प्रमोद भार्गव : हाइड्रो प्रोजेक्ट्स बन रहे खतरा

प्रमोद भार्गव : हाइड्रो प्रोजेक्ट्स बन रहे खतरा
X
पूरा हिमालय इस समय विकास एवं पर्यटन के लिए निर्मित की जा रही जल विद्युत परियोजनाओं का अभिशाप झेल रहा है। इन परियोजनाओं के लिए बनाए जा रहे बांधों पर उंगलियां शुरू से ही उठाई जाती रही हैं। टिहरी पर बंधे बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो प्रदूषित होगी ही, हिमालय का भी पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा सकता है? 1976 में गढ़वाल के आयुक्त महेशचंद्र मिश्रा की समिति ने 47 साल पहले ही कह दिया था कि जोशीमठ का जिस अनियमित ढंग से विकास हो रहा है, उससे यह कभी भी दरक सकता है।

उत्तराखंड में जोशीमठ जैसा खतरा हिमाचल प्रदेश में भी दिखाई देने लगा है। मंडी जिले में तीन ग्रामों के घरों में दरारें दिखने लगी हैं। पूरा हिमालय इस समय विकास एवं पर्यटन के लिए निर्मित की जा रही जल विद्युत परियोजनाओं का अभिशाप झेल रहा है। इन परियोजनाओं के लिए बनाए जा रहे बांधों पर उंगलियां शुरू से ही उठाई जाती रही हैं। टिहरी पर बंधे बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो प्रदूषित होगी ही, हिमालय का भी पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा सकता है? केदारनाथ में हुआ हादसा इसी का परिणाम था। अब जोशीमठ तो मानव निर्मित कृत्रिम आपदा का संकट झेल ही रहा है, लेकिन इसे यदि गंभीरता से नहीं लिया, तो धीरे-धीरे हिमालय की ज्यादातर आबादियां जोशीमठ में बदलती दिखाई देंगी।

औद्योगिक-प्रोद्यौगिक विकास के लिए हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र को नजरअंदाज किया गया। सर्वोच्च न्यायालय भी इस बिंदु पर चिंता जता चुका है। केंद्र सरकार के अधीन जल संसाधन मंत्रालय 2016 में न्यायालय से कह चुका है कि अब यहां यदि कोई नई विद्युत परियोजना बनती है तो पर्यावरण के लिए खतरा साबित होगी। दरअसल 2013 में आई केदारनाथ त्रासदी के बाद एक याचिका की सुनवाई करते हुए चौबीस निर्माणाधीन विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगा दी गई थी। यह मामला आज भी विचाराधीन है। बावजूद उत्तराखंड में बिजली के लिए जल के दोहन का सिलसिला जारी है। इसके साथ ही रेल परियोजनाओं के लिए भी हिमालय के गर्भ में सुरंगें खोदी जा रही हैं और सतह पर आधुनिक सुविधायुक्त रेलवे स्टेशन बनाए जा रहे हैं। त्रासदियों से सबक लेने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई नहीं दे रही है, जबकि 1976 में गढ़वाल के आयुक्त महेशचंद्र मिश्रा की समिति ने 47 साल पहले ही कह दिया था कि जोशीमठ का जिस अनियमित ढंग से विकास हो रहा है, उससे यह कभी भी दरक सकता है, क्योंकि यहां नए निर्माण के लिए पहाड़ों को ताकतवर विस्फोटों के जरिये ढहाया जा रहा था, जिसने हिमालय की जड़ें हिलाने की शुरुआत कर दी थी।

दरअसल उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहयोगी नदियों पर एक लाख तीस हजार करोड़ की जल विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। जिस ऋषिगंगा परियोजना पर 2021 में हादसा हुआ था, उसका कार्य 95 प्रतिशत पूरा हो चुका था, लेकिन इस हादसे ने डेढ़ सौ लोगों के प्राण तो लीले ही संयंत्र को भी पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए लाखों पेड़ों को काटने के बाद पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जाता है। और नदियों पर बांध निर्माण के लिए बुनियाद हेतु गहरे गड्ढे खोदकर दीवारें खड़ी की जाती हैं। इन गड्ढों की खुदाई में ड्रिल मशीनों से जो कंपन होता है, वह पहाड़ की परतों की दरारों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ इस कंपन से ढीली पड़ जाती है। नतीजतन पहाड़ों के ढहने और हिमखंडों के टूटने की घटनाएं नंदादेवी क्षेत्र में लगातार बढ़ रही हैं, इसीलिए ऋषिगंगा, धौलीगंगा, विष्णुगंगा, अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी गंगा के जल अधिग्रहण क्षेत्र प्रभावित हो रहे हैं। इन्हीं नदियों का पानी गोमुख से निकलकर गंगा की धारा को निरंतर बनाए रखता है। स्पष्ट है। गंगा की धारा को उद्गम स्थलों को ही ये संयंत्र अवरुद्ध कर रहे हैं। नतीजतन पहाड़ धसकने के संकेत अब जोशीमठ के घरों में आई दरारों से स्पष्ट देखने में आने लगे हैं। यह हाल फिलहाल भले ही जोशीमठ में दिख रहा हो, लेकिन इसका कालांतर में विस्तार पूरे चामोली जिले में दिखाई देगा। फिलहाल जोशीमठ की 25 हजार की आबादी को नई जगह बसाने का सिलसिला सरकार ने शुरू जरूर कर दिया है, लेकिन देश में विस्थापन कभी भी उचित नहीं हुआ। विस्थापित लोगों को आजीवन दरिद्रता का दंश झेलने को मजबूर हो जाना पड़ता है।

ऋषिगंगा पर बन रहा संयंत्र रन आफ रिवर पद्धति पर आधारित था। अर्थात यहां बिजली बनाने के लिए बांध तो नहीं बनाया गया था, लेकिन परियोजना को निर्मित करने के लिए नदी की धारा में मजबूत आधार स्तंभ बनाए गए थे। इन पर टावर खड़े करके विद्युत निर्माण के यंत्र स्थापित कर दिए गए थे। ऐसे में यह समूची परियोजना हिमखंड के टूटने से जो पानी का तेज प्रवाह हुआ, उससे क्षतिग्रस्त हो गई। यह संयंत्र जिस जगह बन रहा था, वहां दोनों किनारों पर संकरी घटियां हैं, इस कारण पानी का वेग अधिक था, जिसे आधार स्तंभ झेल नहीं पाए और संयंत्र बर्बाद हो गया। यह पानी आगे चलकर विष्णुगंगा तपोवन परियोजना तक पहुंचा तो वहां पहले से ही बने बांध में पानी भरा था, नतीजतन बांध की क्षमता से अधिक पानी हो गया और बांध टूट गया। यही पानी तबाही मचाता हुए निचले क्षेत्रों की तरफ बढ़ता चला गया। चूंकि हिमखंड दिन में टूटा था, इसलिए जन व धन की हानि ज्यादा नहीं हो पाई थी, अन्यथा बर्बादी का मंजर देखना मुश्किल हो जाता।

गंगा की इस अविरल धारा पर उमा भारती ने तब चिंता की थी, जब केंद्र में संप्रग की सरकार थी और डाॅ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। उत्तराखंड के श्रीनगर में जल विद्युत परियोजना के चलते धारादेवी का मंदिर डूब में आ रहा था। इस डूबती देवी को बचाने के लिए उमा धरने पर बैठ गई थीं। अंत में सात करोड़ रुपये खर्च करने का प्रावधान करके, मंदिर को स्थांनातरित कर सुरक्षित कर लिया गया था। उमा भारती ने चौबीस ऊर्जा संयंत्रों पर रोक के मामले में सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान 2016 में जल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में जल संसाधन मंत्री रहते हुए केंद्र सरकार की इच्छा के विपरीत शपथ-पत्र के जरिए यह कहने की हिम्मत दिखाई थी कि उत्तराखंड में अलकनंदा, भागीरथी, मंदाकिनी और गंगा नदियों पर जो भी बांध एवं जल विद्युत परियोजनाएं बन रही हैं, वे नदियों समेत गांव एवं कस्बों के लिए खतरनाक भी साबित हो सकती हैं, लेकिन इस इबारत के विरुद्ध पर्यावरण और ऊर्जा मंत्रालय ने एक हलफनामे में कहा कि बांधों का बनाया जाना खतरनाक नहीं है। इस कथन का आधार 1916 में हुए समझौते को बनाया गया था। इसमें कहा गया है कि नदियों में यदि एक हजार क्यूसेक पानी का बहाव बनाए रखा जाए तो बांध बनाए जा सकते हैं, किंतु इस हलफनामे को प्रस्तुत करते हुए यह ध्यान नहीं रखा गया कि सौ साल पहले इस समझौते में समतल क्षेत्रों में बांध बनाए जाने की परिकल्पनाएं अंतर्निहित थीं। उस समय हिमालय क्षेत्र में बांध बनाने की कल्पना किसी ने भी नहीं की थी? बहरहाल बाद में हिमालय की नदियों को सुरंगों में डालकर उनके दोहन का सिलसिला और तेज हो जाता है। इसी का परिणाम 2021 की त्रासदी थी और इसी का विस्तार हम जोशीमठ में देख रहे हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

Tags

Next Story