प्रो. कुसुमलता केडिया का लेख : भारत बना विश्व की उम्मीद

चीन अपने संपूर्ण इतिहास में अधिकांश समय हूणों, मंगोलों, मांचुओं और तिब्बितियों और तुर्कों का गुलाम रहा है। इस तथ्य को समझने पर ही भविष्य की सही रणनीति बन सकती है। 1911 में मांचुओं के शासन के विरुद्ध एक छोटे से समूह ने मांचू साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा बीजिंग के आसपास कर दी और चीन की स्वाधीनता के लिए युद्ध छेड़ दिया। इस बीच चीन में अंग्रेज, पुर्तगीज, फ्रेंच, डच जर्मन और अन्य यूरोपीय समूह अलग-अलग, छोटी-छोटी कालोनियां बना चुके थे और कपास तथा अफीम के व्यापार पर कब्जे की कोशिश कर रहे थे। चीन में चांदी की खदानें थीं। वह चांदी पहले भारत आती थी। फिर जापान सहित अन्य देशों को जाने लगी। फ्रांस तथा इंग्लैंड के लोग चांदी देकर ही चीनियों से माल खरीद पाते थे, परंतु चांदी के सिक्के का वहां कोई चलन नहीं था।
रूस से मांचुओं को संधि करनी पड़ी थी, परंतु इंग्लैंड और फ्रांस तथा अन्य यूरोपीय देशों से चाय, अफीम और कपास के व्यापार को लेकर चीनी व्यापारियों की जगह-जगह झड़पें होती रहती थीं। चीनी लोग अपनी वस्तुओं के बदले में इंग्लैंड, फ्रांस और पुर्तगाल के लोगों से चांदी ही स्वीकार करते थे। अफीम की खेती भी चीन में बहुत पहले से हो रही थी, परंतु अफीम का हुक्का पिया जाता था। यूरोपीय लोग उसे खाने के लिये प्रयोग में लाते थे।
भारत में अफीम की बड़े पैमाने पर खेती को प्रोत्साहन देकर ईस्ट इंडिया कंपनी उसे चीन ले जाकर बेचने लगी। चीन में अफीम की खपत बहुत अधिक बढ़ गई। अमेरिकी कंपनियां भी इस व्यापार की होड़ में लग गईं। यूरोपीय कंपनियों ने अब चीन के व्यापारियों को माल खरीदी के एवज में अफीम देना शुरू किया, चांदी देना बंद कर दिया। इससे चीन के प्रबुद्ध वर्ग में बहुत आक्रोश फैला। जगह-जगह युद्ध छिड़ गए और गृहयुद्ध होने लगे। मांचुओं को हटाकर उनकी जगह मिंग शासकों को लाने की कोशिश होने लगी।
चीन में एक राष्ट्रवादी संगठन का उदय हो चुका था, जो चीन को राष्ट्रीय गणराज्य बनाने के लिए वातावरण बनाने लगा। गृहयुद्ध में चीनी राष्ट्रवादी, चीनी गणराज्यवादी, चीनी कम्युनिस्ट तथा चीनी संस्कृति के पक्षधर समूहों में संघर्ष हो गया। 60 वर्षों तक मारकाट चली और इसमें लाखों लोग मारे गये। इस युद्ध में अपना पक्ष बढ़ाने के लिए चीन के 'थर्ड जेंडर' के लोगों को अपने साथ लेने की होड़ मच गई। ईसाई मिशनरियों ने चीनी समाज को पिछड़ा और अंधकारग्रस्त घोषित करके अपने स्कूलों का विस्तार शुरू किया और उसमें मुख्यतः चीनी युवतियों को 'नन' बनाकर शिक्षिका के रूप में रखने लगे। इससे अन्य समूह भी अपने यहां स्त्रियों की बड़ी संख्या में भर्ती करने लगे। इसी गृहयुद्ध में से पहले राष्ट्रवादियों का समूह चीन में प्रभावी हुआ और उसने मांचू साम्राज्य को समाप्त कर चीनी गणराज्य की स्थापना की घोषणा कर दी।
इसमें ईसाई बने सन यात सेन तथा ईसाइयत से प्रभावित चीनी नेता चांग काई शेक मुख्य थे। चीन के चप्पे-चप्पे पर गृहयुद्ध छिड़ गया। जाॅन कीए का कहना है कि 1911 से 1950 ईस्वी तक वस्तुतः चीन में निरंतर युद्ध होते ही रहे, (जाॅन कीए की पुस्तक: चाइना: ए हिस्ट्री का अध्याय 16)। इस गृहयुद्ध में ईसाई मिशनरी और यूरोपीय शक्तियां कभी एक का साथ देतीं और कभी दूसरे का। उधर स्थिति को अपने हस्तक्षेप के उपयुक्त देखकर स्तालिन ने अपने भक्तों की एक मंडली चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में स्थापित की और उसे सब प्रकार से धन और साधन देने लगा। इसमें स्तालिन से सहायता लेने की होड़ अनेक समूहों में मच गई। अंत में माओ जे दुंग ने स्तालिन के प्रति अपनी अनन्य निष्ठा प्रकट की और स्तालिन ने उसे ही चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वमान्य नेता बना दिया तथा चीन पर कब्जा करने में कम्युनिस्ट पार्टी की भरपूर सहायता की।
द्वितीय महायुद्ध में स्तालिन ने जर्मनी का साथ छोड़कर अचानक इंग्लैंड, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमेरिका का साथ पकड़ लिया। स्तालिन का शिष्य माओ भी उसी तरफ चला गया। माओ ने वादा किया कि वह जापानियों से जमकर लड़ेगा। उसने वादा निभाया भी। द्वितीय महायुद्ध में मित्रशक्तियों की विजय हुई तो उन्होंने दुनिया को अपनी सुविधा के अनुसार बांट लिया। उस समय स्तालिन के कहने पर चीन में माओ जे दुंग के शासन को पूर्ण मान्यता दे दी और 1949 ईस्वी में चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन हो गया। उसी के साथ बहुत बड़ा इलाका इंग्लैंड, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमेरिका ने माओ की कम्युनिस्ट पार्टी के हवाले कर दिया। मंचूरिया और मंगोलिया का दक्षिणी इलाका तथा हेनान प्रांत कम्युनिस्टों को मिल गया। बाद में सिक्यांग क्षेत्र पर भी माओ जे दुंग का कब्जा हो गया। इस प्रकार इतिहास में पहली बार एक बहुत बड़े इलाके में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन हो गया। चीन इतना बड़ा पहले कभी नहीं था। उस चीन की अमेरिका ने मदद दी और उसका अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार भी किया। कोरोना संकट के बाद से अब अमेरिका की दृष्टि और नीति चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति बदल चुकी है। वह भारत और जापान को साथ लेकर भविष्य की कार्यनीति और रणनीति बना रहा है। स्पष्ट है कि हमारी लड़ाई अत्यन्त प्राचीन काल से भारत के शिष्य, मित्र और अनुकूल रहे चीन से नहीं है। वह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से है।
अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां पूरी तरह भारत के अनुकूल हैं। वैश्विक घटनाचक्र से चीन अपने पड़ोसी देशों से भी अलग-थलग पड़ गया है। चीन के भीतर भयंकर जनअसंतोष है और श्रमिकों तथा शिल्पियों के सैकड़ों समूह आंदोलनरत हैं। सबको कम्युनिस्ट पार्टी से मुक्ति की आवश्यकता है। भारत का सदा से पड़ोसी रहा तिब्बत पुनः स्वाधीन हो, यह अंतरराष्ट्रीय शक्तियों की प्रबल इच्छा है और इसमें भारत की भूमिका ही निर्णायक है। इस प्रकार नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में वर्तमान चीनी क्षेत्र का संपूर्ण इलाका कम्युनिस्ट पार्टी के शिकंजे से मुक्त हो सकता है और 1950 के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के कब्जे में बलपूर्वक लाए गए अनेक राष्ट्रराज्य- तिब्बत, मंगोलिया, मंचूरिया आदि स्वतंत्र होने के लिए छटपटा रहे हैं। कुशल कूटनीति और आवश्यक रणनीति से मोदी के नेतृत्व में भारत इस विशाल स्वतंत्रता अभियान में निर्णायक भूमिका निभा सकता है। इस स्तर पर यह सदा स्मरण रखना आवश्यक है कि हमारी लड़ाई चीन से नहीं, विस्तारवाद से है और हम चीन को नहीं तोड़ रहे हैं, चीनी विस्तारवाद को हटाने का जो काम अनेक स्तरों पर चल रहा है, उसकी हम केवल सहायता कर रहे हैं। इससे इस सम्पूर्ण क्षेत्र के पुराने राष्ट्रराज्य-तिब्बत, तुर्कमेनिस्तान, खोतान तथा मंगोलिया और मंचूरिया अपने स्वाभाविक स्वरूप को पुनः प्राप्त करेंगे। यह विश्व मानवता के हित में होगा।
(ये लेखिका प्रो. कुसुमलता केडिया के अपने विचार हैं।)
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