हैं। इन बातों को सर्वदलीय बैठकों में ही निपटाना चाहिए।
चुनाव-सुधार प्राथमिकता नहीं
चुनाव सुधार हमारे देश में चुनाव का मुद्दा नहीं बनते। सन 2014 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने अपने राष्ट्रीय चुनाव घोषणापत्र में चुनाव और प्रशासनिक सुधार को मसला बनाया था। इस घोषणापत्र में पार्टियों के धन संचय को लेकर कुछ कड़ी बातें भी कही गईं थीं। शायद वह बात घोषणापत्र में दर्ज करने के लिए ही थी, क्योंकि तृणमूल ने दुबारा इन सवालों को नहीं उठाया।पिछले 70 साल में चुनाव सुधार का ज्यादातर काम चुनाव आयोग की पहल पर हुआ या अदालतों के दबाव के कारण। मतदाता पत्र बनाने और प्रत्याशियों के हलफनामे दाखिल कराने की व्यवस्था इसका उदाहरण है। हलफनामा देने की व्यवस्था लागू तभी हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की पहल को समर्थन दिया। वर्ष 2002 में जब चुनाव आयोग ने हलफनामों की व्यवस्था की तो सरकार ने उसे अध्यादेश जारी करके रोक दिया। इसके बाद 13 मार्च 2003 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह व्यवस्था लागू हो पाई।
काले धन की समस्या
कम से कम तीन ऐसे मामले हैं, जिनसे पार्टियां बचती हैं। चुनावी चंदे की पारदर्शिता, दागी प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने पर रोक और गलत हलफनामे पर कार्रवाई। चुनाव प्रणाली में काले धन का जमकर इस्तेमाल होता है। यह काला धन राजनीतिक दलों को कहाँ से मिलता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। 2013 में छह राष्ट्रीय दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की कोशिश को पार्टियों ने पसंद नहीं किया। वह कोशिश अब तक सफल नहीं हो पाई है। 1990 में गोस्वामी समिति, 1993 में वोहरा समिति, 1998 में चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग पर विचार के लिए इन्द्रजीत गुप्त समिति, 1999 में चुनाव सुधार पर विधि आयोग की रपट, 2001 में संविधान पुनरीक्षा आयोग की सिफारिशों, 2004 में चुनाव आयोग के प्रस्ताव और वर्ष 2007 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को और 2015 में विधि आयोग की 255 वीं रिपोर्ट को एक साथ रखकर पढ़ें तो समझ में आता है कि पूरी व्यवस्था को रफू करने की जरूरत है।
सामाजिक-ज़हर
हमारे चुनाव पावर गेम हैं। इसमें 'मसल और मनी' मिलकर 'माइंड' पर हावी रहते हैं। चुनाव ने गरीब और हाशिए के लोगों को अधिकार-सम्पन्न बनाने में मदद की है, पर देश के सामाजिक ताने-बाने को ध्वस्त करने में भी उसकी सबसे बड़ी भूमिका है।
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