प्रमोद भार्गव का लेख : भारत स्थायी सदस्यता का प्रबल दावेदार

प्रमोद भार्गव
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार और विस्तार की मांग जब-तब अंगड़ाई लेती रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जबसे सुरक्षा परिषद में सुधार की पैरवी तेज की है तब से वैश्विक माहौल इसके बदलाव के पक्ष में बेताब हो रहा है, इसीलिए दुनिया के 70 देश इसमें बदलाव के पक्ष में आ खड़े हुए हैं। ब्रिटेन और फ्रांस ने सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता की वकालत की है। फ्रांस की स्थाई प्रतिनिधि नथाली ब्राडहर्स्ट ने भारत के साथ जर्मनी, ब्राजील और जापान की दावेदारी का भी समर्थन किया है। ब्रिटेन भी भारत की स्थायी सदस्यता की मांग कर चुका है। दरअसल उभरते ताकतवर देश और अर्थव्यस्थाएं हैं, उनकी भागीदारी संयुक्त राष्ट्र जैसी शक्तिशाली संस्था में आवश्यक हो गई है, जिससे आतंक का समर्थन करने वाले देश चीन की जुबान पर लगाम लग सके। परिषद की कार्यक्षमता और परिचालन प्रकृति को बनाए रखने के लिए इसमें नए सदस्यों के रूप में 25 देशों की भागीदारी संभव है। इस गुंजाइश के चलते अफ्रीकी देश भी इसमें भागीदारी चाहते हैं। फ्रांसीसी राजनयिक ब्राडहर्स्ट ने तो यहां तक कहा है कि इनके अलावा जो सीटें बचती हैं, उनका आवंटन भौगोलिकता के आधार पर किया जाए, जिससे पूरी दुनिया की बात सुरक्षा परिषद में उठाई जा सके। ऐसा होता है तो वीटो जैसे संवेदनशील मुद्दे पर आग्रह-दुराग्रह का दायरा सीमित हो जाएगा और परिषद की महत्ता अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए निष्पक्षता से रेखांकित कि जा सकेगी।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद शांतिप्रिय देशों के संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का गठन हुआ था। इसका अहम मकसद भविष्य की पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका से सुरक्षित रखना था। इसके सदस्य देशों में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन को स्थायी सदस्यता प्राप्त है। याद रहे चीन जवाहरलाल नेहरू की अनुकंपा से ही सुरक्षा परिषद का सदस्य बना था, जबकि उस समय अमेरिका ने सुझाया था कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में नहीं लिया जाए, बल्कि भारत को सुरक्षा परिषद की सदस्यता दी जाए। हालांकि अपने उद्देश्य में परिषद को पूर्णतः सफलता नहीं मिली। भारत का दो बार पाकिस्तान और एक बार चीन से युद्ध हो चुका है। इराक और अफगानिस्तान, अमेरिका व रूस के जबरन दखल के चलते युद्ध की ऐसी विभीषिका के शिकार हुए कि आज तक उबर नहीं पाए हैं। इजराइल और फिलींस्तीन के बीच युद्ध एक नहीं टूटने वाली कड़ी बन गया है। रूस और यूक्रेन के बीच नौ माह से चल रहा युद्ध परमाणु युद्ध के मुहाने पर आ खड़ा हुआ है। अनेक इस्लामिक देश गृह-कलह से जूझ रहे हैं। उत्तर कोरिया और पाकिस्तान बेखौफ परमाणु युद्ध की धमकी देते रहते हैं। दुनिया में फैल चुके इस्लामिक आतंकवाद पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। साम्राज्यवादी नीतियों के क्रियान्वयन में लगा चीन किसी भी वैश्विक पंचायत के आदेश को नहीं मानता। यहां तक की अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने पर भी चीन वीटो लगा देता है। दुनिया के सभी शक्ति-संपन्न देश व्यापक मारक क्षमता के हथियारों के निर्माण और भंडारण में लगे हैं। इसके बावजूद सुरक्षा परिषद की भूमिका वैश्विक संगठन होने की दृष्टि से इसलिए महत्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि उसके एजेंडे में प्रतिबंध लागू करने और संघर्ष की स्थिति में सैनिक कार्रवाई की अनुमति देने के अधिकार शामिल हैं।
1945 में परिषद के अस्ितत्व में आने से लेकर अब तक दुनिया बड़े परिवर्तनों की वाहक बन चुकी है। इसीलिए भारत लंबे समय से परिषद के पुनर्गठन का प्रश्न परिषद की बैठकों में उठाता रहा है। कालांतर में इसका प्रभाव यह पड़ा कि संयुक्त राष्ट्र के अन्य सदस्य देश भी इस प्रश्न की कड़ी के साझेदार बनते चले गए। परिषद के स्थायी व वीटोधारी देशों में अमेरिका, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन भी अपना मौखिक समर्थन इस प्रश्न के पक्ष में देते रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन इसी साल सितंबर में संपन्न हुई संयुक्त राष्ट्र की महासभा में इसके मौजूदा ढांचे में परिवर्तन की मांग का समर्थन कर चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से सत्तर देशों ने सुधार और विस्तार के लिखित प्रस्ताव को मंजूरी दी हुई है। इस मंजूरी के चलते अब यह प्रस्ताव अहम मुद्दा बन गया है। अमेरिका ने शायद इसी पुनर्गठन के मुद्दे का ध्यान रखते हुए सुरक्षा परिषद में नई पहल करने के संकेत दिए हैं। यदि पुनर्गठन होता है तो परिषद के प्रतिनिधित्व को समतामूलक बनाए जाने की उम्मीद बढ़ जाएगी। इस मकसद पूर्ति के लिए परिषद के सदस्य देशों में से नए स्थायी सदस्य देशों की संख्या बढ़ानी होगी। यह संख्या बढ़ती है तो असमानता दूर होने की संभावना स्वतः बढ़ जाएगी। दरअसल परिषद के मौजूदा प्रावधानों के मुताबिक इसमें बहुमत से भी लाए गए प्रस्तावों को खारिज करने का अधिकार पी-5 देशों को है। ये देश किसी प्रस्ताव को खारिज कर देते हैं तो यथास्थिति और टकराव बरकरार रहेंगे। साथ ही यदि किसी नए देश को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता मिल भी जाती है तो यह प्रश्न भी रहेगा कि उन्हें वीटो की शक्ति दी जाती है अथवा नहीं, इसलिए भारत के लिए फिलहाल यह प्रश्न अनुत्तरित ही है कि उसके लिए प्रभावशाली अंतरराष्ट्रीय संस्था में स्थायी सदस्यता पाने का रास्ता खुल जाएगा?
हालांकि भारत कई दृष्िटयों से न केवल सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की हैसियत रखता है, बल्कि वीटो-शक्ति हासिल कर लेने की पात्रता भी उसे है, क्योंकि वह दुनिया का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश है। भारत ने साम्राज्यवादी मंशा के दृष्टिगत कभी किसी दूसरे देश की सीमा पर अतिक्रमण नहीं किया, जबकि चीन लगातार कर रहा है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में भी अहम भूमिका निभाई है। दरअसल पी-5 देश यह कतई नहीं चाहते कि जी-4 देश सुरक्षा परिषद में शामिल हो जाएं। जी-4 देशों में भारत, जापान, ब्राजील और जर्मनी शामिल हैं। यही चार वे देश हैं, जो सुरक्षा परिषद में शामिल होने की सभी पात्रता रखते हैं, किंतु परस्पर हितों के टकराव के चलते चीन यह कतई नहीं चाहता कि भारत और जापान को सदस्यता मिले, क्योंकि दक्षिण एशिया में वह अकेला ताकतवर देश्ा बने रहना चाहता है। ब्रिटेन और फ्रांस जर्मनी के प्रतिद्वंद्वी देश हैं। जर्मनी को सदस्यता मिलने में यही रोड़े अटकाने का काम करते हैं। महाद्विपीय प्रतिद्वंद्विता भी अपनी जगह कायम है। यानी एशिया में भारत का प्रतिद्वंद्वी चीन है। लातीनी अमेरिका से ब्राजील, मैक्सिको और अर्जेंटीना सदस्यता के लिए प्रयासरत हैं तो अफ्रीका से दक्षिण अफ्रीका और नाइजीरिया जोर-आजमाइश में लगे हैं। जाहिर है, परिषद का पुनर्गठन होता भी है तो भारत जैसे देशों को बड़े पैमाने पर अपने पक्ष में प्रबल दावेदारी तो करनी ही होगी, बेहतर कूटनीति का परिचय भी देना होगा। सुरक्षा परिषद का पुनर्गठन होता है, तो पी-5 देशों की शक्ति के विभाजन का द्वार खुल जाएगा। इस शक्ति के विभाजन से दुनिया के अधिक लोकतांत्रिक होने की उम्मीद बढ़ जाएंगी।
( ये लेखक के अपने विचार हैं। )
© Copyright 2025 : Haribhoomi All Rights Reserved. Powered by BLINK CMS
-
Home
-
Menu
© Copyright 2025: Haribhoomi All Rights Reserved. Powered by BLINK CMS