प्रमोद भार्गव का लेख : सस्ती दवाओं का हब बनता भारत

प्रमोद भार्गव
महंगी दवाओं के चलते इलाज न करा पाने वाले दुनिया के करोड़ों गरीब मरीजों के लिए भारत हमदर्द बनने जा रहा है। बड़ी मात्रा में सस्ती जेनेरिक दवाओं का निर्माण एवं विश्वव्यापी वितरण करके भारत देशी फार्मा उद्योग को तो बढ़ावा देगा ही, निर्यात भी बढ़ाएगा। फार्मा विशेषज्ञ पदोन्नति परिषद् के मुताबिक वर्ष 2021-22 में भारत ने 24.47 अरब डाॅलर की दवाओं का निर्यात किया था। जिसके 2030 तक 70 अरब डाॅलर तक पहुंच जाने की उम्मीद है। फिलहाल भारत का कुल दवा बाजार 47 अरब डॉलर का है। इसमें 22 अरब डॉलर का व्यापार देश के भीतर ही होता है। फिलहाल भारत जेनेरिक दवाओं के वैश्विक सकल निर्यात में 20 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है। दुनिया में लगने वाली 60 प्रतिशत वैक्सीन का सप्लायर भी भारत है। इस नाते भारत वर्तमान में भी वैश्विक दवाखाना कहलाता है।
वर्तमान में दुनिया के 206 देशों में भारत दवाओं का निर्यात करता है। इनमें जेनेरिक दवाएं तो कम है, किंतु ब्रांडेड दवाओं का निर्यात ज्यादा होता है। लेकिन हाल ही में भारत ने संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और आस्ट्रेलिया से जो द्विपक्षीय व्यापार समझौता किया है, उसके तहत भारत से दवाओं का निर्यात बढ़ जाएगा। आस्ट्रेलिया को भारत अभी एक वर्ष में 34 करोड़ डाॅलर की दवाएं निर्यात करता है, जो एक अरब डाॅलर तक पहुंच जाएंगी। यूएई के बाजार से भारतीय दवाएं अफ्रीका के देशों में जाएंगी। दक्षिण अमेरिका के देश भी भारत की सस्ती दवाओं के लिए अपने द्वार खोल रहे हैं। यूक्रेन से लड़ाई के चलते पष्चिमी व नाटो देशों ने रूस को अनेक प्रकार की दवाएं देने पर रोक लगा दी है। इसलिए अब रूस भारत से दवाएं मांग रहा है। यूरोपीय संघ, ब्रिटेन और कनाडा के साथ भी ऐसे कारोबारी समझौते हुए हैं, जो भारत की जेनेरिक दवाएं खरीदेंगे। इन दवाओं के निर्यात में कोई कमी न आए इस दृष्टि से रसायन एवं खाद मंत्रालय ने 35 एक्टिव फार्मास्यूटिकल्स इंग्रिडिएंट्स (एपीआई) इकाइयों को उत्पादन बढ़ाने की अनुमति दे दी है। पीएलआई योजना के तहत 53 एपीआई को भी उत्पादन के लिए चिन्हित किया गया है, इस मकसद पूर्ति के लिए 32 नए संयंत्र लगाए गए हैं। इन संयंत्रों में दवा निर्माण के लिए कच्च माल तैयार किया जाएगा। फिलहाल भारत दवा संबंधी 2.8 अरब डॉलर के कच्चे माल का आयात चीन से करता है। इसके बदले में 4.8 अरब डाॅलर की एपीआई और दवा निर्माण के अन्य कच्चे माल का निर्यात भी करता है। बावजूद चीन से निर्यात में बड़ा असंतुलन है। भारत दवा निर्माण व निर्यात में अग्राणी देश न बन पाए, इसके लिए विदेशी शक्तियां अंकुश लगाने का काम भी लासेंट जर्नल के माध्यम से करती रहती हैं। कोरोना महामारी के समय चीन के इशारे पर वैश्विक प्रसिद्धि प्राप्त मेडिकल जर्नल 'लांसेट' ने भारत को बदनाम करने की बहुत कोशिश की थी। जबकि मेडिकल जर्नल होने के नाते इस पत्र को राजनीतिक लेखों व पूर्वाग्रही व्यावसायिक वैचारिक धारणाओं से बचना चाहिए था। इसमें छपे लेखों को भारतीय मीडिया ने भी भाषाई अनुवाद करके छापा और अपने ही देश को बदनाम किया, जबकि बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स स्थित न्यूज वेबसाइट इयू रिपोर्टर ने तत्काल दावा किया था कि इन भ्रामक रिपोर्टों के पीछे बड़ी दवा कंपनियों की मजबूत लाॅबी है, जो नहीं चाहती कि कोई विकासशील देश कम कीमत पर दुनिया को वैक्सीन उपलब्ध कराने की मुहिम में लग जाए। दरअसल भारत ने इस दौरान अपने पड़ोसी देशों को मुफ्त वैक्सीन देने के साथ कई देशों को बेची भी थी। इस कारण बहुराश्ट्रीय कंपनियों ने उसकी टीका उत्पादन क्षमता पर सवाल उठाए और उन्हें अन्य देशों की तुलना में कमतर बताया। ऐसा इसलिए किया गया था, जिससे टीका उत्पादक बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां आर्थिक लाभ से वंचित न रह जाएं। ये कंपनियां अपने आर्थिक हितों के लिए तब और सजग हो गई थीं, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी टीकों को पेंटेट से मुक्त करने की गुहार विश्व व्यापार संगठन से कर दी थी। कोरोना की पहली लहर में जब चीन की वुहान प्रयोगशाला से निकलकर दुनिया मे हाहाकार मच रहा था, तब इससे निपटने का दुनिया के पास कोई उपाय नहीं था। लेकिन भारतीय चिकित्सकों ने हाइड्रोक्सीक्लाॅरोक्वीन जिसे एचसीक्यू कहा जाता है, उसे इस संक्रमण को नष्ट करने में सक्षम पाया। भारत में पहली लहर का संक्रमण इसी दवा के उपचार से खत्म किया गया। यह दवा इतनी सफल रही कि अमेरिका समेत दुनिया के डेढ़ सौ देशों में इस दवा की आपूर्ति भारत ने की थी। दवा के असर और बढ़ती मांग के दौरान लांसेट ने एक कथित शोध लेख छापा कि एचसीक्यू दवा कोरोना के इलाज में प्रभावी नहीं है। इस रिपोर्ट के आधार पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस दवा के क्लिनिकल परीक्षण पर रोक लगा दी थी। दरअसल लांसेट बड़ी टीका उत्पादक कंपनियों और चीन के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा था। ऐसा इसलिए था, क्योंकि लांसेट के एशियाई संस्करण की संपादक चीनी मूल की नागरिक हैं और उन्होंने ही इस पत्र में भारत विरोधी लेख लिखे थे। लांसेट के तथ्यहीन इन रिपोर्टों पर कई विषेशज्ञों ने सवाल खड़े किए थे, लेकिन उन्हें नजरअंदाज कर दिया गया था।
पश्चिमी देशों द्वारा अस्तित्व में लाया गया पेटेंट एक कानून है, जो व्यक्ति या संस्था को बौद्धिक संपदा का अधिकार देता है। मूल रूप से यह कानून भारत जैसे विकासशील देशों के पारंपरिक ज्ञान को हड़पने की दृष्टि से लाया गया है, क्योंकि यहां जैव विविधता के अकूत भंडार होने के साथ, उनके नुस्खे मानव व पशुओं के स्वास्थ्य लाभ से भी जुड़े हैं। इन्हीं पारंपरिक नुस्खों का अध्ययन करके उनमें मामूली फेरबदल कर उन्हें एक वैज्ञानिक श्ब्दावली दे दी जाती है और फिर पेटेंट के जरिये इस बहुसंख्यक ज्ञान को हड़पकर इसके एकाधिकार चंद लोगों के सुपुर्द कर दिए जाते हैं। यही वजह है कि वनस्पतियों से तैयार दवाओं की ब्रिकी करीब तीन हजार बिलियन डाॅलर तक पहुंच गई है। हर्बल या आयुर्वेद उत्पाद के नाम पर सबसे ज्यादा दोहन भारत की प्राकृतिक संपदा का हो रहा है। ऐसे ही चालाकी भरे दावे और तरकीबें ऐलोपैथी दवाओं के परिप्रेक्ष्य में पश्चिमी देशों की बहुराष्ट्रीय फार्मा कंपनियां अपना रही हैं।
अब तक वनस्पतियों की जो जानकारी वैज्ञानिक हासिल कर पाए हैं, उनकी संख्या लगभग 2 लाख 50 हजार है। भारत में 81 हजार वनस्पतियां और 47 हजार प्रजातियों के जीव-जंतुओं की पहचान सूचीबद्ध है। अकेले आयुर्वेद में 5 हजार से भी ज्यादा वनस्पतियों के गुण का विवरण है। ब्रिटिश वैज्ञानिक रॉबर्ट एम ने कुल 87 लाख प्रजातियां बताई हैं, इनमें जीवाणु व विषाणु नहीं है। भारत सस्ती दवा निर्माण का हब बनता जा रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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