प्रमोद भार्गव का लेख : एमएसपी की घोषणा की उम्मीद

प्रमोद भार्गव
धूमिल की एक बड़ी प्रसिद्ध कविता है, एक आदमी रोटी बेलता है, एक आदमी रोटी खाता है, एक तीसरा आदमी भी है, जो न रोटी बेलता है न रोटी खाता है, वह सिर्फ रोटी से खेलता है, मैं पूछता हूं- यह तीसरा आदमी कौन है? मेरे देश की संसद मौन है। यह कविता अस्तित्व में आए तीनों कृषि कानून, उनका हुआ विरोध और फिर मजबूरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा विवादित कानूनों की वापसी के ऐलान पर खरी उतरती है। एक साल से धरने पर बैठे हलधरों के हठ की यह नैतिक जीत है। इससे यह साबित हुआ कि अहिंसक आंदोलन सत्ता को झुकाने में आज भी सफल है।
ऐसा नहीं था कि ये कानून सर्वथा निरर्थक थे। हकीकत में छोटे और मझोले किसानों का ये कानून हित साधने वाले थे, किंतु सस्ती राजनीति की भेंट चढ़ गए। ऐसा भी नहीं था ये कानून बड़े व्यापारियों को लाभ देने की दृष्टि से लाए गए थे? अलबत्ता ये उस भूमंडलीकरण का भी दुष्परिणाम है, जो आर्थिक उदारवाद की देन है। विश्व व्यापार संगठन(डब्ल्यूटीओ) से हुआ कृषि अनुबंध भी इन कानूनों को बनाने की शर्तों में शामिल है, इसलिए मनमोहन सिंह सरकार भी इन्हें लाना चाहती थी। इसकी शर्तों में खेती-किसानी से जुड़े व्यापार को मुक्त करना और कृषि सब्सिडी खत्म करना भी शामिल है। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) इसी सब्सिडी का हिस्सा है, जिसे कृषि क्षेत्र में संरक्षणवादी नीति माना जाता है। वैश्विकीकरण हर प्रकार की संरक्षणवादी नीतियों के विरोध में तो है, लेकिन खुद अमेरिका अपने किसानों को बड़ी मात्रा में सब्सिडी देता है, तब डब्ल्यूटीओ मुंह सिल लेता है। जो राहुल गांधी इन कानूनों को किसान विरोधी बता रहे थे, वही इन कृषि सुधारों को 2012 में मनमोहन सिंह सरकार के रहते हुए लागू करना चाहते थे, किंतु विपक्ष के विरोध के चलते यह संभव नहीं हुआ। जो वामपंथी दल पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम और सिंगूर में किसानों की जमीन अधिग्रहण कर सेज और टाटा की नैनो के लिए हिंसा पर उतर आए थे, वही किसान हितों का ढोंग करने लग गए।
एनसीपी नेता शरद पवार वही नेता हैं, जिनके केंद्रीय कृषि मंत्री रहते किसानों ने सबसे ज्यादा आत्महत्याएं की। महाराष्ट्र में चीनी मिल कभी भी किसान से गन्ना खरीद का पूरा भुगतान नहीं करते हैं। इनमें से ज्यादातर मिल शरद पवार और उनकी कंपनियों के हैं। साफ है, ये दल किसान संगठनों में फूंक मारकर केवल अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करना चाहते थे, किंतु किसान आंदोलन और अब मोदी के कानूनों की वापसी की घोषणा ने इन सभी दलों के मंसूबों पर पानी फेर दिया है। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने सचिव एलके झा के नेतृत्व में 'खाद्य अनाज मूल्य नीति समिति' का गठन किया और किसान हित साधे। दरअसल शास्त्रीजी चाहते थे कि किसानों को फसल बेचकर इतनी धनराशि तो मिले की उनकी आजीविका सरलता से सालभर चल जाए। इसी मकसद पूर्ति के लिए 1966 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय किया गया। तबसे लेकर वर्तमान तक यह व्यवस्था लागू है। प्रधानमंत्री मोदी ने 23 फसलों पर एमएसपी सुनिश्चित किया हुआ है, लेकिन नए कानूनों में इस प्रावधान की गारंटी खत्म कर दी गई थी। इस कारण किसानों को आशंका थी कि कानूनों के अमल में आने के बाद एमएसपी खत्म हो सकती है। हालांकि 2015 में आई संताकुमार समिति की रिपोर्ट पर गौर करें तो बमुश्किल छह प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिलता है। इसके बावजूद इस प्रावधान का बने रहना जरूरी है। अतएव किसानों को आशंका थी कि वे निजी मंडियों के मालिकों के जाल में फंसते चले जाएंगे। सरकारी मंडियां बंद होती चली जाएंगी। यह आशंका उचित थी। हालांकि निजी मंडियां अस्तित्व में नहीं होने के बावजूद 65 फीसदी किसान स्थानीय एवं निजी व्यापारियों को ही फसल बेचते हैं। महज 25 प्रतिशत किसान ही सरकारी मंडियों में फसल बेचते हैं।
इस लिहाज से यह बात समझ से परे है कि आखिर निजी मंडियों के प्रावधान की कानून में जरूरत ही क्या थी? नए कानून में किसानों की जमीन पर उद्योगपतियों से करार करके अनुबंध खेती की व्यवस्था की गई थी। हालांकि किसान की जमीन पर किसी भी प्रकार का ऋण अथवा मालिकाना हक व्यापारी को नहीं मिलने के प्रावधान थे। जमीन का अनुबंध ऐसा पेंच है कि उलझ जाए तो सुलझना मुश्किल होता है। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी को गुरु पर्व के दिन यह कहते हुए, 'मैं आज देशवासियों से क्षमा मांगते हुए सच्चे मन से और पवित्र हृदय से यह कहना चाहता हूं कि शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रही होगी, जिसके कारण कुछ किसान भाइयों को हम नहीं समझा पाए।' प्रधानमंत्री द्वारा कहा यह तथ्य भी सत्य हो सकता है, लेकिन लोकतंत्र में दल और नेताओं के झुकने के परोक्ष कारणों में ज्यादातर राजनीतिक मजबूरियां ही होती हैं। अतएव कानून वापसी के प्रमुख कारणों में उत्तर-प्रदेश और पंजाब के विधानसभा चुनाव हैं। दरअसल राम मंदिर, तीन तलाक और अनुच्छेद-370 की समाप्ति से मोदी के पक्ष में जो माहौल बना था, वह किसान आंदोलन ने खत्म कर दिया। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने उत्तर-प्रदेश में चुनावी आंकलन किया तो पता चला कि निचले स्तर पर किसान आंदोलन का असर केवल पश्चिमी उत्तर-प्रदेश की जाट-गुर्जर बहुल क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसका असर पूरे प्रदेश में है। लिहाजा कानून वापसी की चाल चलकर फिलहाल मोदी एक कदम पीछे हटते तो दिख रहे हैं, लेकिन वास्तव में वे दो कदम आगे बढ़ रहे हैं। इस चाल ने चुनावी संग्राम के पहले ही विपक्ष से वह मुद्दा छीन लिया, जो भाजपा की हार का कारण बन सकता था। यह संभावना भी बढ़ गई है कि संसद से कृषि कानूनों की वैधानिक निरस्ती के बाद अकाली दल भी भाजपा के साथ आ सकता है। ये तीन दल एक साथ पंजाब में खड़े हो जाते हैं तो कांग्रेस और आप के सभी समीकरण बिगड़ जाएंगे। पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल आंदोलन के चलते मजबूत दिख रहा था, लेकिन अब यदि रालोद को अपना वर्चस्व बनाए रखना है तो भाजपा की शरण में जाना जरूरी हो जाएगा।
इस क्रम में मोदी नई चाल चलते हुए एमएसपी को वैधानिकता देने की घोषणा भी कर सकते हैं। फिलहाल एमएसपी तय करने के तरीके में सरकार 'ए-2' फॉमूर्ला अपनाती है। यानी फसल उपजाने की लागत में केवल बीज, खाद, सिंचाई और परिवार के श्रम का मूल्य जोड़ा जाता है। इसके अनुसार जो लागत बैठती है, उसमें 50 फीसदी धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य तय कर दिया जाता है, जबकि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश है कि इस उत्पादन लागत में कृषि भूमि का किराया भी जोड़ा जाए। इसके बाद सरकार द्वारा दी जाने वाली 50 प्रतिशत धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य सुनिश्चित किया जाना चाहिए। फसल का अंतरराष्ट्रीय भाव तय करने का मानक भी यही है। यदि भविष्य में ये मानक तय कर दिए जाते हैं तो किसान की पूर्ण संतुष्टि तो होगी ही, उनकी खुशहाली के स्थाई उपाय भी हो जाएंगे। एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय आयोग ने भी वर्ष 2006 में यही युक्ति सुझाई थी। इस सिलसिले में सरकार किसानों को जो वार्षिक छह हजार रुपये की राशि और अन्य सुविधाएं दे रही है, उन्हें खत्म करके इस उपाय की भरपाई कर सकती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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