प्रभात कुमार रॉय का लेख : सीमा को लेकर भारत-चीन का द्वंद्व

प्रभात कुमार रॉय
भारत और चीन के मध्य विगत कुछ वर्ष से द्वंद्वात्मक सैन्य तनातनी बरकरार है। भारत और चीन की सरहद को लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) कहा जाता है। वस्तुतः 4056 किलोमीटर लंबी एलएसी पर लद्दाख और अरुणाचल दो ऐसे विशिष्ट इलाके रहे हैं, जहां कि सैन्य तनाव सबसे अधिक विकट रहा है। हाल ही में चीन की हुकूमत द्वारा अरुणाचल के तवांग क्षेत्र में 15 स्थानों का चीनी नामकरण किया गया है। भारत ने चीन की ओर से अरुणाचल प्रदेश के 15 जगहों के नाम बदले जाने पर कूटनीतिक पलटवार किया है। भारत की ओर से बयान दिया गया है अरुणाचल प्रदेश हमेशा से ही भारत का अभिन्न हिस्सा रहा है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा कि यह पहली दफा नहीं है, जब चीन ने अरुणाचल प्रदेश में स्थानों के नामों को बदलने की कोशिश की है। चीन ने वर्ष 2017 में भी अरुणाचल पर अपना अवैध दावा करते हुए कुछ स्थानों के नाम बदलने की कोशिश की थी। सदियों पुराने नक्शे पेश करते हुए चीन दावा पेश करता रहा है कि तवांग इलाका ऐतिहासिक तौर पर पर तिब्बत का अभिन्न अंग रहा।
विगत तीन वर्ष से भारत और चीन के मध्य कूटनीतिक और सैन्य वार्ताओं के दौर निरंतर जारी रहे हैं, किंतु अभी तक दोनों देश सीमा विवाद के समुचित निदान तक नहीं पहुंच सके हैं। कूटनीतिक वार्ताओं के दौरान गलवान घाटी में हुई रक्तरंजित सैन्य मुठभेड़ ने हालात को बेहद गंभीर बना दिया। अंततः लद्दाख में दोनों देशों की सैन्य टुकड़ियां एलएसी से पीछे हट गई तो फिर कुछ हद तक सैन्य तनाव में कुछ शिथिलता दिखाई दी। आजकल कूटनीतिक और सैन्य वार्ताओं का दौर जारी है। उम्मीद की जा सकती है कि दोनों देशों के मध्य विगत 70 वर्षों से निरंतर जारी सीमा विवाद का शांतिपूर्ण निदान निकाला जा सकता है। ब्रिटिश और चीन सरकारों ने 1914 में तिब्बत देश को दोनों मुल्कों के मध्य एक बफर स्टेट के तौर पर स्वीकार किया था। 1924 में ब्रिटिश और चीन सरकार में हुई एक संधि द्वारा मैकमोहन लाइन का सृजन किया गया। इस संधि के तहत तिब्बत को बाकायदा एक बफर स्टेट करार दिया गया। वर्ष 1924 की संधि को चीन की साम्यवादी सरकार ने ठुकरा दिया और 1950 में साम्यवादी चीन ने तिब्बत पर अपना आधिपत्य अंजाम दिया। विश्व पटल पर भारत एकमात्र प्रजातांत्रिक राष्ट्र रहा जिसने सबसे पहले चीन को कूटनीतिक मान्यता दी थी।
बफर स्टेट तिब्बत को चीन द्वारा जबरन हड़प लिए जाने के विरुद्ध भारत सरकार ने कहीं कोई आवाज बुलंद ना करके, ऐतिहासिक तौर पर एक अत्यंत गंभीर कूटनीतिक गलती की थी। यहां तक कि वर्ष 1954 में भारत सरकार ने तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग स्वीकार कर लिया। इस ऐतिहासिक कूटनीतिक गलती का दुष्परिणाम भारत को अभी तक भुगतना पड़ रहा है। तिब्बत को चीन द्वारा हड़प लिए जाने के बाद चीन की सरहद सीधे तौर से भारत से जुड़ गई। चीनी सरकार ने 1950 के दशक के प्रारम्भ से ही भारत के अनेक सरहदी क्षेत्रों पर अपनी दावेदारी पेश कर दी थी। इस दावेदारी का प्रबल विरोध भारत सरकार द्वारा किया गया। कूटनीतिक वार्ताओं के जरिये सीमा विवाद का निदान करने के लिए चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने चार दफा भारत यात्रा की। तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी एक दफा चीन का कूटनीतिक दौरा किया था। वर्ष 1959 में तिब्बत के बौद्ध नेता दलाई लामा और उनके हजारों अनुयायियों को भारत सरकार ने राजनीतिक शरण दी। भारत के दलाई लामा को शरण देने के इस कूटनीतिक कदम को चीन की साम्यवादी सरकार ने कूटनीतिक शत्रुता के तौर पर लिया। सीमा विवाद को शांतिपूर्ण वार्ताओं के निरंतर जारी रहते हुए सन 1962 में यकायक चीन की लालफौज ने लद्दाख और अरुणाचल (तत्कालीन नाम नार्थ वेस्ट फ्रंटियर-नेफा) पर भीषण सैन्य आक्रमण किया। विवादित अक्साई चीन पर चीनी लालफौज का आधिपत्य स्थापित हो गया। सोवियत रूस और अमेरिका के भारत के पक्ष में एक साथ खड़े हो जाने के कारण चीनी लालफौज को एकतरफा युद्ध विराम का ऐलान करते पीछे हटना पड़ा। विश्वपटल पर भारतीय कूटनीति कामयाब सिद्ध हुई। हालांकि वर्ष 1962 में चीन और भारत के बीच हुई जंग में सैन्य तैयारियों के अभाव में भारतीय सेना को पराजय का सामना करना पड़ा।
वर्ष 1949 में साम्यवादियों द्वारा चीन पर आधिपत्य स्थापित करने के पश्चात कैटोग्रफिक विस्तार का आग़ाज कर दिया। चीन के सर्वोच्च साम्यवादी नेता कामरेड माओ ने पॉम एंड फाई फिंगर्स का फ़लसफा पेश करते हुए तिब्बत को पॉम करार दिया और इस पॉम की फाई फिंगर्स लद्दाख, सिक्किम, भूटान, नेपाल और अरुणाचल को करार दिया गया। साम्राज्यवाद विरोधी दौर में एक साम्यवादी नेता माओ ने सामंतवादी साम्राज्यवाद का फलसफा पेश किया और चीन सरकार उसको अमली जामा पहनाने में जुट गई। सामंत शाही दौर के आक्रमक राष्ट्रवाद पर अमल करते हुए सबसे पहले साल 1962 में और उसके पश्चात चीन की लालफौज का भारतीय सेना के साथ वर्ष 1967 में भारत के सिक्किम प्रांत में नाथूला और चोला इलाकों में स्थानीय युद्ध हुआ। इन दोनों स्थानीय युद्धों भारतीय सेना ने लालफौज को हरा दिया। साल 1969 में चीन का सोवियत रूस से भीषण युद्ध हुआ, जिसमें रूस की लालफौज ने चीनी लालफौज को पराजित कर दिया। सन 1979 में वियतनाम की लालफौज़ ने निर्णायक तौर पर चीन की लालफौज को शिकस्त दी। कामरेड माओ के पश्चात चीन में की सरजमीन पर सबसे शक्तिशाली बनकर उभरे नेता राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने भारत को चारों तरफ से घेरने के लिए स्िट्रंग ऑफ पर्ल की रणनीति अख्त्यार की है, जिसमें भारत पड़ोसी देशों नेपाल, श्रीलंका, भूटान, म्यांमार, मालदीव, पाकिस्तान आदि को भारत के विरुद्ध खड़ा करने की रणनीति को अंजाम दिया जा रहा है।
भारत सरकार अत्यंत संजीदगी के साथ चीन से समस्त सीमा विवादों का निदान कूटनीतिक वार्ताओं द्वारा करना चाहती है। वार्ताओं के दौरान गलवान घाटी की सैन्य झड़प ने गंभीर सबक दिया कि चीन अपनी विस्तारवादी फितरत का परिचय देता रहता है। भारत को चीन की विस्तारवादी आक्रमकता का समुचित सामना करने के लिए रूस के साथ अपनी परंपरागत दोस्ती को और शक्तिशाली बनाना होगा। डोनाल्ड ट्रंप के दौर में भारत द्वारा अमेरिका के प्रति अत्याधिक कूटनीतिक झुकाव के कारण रूस के साथ भारत की दोस्ती में दरार आई। अतः क्वाड रणनीतिक मोर्चे के प्रति रूस सरकार सशंकित हो उठी है। भारत को अत्यंत संतुलित कूटनीति और रणनीति का चतुरता से अनुपालन करते हुए अमेरिका और रूस दोनों की दोस्ती को प्रबल तौर पर कायम रखना होगा। साथ ही हिंद महासागर और भारत के पड़ोसी देशों में भी चीन की कुटिल कूटनीति और रणनीति का कूटनीतिक कुशलता और चातुर्य के साथ कड़ा मुकाबला करना होगा।
( लेखक कूटनीति के जानकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं। )
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