डॉ. ऐश्वर्या झा का लेख : समानता-सुरक्षा के प्रश्न शेष

शताब्दियों से स्त्री विचार के केंद्र में रही है। स्त्री सशक्तीकरण, स्त्री विमर्श, स्त्रीत्ववाद पता नहीं स्त्री सम्बंधित कितने चिंतन। प्रश्न यह उठता है कि इन विमर्शों से समाज में आधी आबादी को समुचित स्त्री अधिकार,सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में परिवर्तन, राजनीतिक भागीदारी मिली या ये सिर्फ बहसों और नारों तक ही सीमित रहा है। हाल के कुछ दशक में महिलाएं सफलता, उन्नति, और विकास की नई ऊँचाई की ओर तेजी से अग्रसर हुई हैं। 21 वीं सदी की वैश्विक व्यवस्था में बदलाव की गति तीव्र है तो स्त्री विमर्श, बहसों और नारों में अपेक्षित बदलाव की आवश्यकता है। समय के अनुरूप स्त्री विमर्श के केंद्र में बदलाव होना चाहिए। आज सती प्रथा, विधवा या बाल विवाह विमर्श के विषय नहीं रहे। अब समानता, संसाधन आवंटन में भागीदारी एवं लिंग-उत्तरदायी समावेशी विकास आदि बिंदु विमर्श के केंद्र में हैं। विश्व भर में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के माध्यम से समाज में महिला सशक्तीकरण, जागरुकता और समान अधिकार को बढ़ावा, उनके विकास की प्रतिबद्धता दोहराने एवं महिलाओं को आभार प्रकट करने का दिन होता है। 21 वीं सदी में महिलाओं की भलाई तभी हो सकती है जब उनका आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक समावेशन हो, न्याय के क्षेत्र में औपचारिक कानून और अनौपचारिक भेदभाव ना हो एवं व्यक्तिगत समुदाय और सामाजिक स्तरों पर सुरक्षा हो। इन तीन आयामों पर केंद्रित एक सूचकांक जॉर्जटाउन इंस्टीट्यूट फॉर वुमेन, पीस एंड सिक्योरिटी ने द पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ओस्लो के सहयोग से महिला, शांति और सुरक्षा सूचकांक (Woman, Peace and Security Index) के तीसरे संस्करण में के भारत 170 देशों में 140 वें स्थान पर रहा।
अनेकानेक कानून बनाए जाने के बाद भी महिलाओं की स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। आज भी महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक भागीदारी के अवसर समान नहीं हैं। शैक्षिक उपलब्धियों, स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा तथा राजनीतिक सशक्तीकरण के सूचकांकों में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व समुचित अनुपात में नहीं हुआ है। विश्व की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली महिलाएं विश्व के हर कोने में नेतृत्व के स्तर पर कम ही आंकी गई हैं या यूं कहें कि उनकी नेतृत्व क्षमता पहचानी ही नहीं गई है। समाज में शिक्षित,कामकाजी स्त्री ने अपने लिए जरूर एक अलग पहचान बनाई है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिलाओं के पक्ष में बड़ी-बड़ी बातें कहीं जाती हैं। कुछ चर्चित महिलाओं की सफलता की मिसाल देकर लोग यह कहते नहीं थकते कि सशक्तीकरण तेजी से हो रहा है, उनके हाथ में निर्णायक ताकत आ रही है, वे उन सारे क्षेत्रों में सफल हो रही हैं जिन पर अब तक पुरुषों का वर्चस्व रहा है। यह सही है कि देश में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के मुकाबले ज्यादा तेजी से बदली है, लेकिन एक सभ्य समाज में स्वाभिमान व स्वतंत्रता के साथ जीना आज भी स्त्रियों के लिए एक सपना ही है।
संसद में महिलाओं का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व चिंतनीय है। लोकसभा में कुल सांसदों का केवल 14.4 फीसदी एवं राज्यसभा में 10.4 फीसदी हिस्सेदारी है। ये आंकड़े आज तक के सबसे अधिक हैं, किंतु भारत महिला सांसद के प्रतिनिधित्व के मामले में 189 देशों के बीच 142वें पायदान पर है। 1993 में संविधान के तिहत्तरवें -चौहत्तरवें संशोधन द्वारा पंचायतों नगर निकायों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था करना महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम था, अब ये संख्या 45 -50 % पहुंच चुकी है। किंतु दूसरी तरफ़ राजनीतिक पाखंड ये भी है कि सत्ताधीशों ने पंचायत चुनाव में करीब-करीब सभी राज्य में महिला आरक्षण तो लागू कर दिया, किन्तु विधानमंडल व संसद में नहीं लागू किया है।
संसार के चाहे विकसित देश हों या विकाशील देश महिला के प्रति जन्म पूर्व से ही भेदभाव होता है। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव दुनिया में हर जगह प्रचलित है। 193 देशों में से केवल 28 देशों में सरकार की मुखिया या राष्ट्राध्यक्ष महिला हैं। केवल 14 देशों के कैबिनेट में 50 प्रतिशत महिला की भागीदारी है। केवल 5 देशों में 50 प्रतिशत महिला सांसद हैं। वैश्विक स्तर की बात करें तो केवल 26 प्रतिशत महिलाएं सांसद हैं।
इसी तरह, फॉर्च्यून 500 कंपनियों में केवल 47 कंपनी में महिला सीईओ हैं। तमाम दावों के विपरीत महिला सशक्तीकरण अथवा महिला विकास अभी दूर की कौड़ी है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा प्रकाशित ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2022 के अनुसार, भारत की स्थिति निराशाजनक है। 156 देशों में से भारत 135 वें स्थान पर है। दक्षिण एशिया में केवल ईरान (143), पाकिस्तान (145) और अफगानिस्तान (146) का प्रदर्शन भारत से भी खराब है। भारत की स्थिति अपने पडोसी देशों बांग्लादेश (71), नेपाल (96), श्रीलंका (110), मालदीव (117) और भूटान (126) से पीछे है।
वैश्विक स्तर पर सतत विकास लक्ष्य एसडीजी-5 का उद्देश्य महिलाओं और लड़कियों को समान अधिकार, कार्यस्थल पर भेदभाव या किसी और हिंसा सहित भेदभाव के बिना मुक्त रहने के अवसर प्रदान करना है। यह लैंगिक समानता हासिल करने और सभी महिलाओं और लड़कियों को सशक्त बनाने के लिए है। महिला सशक्तीकरण के लिये प्रयासरत यूएन संस्था और संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक मामलों के विभाग ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की है, जो दर्शाती है कि यदि पूर्ण लैंगिक समानता हासिल करने की दिशा में प्रगति की मौजूदा रफ़्तार ही जारी रही, तो इस लक्ष्य को पाने में क़रीब 300 साल लग सकते हैं।
महिला के विरुद्ध लिंग केंद्रित हिंसा बड़ी समस्या है, इन हिंसा को करने वाले महिला के अपने ही होते हैं , ये वही लोग है जो आज उन्हें महिला दिवस पर पार्टी या शुभकामनाये दे रहे होंगे। विश्व भर में हर तीन में से एक 15 साल से अधिक उम्र की महिला, किसी न किसी रूप में हिंसा का शिकार हुई है। संयुक्त राष्ट्र (यू.एन. वूमेन) के आंकड़ों के अनुसार महिलाओं के खिलाफ हिंसा के 74 करोड़ से भी अधिक मामले प्रकाश में आये हैं।
आज दुनिया भर में आधी से अधिक आबादी शहरों में रहती है, लेकिन आज भी शहरी विकास के नीति निर्धारण में महिलाओं के दृष्टिकोण और उसकी ज़रूरतों को कोई ख़ास तवज्जो नहीं दिया जाता है। शहर के जीवन शैली अनुरूप महिलाओं के लिए शौचालय, पानी, स्वास्थ्य और स्वच्छता जैसी बुनियादी सुविधाएं आसानी से सुलभ होनी चाहिए, लेकिन इन संसाधनों में बड़े पैमाने पर लैंगिक असमानताएं दिखती हैं। भारत इस वर्ष जी-20 की अध्यक्षता कर रहा है, वह लिंग-उत्तरदायी शहरों के निर्माण में एक बड़ी भूमिका निभा सकता है। बीजिंग फ्रेमवर्क में माना गया है कि पुरुषों की भागीदारी इसलिए जरूरी है क्योंकि इसके जरिये ही उन संस्थानों को चुनौती दी जा सकेगी जो पुरुषों को विशेष अधिकार प्रदान करते हैं और यही असमानता खत्म करने का एक प्रमुख साधन बन सकता है।
श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि भारत में कार्यक्षेत्र में व्याप्त लैंगिक असमानता को 25 प्रतिशत कर लिया जाता है तो इससे देश की जी, डी.पी. में एक ट्रिलियन डॉलर तक वृद्धि हो सकती है।इस अंतर को कम करने के लिए परिवार से संसद तक, विद्यालय से न्यायालय तक नीति निर्माताओं एवं समाज को बहुत से काम करने होंगे।
वैदिक युग से लेकर आधुनिक काल तक भारत में महिलाओं की स्थिति में युगानुरूप उतार-चढ़ाव आते रहे हैं तथा उनके अधिकारों में तदनरूप बदलाव भी होते रहे हैं। महिला संरक्षण कानूनों की सफलता, परिवार में महिलाओं के स्थिति, राजनीति में भागीदारी, शिक्षा का स्तर, स्वास्थ्य की स्थिति, निर्णयकारी निकायों में प्रतिनिधित्व, संपत्ति तक पहुँच, इंटरनेट एवं मोबाइल यूजर की संख्या आदि कुछ संकेतक आज भी ये इंगित करते हैं कि महिला सशक्तीकरण अभी भी बड़ी चुनौती है। जेंडर सेंसीटिव डेवेलपमेंट अर्थात लिंग-उत्तरदायी विकास एवं लैंगिक असमानता अंतर को कम करने के लिए परिवार से संसद तक, विद्यालय से न्यायालय तक नीति निर्माताओं एवं समाज तीव्र गति से साझा प्रयास काम करने होंगे।
(लेखिका स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज, डीयू के हिंदी विभाग में सहायक आचार्य हैं, ये उनके अपने विचार हैं।) लेख पर अपनी प्रतिक्रिया [email protected] पर दे सकते हैं।
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