आंदोलन का सार, सहमति से हों कृषि क्षेत्र में सुधार

Haribhoomi Editorial : देर आए, दुरुस्त आए। 378 दिनों के लंबे आंदोलन के बाद किसान संगठनों ने राजधानी दिल्ली की सीमाएं खाली करने का ऐलान कर दिया। सात में से छह मांगों पर सरकार से सहमति के बाद आंदोलन की अगुआई करने वाले पंजाब के 32 किसान संगठनों ने अपने कार्यक्रम का ऐलान भी कर दिया, जिसमें 11 दिसंबर को दिल्ली से पंजाब के लिए फतेह मार्च होगा। सिंघु और टिकरी बॉर्डर से किसान एक साथ पंजाब के लिए वापस रवाना होंगे। 13 दिसंबर को पंजाब के 32 संगठनों के नेता अमृतसर स्थित श्री दरबार साहिब में मत्था टेकेंगे। उसके बाद 15 दिसंबर को पंजाब में 113 जगहों पर लगे मोर्चे खत्म कर दिए जाएंगे। हरियाणा के 28 किसान संगठन भी अलग से रणनीति बना चुके हैं। उन्होंने भी आंदोलन खत्म करके घर लौटने की घोषणा कर दी है। इसके साथ ही किसानों ने बार्डर पर बनाए गए पक्के मोर्चे तोड़ने शुरू कर दिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गुरु पर्व के मौके पर तीनों कृषि कानून वापस लेने का ऐलान करने के बाद से आंदोलन की समाप्त की चर्चाएं शुरू हो गई थी, लेकिन किसान संगठन अपनी कई अन्य मांगों पर अड़े हुए थे। पिछले तीन दिनों से सरकार और किसान नेताओं की लंबी बातचीत के बाद इन पर सहमति बन पाई। किसानों की सबसे बड़ी मांग फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर केंद्र सरकार कमेटी बनाएगी, जिसमें संयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधि लिए जाएंगे। अभी जिन फसलों पर एमएसपी मिल रही है, वह जारी रहेगी।
एमएसपी पर जितनी खरीद होती है, उसे भी कम नहीं किया जाएगा। आंदोलन के दौरान दर्ज किए गए पुलिस केसों पर भी सहमति बन गई है। हरियाणा और उत्तर प्रदेश सरकार केस वापसी पर सहमत हो गई हैं। दिल्ली और अन्य केंद्रशासित प्रदेशों के साथ रेलवे द्वारा दर्ज केस भी तत्काल वापस होंगे। प्रदूषण कानून को लेकर किसानों को सेक्शन 15 से आपत्ति थी, जिसमें किसानों को कैद नहीं, जुर्माने का प्रावधान है। इसे केंद्र सरकार हटाएगी। बिजली संशोधन बिल को सरकार सीधे संसद में नहीं ले जाएगी। पहले उस पर किसानों के अलावा सभी संबंधित पक्षों से चर्चा होगी। मुआवजे पर भी सहमति बन गई है। पंजाब सरकार की तरह यहां भी 5 लाख का मुआवजा दिया जाएगा। किसान आंदोलन में 700 से ज्यादा किसानों की मौत हुई है। आंदोलन खत्म होने से पूरे देश ने राहत की सांस ली है। किसान के राजधानी की सीमाओं पर डटे होने के कारण दिल्ली आने-जाने वालों को तो परेशानी का सामना करना ही पड़ रहा है, सीमाओं पर स्थित लगभग नौ हजार उद्योग भी चौपट हो गए थे और इनमें काम करने वाले लाखों श्रमिकों के सामने रोजी-रोजी का संकट पैदा हो गया था। अब सब पहले की तरह सामान्य हो जाएगा, लेकिन यह शांतिपूर्वक विरोध कई सबक भी दे गया।
पहला तो यह कि कारण चाहे जो भी हो, एक लोकतांत्रिक देश में जनता के वोटों से चुनी सरकार और जनता के किसी समूह के बीच ऐसा अविश्वास नहीं होना चाहिए। ऐसे अविश्वास की जड़ में संवादहीनता होती है। इस लिहाज से देखा जाए तो किसान आंदोलन की महत्वपूर्ण सकारात्मक भूमिका बनती है। एक साल तक चले इस आंदोलन ने उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से के किसानों को उनके नेताओं से जोड़ा है। अब यह नेतृत्व सरकार के साथ संवाद बनाए रखते हुए सरकार और किसानों के बीच पुल का काम कर सकता है। आम किसानों के बीच सहमति बनाए बगैर तीन कृषि कानून लाने का नतीजा यह हुआ कि कृषि क्षेत्र में सुधार की कोशिश नाकाम हो गई, लेकिन इस नाकामी से कृषि में सुधार की जरूरत कम नहीं हुई है। इससे आंखें मूंदना किसी के लिए भी हितकर नहीं होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि बदले हालात में सभी पक्ष खुले दिमाग से बातचीत की प्रक्रिया जारी रखते हुए आपसी सहमति की ठोस जमीन तैयार करेंगे और फिर कृषि क्षेत्र में सुधार का वही एजेंडा आगे बढ़ाया जाएगा।
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