कृष्ण प्रताप सिंह का लेख : प्रकृति प्रेम और परिवर्तन का पर्व

कृष्ण प्रताप सिंह का लेख : प्रकृति प्रेम और परिवर्तन का पर्व
X
सूर्यदेव इसी दिन मकर राशि में प्रवेश के करते हैं, इसलिए इस पर्व को मकर संक्रांति कहा जाता है। देश के कई अंचलों में किसान इस पर्व के आते ही मौसम के बदलाव को लेकर आश्वस्त हो जाते हैं। यह उन्हें शिशिर ऋतु के समापन और बसंत के आगमन की सूचना भी देता है। इस पर्व के कई सामाजिक-सांस्कृतिक आयाम हैं और इसकी छाप कई पहलुओं से अन्य पर्वों से गहरी है। मिसाल के तौर पर अन्य पर्वों का प्रायः धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व ही हुआ करता है, लेकिन मकर संक्रांति का ज्योतिषीय महत्व भी है। आपसी सौहार्द व सौजन्य बढ़ाने के प्रयत्न किये जाते हैं, जिससे यह सांस्कृतिक विविधता, प्रकृति प्रेम का पर्व बन गया है।

कहीं बिहू, कहीं लोहड़ी, कहीं पाेंगल तो कहीं उत्तरायण। कहीं खिचड़ी भोज, कहीं दही-चूड़ा की मौज, कहीं तिल-गुड के लड्डुओं का भोग तो कहीं डोर थामकर पतंग उड़ाने की उमंग। मकर संक्रांति के पर्व के जैसे अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग नाम हैं, वैसे ही मनाने के तौर-तरीके भी। इस रूप में देखें तो हमारी सांस्कृतिक विविधता का इस जैसा प्रतिनिधित्व शायद ही कोई और पर्व करता हो! मकर संक्रांति सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के कारण इसे संक्रमण काल भी कहा जाता है। इस दिन सूर्य उत्तरायण हो जाता है। मकर संक्रांति देशभर के अलावा नेपाल में भी मनाया जाता है।

इसे यों भी समझ सकते हैं कि नाम व मनाने के तरीके भिन्न होने के बावजूद यह देश के उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक प्रकृति से साहचर्य, उमंग, उत्साह, उत्कर्ष व परिवर्तन का ही पर्व है-हां, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ यानी अंधेरे से उजाले की ओर यात्रा और शुभ कर्मों के संकल्प व आरंभ का भी और ऐसी यात्राओं व शुभकर्मों के मार्गदर्शकाें, संगी-साथियों व सहयोगियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का। दूसरे शब्दों में कहें तो यह पर्व हमारी उस मनुष्य सुलभ जिजीविषा की प्रेरणा है, जिसके तहत हम अपने जीवन की परिस्थितियों को सम्यक यानी अपने अनुकूल बनाने की अभिलाषा पूरी करने की दिशा में प्रवृत्त होते हैं। हाल के दशकों में इससे एक और अच्छी बात यह भी आ जुड़ी है कि कई अंचलों में इस अवसर पर खिचड़ी भोज आयोजित कर जातियों व धर्मों के भेदभावों को नकारने व आपसी सौहार्द व सौजन्य बढ़ाने के प्रयत्न किये जाते हैं, जिससे यह सौहार्द व सौजन्य के पर्व का रूप भी धारण करने लगा है।

प्राकृतिक सुषमा से भरपूर और उसके प्रति प्रेम व कृतज्ञता के प्रदर्शन में अपना सानी न रखने वाले झारखंड में तो यह टुसू, सांझी लोहड़ी और यीसु बुलाहट आदि के साथ मिलकर कई संस्कृतियों के सम्मिलन का पर्व भी बन जाता है, इसलिए वहां कोल्हान में सात तो खोरठा में चार दिनों तक मकर संक्रांति मनाई जाती है। राज्य के खड़िया समुदाय के लोग इस दिन धांगड़ यानी मजदूरों के पांवों की पूजा करते हैं तो उरांव समुदाय में इसे अतिथि सत्कार के मौसम के आगाज के पर्व के रूप में लिया जाता है।

महाराष्ट्र और गुजरात में इस पर्व पर सारी कटुताएं भुला देने पर जोर दिया जाता है। पर्व मनाने वाले एक दूसरे को तिल और गुड़ के लड्डू प्रदान कर कहते हैं, ‘लो, तिल-गुड़ खाओ और मीठा-मीठा बोलो।’ दिल्ली और पंजाब में शाम को लोहड़ी जलाने की भी परम्परा है।

जाहिर है कि इस पर्व के कई सामाजिक-सांस्कृतिक आयाम हैं और इसकी छाप कई पहलुओं से अन्य पर्वों से गहरी है। मिसाल के तौर पर अन्य पर्वों का प्रायः धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व ही हुआ करता है, लेकिन मकर संक्रांति का ज्योतिषीय महत्व भी है। अन्य पर्वों की तिथियां जहां पंचागों की चंद्रमा की गति के आधार पर की गई गणना से निर्धारित की जाती हैं, इस पर्व की तिथि सूर्य की गति पर आधारित गणना से तय की जाती है, जो अपवादों को छोड़ दें तो आम तौर पर 14 जनवरी को ही पड़ती है।

ज्योतिषी बताते हैं कि सूर्यदेव इसी तिथि को धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते हैं। इस प्रवेश को उनके दक्षिणायन से उत्तरायण होने के रूप में तो देखा ही जाता है, देवताओं के दिन के आरंभ के रूप में भी देखा जाता है। यों, हर माह में एक संक्रांति आती है, लेकिन हर संक्रांति पर सूर्यदेव के आयन नहीं बदलते यानी वे उत्तरायण से दक्षिणायन या दक्षिणायन से उत्तरायण नहीं आते जाते, इसलिए उन संक्रांतियों का मकर संक्रांति जैसा महत्व नहीं होता। सूर्यदेव के दक्षिणायन से उत्तरायण जाने को इसलिए भी महत्व दिया जाता है क्योंकि जब तक वे दक्षिणायन में रहते हैं, देवताओं की रात की सुबह नहीं होती। छांदोग्योपनिषद के अनुसार सूर्य के दक्षिणायन के छह महीने अंधेरे के तो उत्तरायण के बाद के छह महीने प्रकाश के होते हैं। ऐसा माना जाता है कि सालभर में जो संक्रांति आती हैं उन सभी बारह संक्रांतियों में मकर संक्रांति का सबसे अधिक महत्व है।

महाभारत की कथा के अनुसार उस महायुद्ध के दसवें दिन पितामह भीष्म कुरुक्षेत्र के मैदान में शिखंडी को ढाल बनाकर अर्जुन द्वारा बरसाए गए बाणों से विद्ध होकर शर-शैया पर लेटे तो सूर्यदेव दक्षिणायन में थे। इस कारण देवताओं की रात थी और उस दौरान प्राण त्यागने पर पितामह का स्वर्गारोहण या मोक्ष संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने अपने पिता शांतनु से प्राप्त इच्छामृत्यु के वरदान का उपयोग कर सूर्य के उत्तरायण यानी मकर राशि में प्रवेश करने तक शरों की शैया पर ही लेटे रहने का निश्चय किया और युद्ध की समाप्ति के आठ दिन बाद मृत्यु का वरण किया।

जैसा कि बता आए हैं, चूंकि सूर्यदेव इसी दिन मकर राशि में प्रवेश के करते हैं, इसलिए इस पर्व का एक नाम मकर संक्रांति भी है। देश के कई अंचलों में किसान इस पर्व के आते ही मौसम के बदलाव को लेकर आश्वस्त हो जाते हैं। यह उन्हें शिशिर ऋतु के समापन और बसंत के आगमन की सूचना भी देता है। इसकी भी कि अब दिन लगातार लंबे होते जाएंगे और रातें क्रमशः छोटी होने लगेंगी। कई प्रदेशों में यह नई फसलों के कटाई के लिए तैयार होने का सूचक पर्व भी है।

मकर संक्रांति के अवसर पर गंगास्नान एवं गंगातट पर दान को अत्यन्त शुभ माना गया है। तीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर में स्नान को महास्नान माना जाता है। गंगासागर के संगम पर श्रद्धालु समुद्र को नारियल और यज्ञोपवीत भेंट करते हैं। समुद्र में पूजन एवं पिण्डदान कर पितरों को जल अर्पित करते हैं। गंगासागर में स्नान-दान का महत्व शास्त्रों में विस्तार से बताया गया है। अकारण नहीं कि हर मकर संक्रांति पर देश की विभिन्न नदियों में स्नान कर सूर्य को पिता स्वरूप मानकर नमस्कार किया जाता और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है।ऐसा भी माना जाता है कि है कि मकर संक्रान्ति पर स्नान से मोक्ष प्राप्त होता है। जानकार बताते हैं कि सूर्य के प्रति कृतज्ञता की यह परम्परा बिलकुल वैसी ही है जैसी धरती को माता मानकर आदर देने की। अब यह तो कोई बताने की बात ही नहीं कि हमारे सौरमंडल में सूर्य की स्थिति सबके पिता जैसी ही है। तभी तो सारे ग्रह-नक्षत्र निरंतर उनकी परिक्रमा किया करते हैं। उन्हें नमस्कार करना सच पूछिये तो उनकी उस अतुलनीय क्षमता को नमन करना है, जिसकी वजह से हम सबका, दूसरे शब्दों में कहें तो इस समूची सृष्टि का अस्तित्व है।

(ये लेखक कृष्ण प्रताप सिंह के अपने विचार हैं।)

Tags

Next Story