सुशील राजेश का लेख : राज्यपाल ‘संवैधानिक वीटो’ नहीं

सुशील राजेश का लेख : राज्यपाल ‘संवैधानिक वीटो’ नहीं
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दिलचस्प यह है कि 1951-52 में देश के पहले आम चुनाव के बाद राज्यपालों के जो हस्तक्षेप सामने आए, वे कांग्रेसवादी थे। उन निर्णयों में प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू और गृहमंत्री सरदार पटेल खामोश रहे। तब 1953 में तत्कालीन राज्य पेप्सू (पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ) में ज्ञानसिंह रारेवाला की सरकार को बर्खास्त किया गया, क्योंकि वह गैर-कांग्रेसी सरकार थी। राज्यपालों के ‘असंवैधानिक’ हस्तक्षेप और व्यवहार का जो सिलसिला आरंभ हुआ, उसका लंबा इतिहास है, लेकिन वह आज भी जारी है। तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि, केरल के राज्यपाल आरिफ मुहम्मद खान, पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित, ने संवैधानिक भूमिकाओं की तमाम हदें पार की हैं।

सर्वोच्च अदालत ने राज्यपालों की भूमिका और सियासत पर पहली बार ही टिप्पणी नहीं की है। अदालत का साफ कहना है कि राज्यपाल ही सर्वेसर्वा नहीं हैं। वे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं हैं। राष्ट्रपति ने कैबिनेट की सिफारिश पर उन्हें नियुक्त किया है। सिर्फ यही उनकी संवैधानिक हैसियत है। वे लोकतंत्र में निर्वाचित विधानमंडल पर ‘वीटो’ नहीं कर सकते। वे विधानसभा सत्र को ‘अवैध’ करार नहीं दे सकते। यदि विधानसभा सत्र अवैध है, तो फिर संसदीय लोकतंत्र ही खतरे में है। देश के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने तमिलनाडु के राज्यपाल पर सवाल किया है कि वह तीन साल से क्या कर रहे थे? पंजाब के राज्यपाल पर टिप्पणी की है कि क्या उन्हें अंदेशा है कि वह आग से खेल रहे हैं! दरअसल सर्वोच्च अदालत को ये तल्ख और नाराज़ टिप्पणियां इसलिए करनी पड़ी हैं, क्योंकि राज्यपाल अनिश्चित रूप से, विधानसभा में चुने हुए जन-प्रतिनिधियों द्वारा, पारित विधेयकों पर कुंडली मारे बैठे रहते हैं और फिर अचानक उन्हें खारिज कर लौटा देते हैं। ये सभी विवादित राज्यपाल ‘पार्टी विशेष’ से हैं और केंद्र की मोदी सरकार की सिफारिश पर नियुक्त किए गए हैं। अदालत की न्यायिक पीठों ने तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, पंजाब आदि राज्यों के राज्यपालों की भूमिका को संविधान-सम्मत नहीं माना है। तो राज्यपालों के कथित अड़ियल और सियासी व्यवहार का समाधान क्या है?

संविधान का दिन

आज 26 नवम्बर है। 1949 में इसी तारीख पर संविधान सभा ने ‘स्वतंत्र भारत के संविधान’ को बुनियादी स्वीकृति दी थी। यहीं से भारत के संसदीय लोकतंत्र की यात्रा आरंभ होती है। इसे हम ‘संविधान दिवस’ के तौर पर मनाते हैं। संविधान को 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया, लिहाजा उस दिन देश ‘गणतंत्र दिवस’ मनाता है। संविधान सभा के दौरान राज्यपाल की नियुक्ति और भूमिका पर व्यापक बहस हुई थी। सरदार पटेल ‘निर्वाचित राज्यपाल’ के पक्ष में थे। इस मुद्दे पर प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर डाॅ. भीमराव अंबेडकर, बी.दास, कृष्णास्वामी अय्यर, प्रो. केटी शाह, बीएन राव, एनएन मुखर्जी, हृदयनाथ कुंजरू सरीखे संविधानविद् ‘निर्वाचित राज्यपाल’ के पक्षधर नहीं थे। उनकी आशंका थी कि राज्य में नेतृत्व के दो ध्रुव बन जाएंगे। राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच हितों के टकराव सामने आएंगे, लिहाजा नेहरू का विचार मान लिया गया कि राज्यपाल किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति को ही बनाया जाए और राज्य के मुख्यमंत्री के परामर्श से ही उनकी नियुक्ति की जाए। विसंगतियां और विरोधाभास यहीं से शुरू होते हैं। यह प्रावधान भी किया गया था कि जिसे राज्यपाल नियुक्त किया जाए, वह कमोबेश 2-3 साल पहले तक राज्य की सक्रिय राजनीति का भागीदार न हो। अब इसी संवैधानिक व्यवस्था का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है, क्योंकि लगभग सभी राज्यपाल भाजपा अथवा संघ परिवार के सदस्यों को ही बनाया जा रहा है। कुछ अपवाद होंगे, तो वे भी भाजपा-संघ द्वारा समर्थित होंगे। इस तरह हमारा नेतृत्व ही संविधान का मज़ाक उड़ा रहा है। आज संविधान दिवस पर इसकी भावना के खिलाफ हो रहे ‘सियासी खेल’ पर विस्तार से चर्चा करना समीचीन है।

ब्रिटिश हुकूमत के दौरान उत्पत्ति

राज्यपाल अथवा गवर्नर जनरल की उत्पत्ति ब्रिटिश हुकूमत के दौरान ही हुई, लेकिन भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने इस व्यवस्था को ठोस रूप दिया। भारतीय संघ की घोषणा की गई। ‘राज्यपालों के राज्यों’ विषय को ब्रिटिश संविधान के अनुच्छेद 46 में स्थान दिया गया। अनुच्छेद 48 (1) में राज्यपाल की नियुक्ति का उल्लेख था। अनुच्छेद 50 (1) और (2) के तहत राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का जिक्र था, जिनके कारण आज राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच विवाद हैं। अनुच्छेद 88 के तहत राज्यपाल की शक्तियों को विस्तार दिया गया कि यदि विधानसभा सत्र में न हो, तो अध्यादेश के जरिए कार्रवाई की जा सके। अध्यादेश की व्यवस्था भारतीय संविधान में भी है। तब सबसे महत्वपूर्ण प्रावधानों में से अनुच्छेद 93 था, जो राज्यपाल को किसी राज्य के प्रशासन को अपने नियंत्रण में लेने का अधिकार देता था। यहीं से अनुच्छेद 356 की उत्पत्ति हुई। स्वतंत्र भारत में राज्यों के लिए राज्यपाल पद को ‘संवैधानिक प्रमुख’ के रूप में बनाए रखने पर संविधान सभा में आम सहमति थी, लेकिन नियुक्ति की प्रक्रिया के बारे में मतभेद उभरकर सामने आए थे। अनुच्छेद 131 (अब 153) में राज्यपाल पद संबंधी पूर्ण व्याख्या है। अनुच्छेद 155, 157, 158 और 163 आदि में भी राज्यपाल से जुड़े प्रावधान हैं। दिलचस्प यह है कि 1951-52 में देश के पहले आम चुनाव के बाद राज्यपालों के जो हस्तक्षेप सामने आए, वे कांग्रेसवादी थे। उन निर्णयों में प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू और गृहमंत्री सरदार पटेल खामोश रहे और कोई हस्तक्षेप नहीं किया। तब 1953 में तत्कालीन राज्य पेप्सू (पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ) में ज्ञानसिंह रारेवाला की सरकार को बर्खास्त किया गया, क्योंकि वह गैर-कांग्रेसी सरकार थी।

हस्तक्षेप का लंबा इतिहास

राज्यपालों के ‘असंवैधानिक’ हस्तक्षेप और व्यवहार का जो सिलसिला आरंभ हुआ, उसका लंबा इतिहास है, लेकिन वह आज भी जारी है। तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि, केरल के राज्यपाल आरिफ मुहम्मद खान, पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित, तेलंगाना की राज्यपाल तमिलिसाई संुदरराजन ने संवैधानिक भूमिकाओं की तमाम हदें पार कीं, लिहाजा उनके खिलाफ याचिकाएं सर्वोच्च अदालत तक गईं और न्यायाधीशों की सख्त टिप्पणियां सार्वजनिक हुईं। मौजूदा उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ जब पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे, तो उनका मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से टकराव निरंतर बना रहा। धनखड़ ने एक औसत भाजपा कार्यकर्ता की तरह भूमिका निभाई और केंद्र में गृहमंत्री और प्रधानमंत्री से आकर मुलाकातें करते रहे। तब हर रोज़ ऐसा आभास होता था मानो बंगाल में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है।

तमिलनाडु के राज्यपाल रवि ने अपने अधिकारों का अतिक्रमण भी किया। उन्होंने राज्य का नाम ही बदलने का प्रस्ताव रखा और तमिल भाषा, संस्कृति आदि पर सवाल भी उठाए। उन्होंने विधानसभा में अपना संबोधन पूरा नहीं किया, बल्कि कुछ ऐसा भी बयान किया, जो राज्य सरकार द्वारा लिखित अभिभाषण में नहीं था। इसके अलावा, विधानसभा में पारित किए गए 10 बिलों पर कुंडली मार कर बैठे रहे। जब मामला सर्वोच्च अदालत में गया, तो वे बिल लौटा दिए गए। बीती 18 नवम्बर को विधानसभा में उन बिलों को दोबारा पारित किया गया और राज्यपाल की मुहर के लिए उन्हें भेज दिया गया। मुख्यमंत्री एम के स्टालिन का कहना है कि दिन-प्रतिदिन की फाइलों, नियुक्ति आदेशों, भर्ती आदेशों आदि पर भी राज्यपाल नियमित रूप से हस्ताक्षर नहीं करते हैं। भ्रष्टाचार में लिप्त मंत्रियों और विधायकों पर मुकदमा चलाने की स्वीकृति न देकर प्रशासन को ठप करते रहे हैं। क्या ये भी राज्यपाल के विशेषाधिकारों में शामिल है?

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश

केरल के राज्यपाल ने बीते 2-3 सालों से 8 महत्वपूर्ण बिलों को स्वीकृति नहीं दी है। अब सर्वोच्च अदालत ने उन्हें निर्देश दिए हैं कि वह पंजाब के संदर्भ में दिए गए फैसले को पढ़ लें और अपना निर्णय दें। अदालत का फैसला राज्यपाल के सचिव को भेज दिया गया है। इसी तरह पंजाब के राज्यपाल पुरोहित और मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान के आपसी संबंध बेहद तल्ख हैं। अब अदालत के हस्तक्षेप के बाद मुख्यमंत्री ने राज्यपाल को नया पत्र लिखा है कि वह लंबित पड़े 5 महत्वपूर्ण बिलों पर यथाशीघ्र हस्ताक्षर करें। राज्यपाल ने जवाब दिया है कि सभी विधेयक विचाराधीन हैं और कानून के अनुसार निर्णय लिया जाएगा। सवाल है कि पारित बिलों पर हस्ताक्षर करने की कोई तो समय-सीमा होनी चाहिए? संविधान इस संदर्भ में खामोश है। तेलंगाना में तो ऐसी नौबत आ गई थी कि राज्य सरकार ने राज्यपाल सुंदरराजन को पत्र लिख दिया था कि वह अपना गणतंत्र दिवस अलग से मना लें। राज्य सरकार का समारोह अलग होगा, जिसके मुख्य अतिथि मुख्यमंत्री होंगे। यह भी पराकाष्ठा की बात है। ऐसे भी आरोप लगाए जाते रहे हैं कि राज्यपाल संवैधानिक हदों को पार करते हुए दलबदल के खेल में भी संलिप्त रहे हैं। उनका झुकाव केंद्र में सत्तारूढ़ दल की ओर रहा है। इसी दौर में महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी पर भी सर्वोच्च अदालत ने टिप्पणी की थी और उनके निर्णयों को ‘असंवैधानिक’ करार दिया था। शुक्र है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने खुद ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया। अलबत्ता राज्यपाल के निर्णय को पलटा भी जा सकता था।

अब बदलाव जरूरी

बहरहाल यह एक किताब का विषय है, लेकिन मेरा इतना मानना है कि संसद में संविधान संशोधन प्रस्ताव या सर्वोच्च अदालत की संविधान पीठ के जरिये राज्यपाल की असीमित शक्तियों और राजनीतिक भूमिका में बदलाव लाया जा सकता है। जरूरी यह भी है कि राज्यपाल पद पर आसीन व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत राजनीतिक निष्ठा से परे हों और संवैधानिक दायरे में ही काम करें, अपने पद की गरिमा का ख्याल रखें। कोई भी राज्यपाल केंद्र के ‘एजेंट’ के तौर पर काम करते ना दिखें। राज्य सरकारों को भी देखने की जरूरत है कि वह राज्यपाल के साथ कितना तालमेल बिठाती है, राज्यपाल के प्रति सीएम का आचरण कैसा है और किस तरह के विधेयक पास करवाती है? गवर्नर राज्यपाल ही रहें तो अच्छा है।

(लेखक- सुशील राजेश वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने निजी विचार हैं)

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