प्रो. नीलम महाजन सिंह का लेख : औपनिवेशिक कानूनों का अंत

प्रो. नीलम महाजन सिंह का लेख : औपनिवेशिक कानूनों का अंत
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केंद्र सरकार ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ादी के 76 वर्षों बाद अब अंग्रेजों के बनाए पुराने भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता, 1898, 1973 (सीआरपीसी), व भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (एविडेंस एक्ट) को समाप्त करते हुए उनके स्थान पर तीन नए कानून- भारतीय न्याय संहिता-2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता-2023 व भारतीय साक्ष्य विधेयक-2023 लाने जा रही है। इनसे ना केवल दंड विधान का चेहरा बदलेगा, बल्कि 21वीं सदी के भारत की न्यायिक ज़रूरत भी पूरी होगी। अभी इन बिलों की कानूनी यात्रा लंबी है, पर यह औपनिवेशिक गुलामी के अंत की यात्रा है।

भारत तेजी से बदलाव की ओर अग्रसर है। एक एक करके गुलामी के प्रतीकों से मुक्ति पाई जा रही है। अब अंग्रेजों के बनाए कानूनों को बदला जा रहा है। नए भारत में इसकी सख्त ज़रूरत है। न्यायिक सुधार व पुलिस सुधार की दिशा में आगे बढ़ने के लिए दंड संहिता में सुधार की आवश्यकता है। केंद्र सरकार ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ादी के 76 वर्षों बाद अब अंग्रेजों के बनाए पुराने भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता, 1898, 1973 (सीआरपीसी), व भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (एविडेंस एक्ट) को समाप्त करते हुए उनके स्थान पर तीन नए कानून- भारतीय न्याय संहिता-2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता-2023 व भारतीय साक्ष्य विधेयक-2023 लाने जा रही है। इनसे ना केवल दंड विधान का चेहरा बदलेगा, बल्कि 21वीं सदी के भारत की न्यायिक ज़रूरत भी पूरी होगी। 21वीं सदी के भारत को 19वीं सदी के कानूनों व विधानों से नहीं चला सकते हैं। भारत के नागरिकों के सम्मान, स्वाभिमान, स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करना जरूरी है।

दंड व साक्ष्य विधान में सुधार के लिए, लाए जा रहे कानूनों के अमल में आने के बाद हमें अनेक बदलाव देखने को मिलेंगें। सबसे बड़ा बदलाव तो यह दिखेगा कि 'राजद्रोह' कानून निरस्त हो जाएगा। अब 'देशद्रोह' का प्रावधान किया गया है। 'राजद्रोह' ब्रिटिश काल का शब्द है। राजद्रोह की सुप्रीम कोर्ट, बहुत आलोचना कर चुकी है। धारा-150 के तहत राष्ट्र के खिलाफ कोई भी कृत्य, चाहे बोला हो या लिखा हो, या संकेत या तस्वीर या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से किया हो, तो न्यूनतम 7 साल से उम्रकैद तक की सजा संभव होगी। अभी आईपीसी की धारा 124-ए में राजद्रोह के लिए 3 साल से उम्रकैद तक सजा है। 'आतंकवाद' शब्द को भी परिभाषित किया गया है। सशस्त्र विद्रोह, विध्वंसक गतिविधियों, अलगाववादी गतिविधियों या भारत की संप्रभुता या एकता व अखंडता को खतरा पहुंचाने वाली गतिविधि के लिए नए प्रावधान जोड़े गए हैं। सरकार के खिलाफ नफरत, अवमानना, असंतोष पर दंडात्मक प्रावधान नहीं होंगे, लेकिन राष्ट्र के खिलाफ कोई भी गतिविधि दंडनीय होगी। धारा-377 को पूर्ण रूप से हटाकर समलैंगिकता व सहमति या गैर-सहमति से हुए अप्राकृतिक संबंधों को वैध घोषित कर दिया जाएगा। शादी, रोजगार, प्रमोशन, झूठी पहचान आदि के झूठे वादे के आधार पर यौन संबंध बनाना अपराध होगा। गैंगरेप के लिए 20 साल की कैद या आजीवन जेल की सजा होगी। नस्ल, जाति, समुदाय आदि के आधार पर पांच या अधिक लोगों द्वारा मॉब लिंचिंग के लिए न्यूनतम सात साल की कैद या आजीवन कैद या मृत्युदंड की सजा होगी। बच्चों को अपराध में शामिल करने पर कम से कम 7-10 साल की सजा होगी। चोरी, सेंध लगाने जैसे कम गंभीर मामलों में संक्षिप्त सुनवाई यानी समरी ट्रायल अनिवार्य कर दिया गया है। पहली बार छोटे-मोटे अपराधों (नशे में हंगामा, 5 हज़ार से कम की चोरी) के लिए 24 घंटे की सज़ा या एक हज़ार रुपये जुर्माना या सामुदायिक सेवा करने की सज़ा हो सकती है। अभी ऐसे अपराधों पर जेल भेजा जाता है। अमेरिका, ब्रिटेन में ऐसे ही कानून हैं।

चूंकि आज नई तकनीकों का इस्तेमाल बढ़ा है। इसे देखते हुए साक्ष्य अधिनियम में बड़े बदलाव होंगे। अब 'दस्तावेज़' का मतलब इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल रिकॉर्ड, ईमेल, सर्वर लॉग, कंप्यूटर में फाइलें, स्मार्टफोन/लैपटॉप संदेश; वेबसाइट, लोकेशन डाटा; डिजिटल उपकरणों पर मेल संदेश शामिल हो जाएंगे। एफआईआर, केस डायरी, चार्जशीट व फैसलों का डिजिटलीकरण ज़रूरी कर दिया गया है। इसमें सम्मन और वॉरंट जारी करना, तामील करना, शिकायतकर्ता और गवाहों की जांच, साक्ष्य की रिकॉर्डिंग, मुकदमेबाजी और सभी अपीलीय कार्यवाही शामिल हैं। थानों व अदालतों में ईमेल के रजिस्टर होंगे। पुलिस की ओर से किसी भी संपत्ति की तलाशी व ज़ब्ती अभियान की वीडियो रिकॉर्डिंग आवश्यक होगी। रिकॉर्डिंग बिना किसी देरी के संबंधित मजिस्ट्रेट को भेजी जाएगी। अब नागरिक देश में कहीं भी एफआईआर दर्ज करवा सकेंगे। इसमें संबंधित धाराएं भी जुड़ेंगी। अब तक ज़ीरो एफआईआर में धाराएं नहीं जुड़ती थीं। 15 दिन में ज़ीरो एफआईआर, संबंधित थाने को भेजनी होगी। हर जिले में पुलिस अधिकारी, गिरफ्तारी से पहले परिवार को प्रमाण पत्र देगा कि वे गिरफ्तार व्यक्ति के लिए जिम्मेदार हैं। जानकारी ऑनलाइन व व्यक्तिगत देनी होगी। एफआईआर से फैसले तक स​ब ऑनलाइन, डिजिटल रिकॉर्ड्स को वैधता देने से लेकर, कोर्ट के फैसले तक पूरा सिस्टम डिजिटल व पेपरलेस होगा। सर्च व ज़ब्ती की वीडियो ग्राफी होगी। जांच फोरेंसिक विज्ञान पर आधारित होगी।

गृह मंत्री अमित शाह ने इस मानसून सत्र के दौरान 11 अगस्त को लोकसभा में 163 साल पुराने आईपीसी, सीआरपीसी व एविडेंस एक्ट; में बदलाव के लिए तीन बिल पेश किए हैं। नए विधेयकों के मुताबिक, आईपीसी में 511 धाराएं हैं, जो अब 356 ही बचेंगी। 175 धाराओं में परिवर्तन किया गया है। 8 नई धाराएं जोड़ी जाएंगी, 22 धाराएं खत्म होंगी। इसी तरह सीआरपीसी में 533 धाराएं बचेंगी। 160 धाराएं बदलेंगी, 9 नई जुड़ेंगी, 9 खत्म होंगी। पूछताछ, इनक्वायरी से ट्रायल तक वीडियो कॉन्फ्रेंस से करने का प्रावधान होगा, जो पहले नहीं था। अब ट्रायल कोर्ट को हर फैसला अधिकतम 3 साल में देना होगा। अब 180 दिन में चार्जशीट, ट्रायल के बाद 30 दिन में फैसला, पुलिस को 60 दिन में आरोप पत्र दाखिल करना होगा। कोर्ट इसे 90 दिन बढ़ा सकेगी। फैसला एक सप्ताह के भीतर ऑनलाइन अपलोड करना होगा। सभी अदालतें 2027 तक कंप्यूटरीकृत होंगी।

सरकारें सजा में छूट का सियासी इस्तेमाल ना कर सके, इसलिए अब मौत की सजा, सिर्फ आजीवन कारावास और आजीवन कारावास को 7 साल तक की सज़ा में बदला जा सकेगा। चुनाव में मतदाता को रिश्वत देने पर एक साल की कैद की सजा होगी। पहली बार अपराध करने वाले व्यक्ति को कुल कारावास का एक-तिहाई समय जेल में बिताने पर ज़मानत दे दी जाएगी। 'फरार' घोषित अपराधी के बगैर भी मुकद्दमा चल सकेगा। इससे जघन्य अपराधियों के ट्रायल संभव होंगे। सिविल सर्वेंट्स पर मुकदमा चलाने के लिए 120 दिन के भीतर अनुमति देनी होगी। तीनों बिलों को संसद की स्थाई कमेटी के पास भेजा गया है। अभी इन बिलों की कानूनी यात्रा लंबी है, पर यह औपनिवेशिक गुलामी के अंत की यात्रा है। सारांशार्थ यह कहना उचित होगा कि प्रजातंत्र में सिविल या फौजदारी कानून, जनता के अधिकारों व 'सिविल चार्टर' के रूप में होना चाहिए। यद्यपि कि समय-समय पर आईपीसी, सीआरपीसी, एविडेंस एक्ट में कुछ संशोधन हुए हैं, परन्तु अभी तक ये उपनिवेशवादी कानून, मानवाधिकारों का हनन व शोषण कर रहे थे। ये नव समावेशी कानून, आज़ादी के अमृत-काल में, संविधान के अनुसार, मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए प्रशंसनीय व प्रोग्रेसिव निर्णय है।

(लेखिका- प्रो. नीलम महाजन सिंह वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक, सॉलिसिटर फॉर ह्यूमन राइट्स संरक्षण व परोपकारक हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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