प्रमोद भार्गव का लेख : कितना प्रासंगिक रह गया यूएन

प्रमोद भार्गव
रूस और अमेरिका के वर्चस्व की लड़ाई में यूक्रेन दो पाटों के बीच घुन की तरह पिस रहा है। सबसे बड़ी बात है कि जिस संयुक्त राष्ट्र संघ को वैश्विक संकट के दौरान उचित हस्तक्षेप के लिए अस्तित्व में लाया गया था, वह महाशक्तियों के समक्ष बौना दिखाई दे रहा है। इस मायने में उसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठना स्वाभाविक है। सीधा दखल नहीं देने में अक्षम संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने यूक्रेन पर हमलों की निंदा तो की है, लेकिन हस्तक्षेप कर शांति के कोई उपाय नहीं कर पाने में निराशा ही जताई है। गुटेरस का कहना है कि 'दुनिया हाल के वर्षों में वैश्विक शांति और सुरक्षा को लेकर सबसे बड़े संकट का सामना कर रही है। उन्होंने रूस के दखल को यूक्रेन की संप्रभुता और अखंडता के लिए दोषी ठहराया। साथ ही ताजा घटनाक्रम को मिंस्क समझौते के उल्लंघन के लिए बड़ा झटका करार दिया है। रूस यूक्रेन के प्रांत दोनेस्क और लुहांस्क को स्वतंत्र देश की मान्यता दे चुका है। साफ है, रूस की यह इकतरफा कार्यवाही यूएन चार्टर की शर्तों का उल्लंघन है। यह स्थिति मैत्रीपूर्ण संबंधों को भी धता बताने वाली है। इसीलिए अंतरराष्ट्रीय कानून की भी अवज्ञा है।
अतएव इन कानूनों को पालन कराने का दायित्व संभालने वाला संयुक्त राष्ट्र क्यों हाथ मलते दिखाई दे रहा है, यह चिंतनीय पहलू है। गोया, संयुक्त राष्ट्र को आने वाली पीढि़यों को उत्तर देना है कि जब फैसले लेने का समय था और जिन पर विश्व को दिशा देने का दायित्व था, वे विकसित देश या अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं क्या कर रहे थे? यदि संयुक्त राष्ट्र को खुद को प्रासंगिक बनाए रखना है तो उसे अपना प्रभाव दिखाना होगा और विश्वसनीयता को बढ़ाना होगा। यूएन पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं।
अफगानिस्तान पर संकट, दुनिया पर चल रहे छाया युद्ध (प्राॅक्सी वार), वैष्विक आतंकवाद और कोरोना वायरस की उत्पत्ति को लेकर भी संयुक्त राष्ट्र एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आज तक आषंकाएं दूर नहीं कीं ? यदि यह ववैश्विक संस्था अपने भीतर समयानुकूल सुधार नहीं लाती है तो कालांतर में महत्वहीन होती चली जाएगी और फिर इसके सदस्य देशों को इसकी जरूरत ही नहीं रह जाएगी। भारत जैसे देश को संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता से बाहर रखते हुए इस संस्था ने जता दिया है कि यहां चंद अलोकतांत्रिक या तानाशाह की भूमिका में आ चुके देशों की ही तूती बोलती है। यूक्रेन के सिलसिले में भी यही मानसिकता साफ दिखाई दे रही है।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद शांति प्रिय देशों के संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का गठन हुआ था। इसका अहम मकसद भविश्य की पीढि़यों को युद्ध की विभीषिका और आतंकवाद से सुरक्षित रखना था। इसके सदस्य देशों में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन को स्थायी सदस्यता प्राप्त है। याद रहे चीन जवाहरलाल नेहरू की अनुकंपा से ही सुरक्षा परिषद का सदस्य बना था, जबकि उस समय अमेरिका ने सुझाया था कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में नहीं लिया जाए और भारत को सुरक्षा परिषद की सदस्यता दी जाए, लेकिन अपने उद्देश्य में परिषद को पूर्णतः सफलता नहीं मिली। भारत का दो बार पाकिस्तान और एक बार चीन से युद्ध हो चुका है। इराक और अफगानिस्तान, अमेरिका और रूस के जबरन दखल के चलते युद्ध की ऐसी विभीषिका के शिकार हुए कि आज तक उबर नहीं पाए हैं। तालिबान की आमद के बाद अफगानिस्तान में किस बेहरमी से विरोधियों और स्त्रियों को दंडित किया जा रहा है, यह किसी से छिपा नहीं रह गया है ? इजराइल और फिलीस्तीन के बीच युद्ध एक नहीं टूटने वाली कड़ी बन गया है। अनेक इस्लामिक देश गृह-कलह से जूझ रहे हैं। उत्तर कोरिया और पाकिस्तान बेखौफ परमाणु युद्ध की धमकी देते रहते हैं। दुनिया में फैल चुके इस्लामिक आतंकवाद पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। साम्राज्यवादी नीतियों के क्रियान्वयन में लगा चीन किसी वैश्विक पंचायत के आदेश को रूस की ही तरह नहीं मानता है। इसका उदाहरण अजहर जैसे आतंकियों को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने पर चीन का बार-बार वीटो का इस्तेमाल करना है। जबकि भारत विश्व में शांति स्थापित करने के अभियानों में मुख्य भूमिका निर्वाह करता रहा है। बावजूद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी एवं सामुदायिक बहुलता वाला देश आतंक का संकट झेल रहा है।
1945 में परिषद के अस्तित्व में आने से लेकर अब तक दुनिया बड़े परिवर्तनों की वाहक बन चुकी है। इसीलिए भारत लंबे समय से यूएन के पुनर्गठन का प्रशन परिषद की बैठकों में उठाता रहा है। कालांतर में इसका प्रभाव यह पड़ा कि संयुक्त राष्ट्र के अन्य सदस्य देश भी इस प्श्न की कड़ी के साझेदार बनते चले गए। यूएन परिषद के स्थायी व वीटोधारी देशों में अमेरिका, रूस और ब्रिटेन भी अपना मौखिक समर्थन इस प्रश्न के पक्ष में देते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से दो तिहाई से भी अधिक देशों ने सुधार और विस्तार के लिखित प्रस्ताव को मंजूरी 2015 में दे दी है। इस मंजूरी के चलते अब यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र के अजेंडे का अहम मुद्दा बन गया है। नतीजतन अब यह मसला एक तो परिषद में सुधार की मांग करने वाले भारत जैसे चंद देशों का मुद्दा नहीं रह गया है, बल्कि महासभा के सदस्य देशों की सामूहिक कार्यसूची का प्रश्न बन गया है। यदि पुनर्गठन होता है तो सुरक्षा परिषद के प्रतिनिधित्व को समतामूलक बनाए जाने की उम्मीद बढ़ जाएगी। इस मकसद पूर्ति के लिए परिषद के सदस्य देष में से नए स्थायी सदस्य देशों की संख्या बढ़ानी होगी। यह संख्या बढ़ती है तो परिषद की असमानता दूर होने के साथ इसकी कार्य-संस्कृति में लोकतांत्रिक संभावनाएं स्वतः बढ़ जाएंगी।
संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में विश्व स्वास्थ्य संगठन, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, यूनिसेफ और शांति सेना जैसे संगठन काम करते हैं। लेकिन चंद देशों की ताकत के आगे ये संगठन नतमस्तक होते दिखाई देते है। इसीलिए शांति सेना की विश्व में बढ़ते सैनिक संघर्षोँ के बीच निर्णायक भूमिका दिखाई नहीं दे रही है। फिर भी संयुक्त राष्ट्र के शांति रक्षा अभियानों में शांतिरक्षक बलों ने नागरिकों की रक्षा के लिए प्राण न्यौछावर किए हैं। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय जरूर युद्ध में अत्याचारों से जुड़े कई दशकों पुराने वैश्विक विवादों में न्याय देता दिख जाता है। परंतु संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक संगठन जी-20, जी-8, आसियान और ओपेक विभाजित दुनिया के क्रम में लाचारी का अनुभव कर रहे हैं। काबुल पर तालिबानी कब्जे के बाद अफगान में शरणर्थियों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। यही हालात आने वाले वक्त में यूक्रेन में पैदा हो सकते हैं। यूएन को दंतहीन विषहीन की भूमिका से बाहर लाने की जरूरत है ताकि इस अंतराष्ट्रीय संगठन की प्रासंगिकता बनी रहे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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