रहीस सिंह का लेख : पावर सेंटर बनने की ओर बढ़ रहा भारत

रहीस सिंह
विश्वव्यवस्था में संक्रमण की स्थिति में है। नई विश्वव्यवस्था कैसी होगी, यह अभी तय नहीं हो पाया है। हां, मोटे तौर पर मॉस्को और वाशिंगटन दो धुरियों के रूप में अवश्य दिख रहे हैं। बीजिंग को किस रूप में स्वीकार किया जाएगा, स्पष्ट नहीं है। लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध ने बीजिंग को मॉस्को के निकट ला दिया है और मॉस्को को बीजिंग का कुछ हद तक ऋणी बना दिया है। पश्चिमी देश वाशिंगटन के साथ तो हैं लेकिन ऊर्जा संकट उन्हें मॉस्को के प्रति नरम रहने का दबाव भी डाल रहा है। यानि पश्चिमी देश सही अर्थों में अनिर्णय की स्थिति में हैं। पिछले कुछ वर्षों में निर्मित हुए मिनीलैटरल्स यानि छोटे-छोटे समूह, भी निर्णायक भूमिका में आ रहे हैं। ऐसे में यह सवाल अहम हो जाता है कि भारत किसके साथ होगा और किसका नेतृत्व करेगा। वैसे मिनीलैटरल्स का भारत के प्रति एक झुकाव अधिक है, लेकिन इन देशों की अपेक्षाएं भी ज्यादा हैं जिन्हें चीन तो पूरा कर सकता है परन्तु भारत नहीं। इसलिए ये देश कुछ कदम आगे और कुछ कदम पीछे की मुद्रा में ही रहेंगे, लेकिन भारत के अनुकूल रहेंगे, यह उम्मीद की जा सकती है।
दरअसल पिछले आठ वर्षों में भारतीय विदेश नीति 'स्टैंडबाइ मोड' से 'फॉरवर्ड ट्रैक' पर आयी है, इसमें किसी को कोई संशय नहीं होना चाहिए। यह भी सच है कि भारत एक 'सॉफ्ट स्टेट' से 'पावर सेंटर' (शक्ति केन्द्र) में परिवर्तित होने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ा है। अब नई विश्वव्यवस्था (न्यू वर्ल्ड ऑर्डर) में भारत की उपेक्षा नहीं की जा सकती। तो क्या यह माना जा सकता है कि नई विश्वव्यवस्था में चार पावर सेंटर होंगे- वाशिंगटन, मॉस्को, बीजिंग और नई दिल्ली? इसके लिए दो चीजें आवश्यक होंगी। पहली यह कि भारत को एक आर्थिक ताकत बनना होगा, कम से कम 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था या इससे और अधिक। दूसरी- चीन की अर्थव्यवस्था में बनते हुए बुलबुलों को फूटना होगा। इन सबसे अलग एक बात यह भी है कि छोटे देशों का चीन के प्रति विश्वास घट रहा है। श्रीलंका की अर्थव्यवस्था की जो दुर्गति हुयी है, उसे लेकर दुनिया के उन देश चीन को लेकर अपनी धारणा बदलने लगी है जो चीन की चेकबुक डिप्लोमैसी या ऋण जाल (डेट ट्रैप) में फंसे हुए हैं। यह स्थिति भारत को लाभांश प्रदान करने वाली रहेगी। वैसे भी भारत जिस विदेश नीति के साथ आगे बढ़ा है उसमें शांतिपूर्ण सह अस्तित्व, सहकार, सहयोग तथा समृद्धि का भाव अधिक है। इसमें भी वैक्सीन मैत्री (वैक्सीन डिप्लोमैसी) जैसे कदमों ने भारत की विदेश नीति में वैल्यू एडिशन किया है। यही नहीं पिछले आठ वर्षों में भारत ने वैश्विक सम्बंधों के वास्तुकरण (रेईफिकेशन) की बजाय बुनियादी सहयोग सम्बंध पर अधिक बल दिया है।
भारत की पड़ोसी प्रथम की नीति अपने हर पड़ोसी को 'सहोदरता के साथ सहयोग' के साथ लेकर चलने में आंशिक अवरोधों के बावजूद बेहद कामयाब रही है। जिसका उदाहरण हमें भूटान, नेपाल, बांग्लादेश, मालदीव....आदि के रूप में देख सकते हैं। श्रीलंका की संकट के समय सहायता भी इसी का एक उदाहरण है। इसके साथ ही भारत ने सन्निकट पड़ोसियों के साथ रिश्ते मजबूत किए। 'एक्ट ईस्ट' और 'पीवोट टू वेस्ट' विदेश नीति के दो ऐसे आयाम हैं जिनके चलते भारत ने पूर्वी व दक्षिण पूर्वी एशिया के साथ अपने डायनॉमिक रिश्ते (कल्चर, कामर्स और कनेक्टिविटी के साथ) स्थापित किए। पश्चिम एशिया के साथ भी भारत ट्रेड पर आधारित रिश्तों से कहीं आगे निकलकर रणनीति साझेदारी तक पहुंचने में कामयाब रहा। इसी दौरान एक तरफ भारत हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में क्वॉड्रिलैट्रल (क्वॉड) एनीशिएटिव का संस्थापक सदस्य बना। दूसरी तरफ शंघाई सहयोग संगठन का स्थायी सदस्य बनकर मध्य एशिया व यूरेशियाई देशों के साथ आर्थिक साझेदारी का नया प्रवेश द्वार हासिल करने में सफल रहा। समुद्री देश भारतीय विदेश नीति के लिहाज से लम्बे समय से उपेक्षित रहे थे लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके साथ गहरे रिश्ते कायम कर चीन के 'जिबूती-ग्वादर' कनेक्ट को काउंटर करने की रणनीति बनायी। प्रधानमंत्री की हिन्द महासागर के द्वीपीय देशों की यात्रा कर 292,131,000 घन किलोमीटर वाले रणनीतिक दृष्टि से सम्पन्न क्षेत्र में एक लंबे समय बाद आधारभूत डिप्लोमैटिक पहल हुयी थी। इसने एक तरफ 'व्लू वाटर डिप्लोमैसी' के सिरे पर भारत को मजबूत किया तो दूसरी तरफ चीन के 'स्टि्रंग ऑफ पर्ल्स' को काउंटर करने में सफलता अर्जित की।
अगर करीब से दुनिया को देखें तो चीन इस समय घटती हुयी मांग, आपूर्ति के झटके और भविष्य की वृद्धि में कमजोरी सम्बंधी दबाव तथा जोखिम से गुजर रहा है। वहां कभी भी प्रापर्टी का बुलबुला फूट सकता है। रूस स्वयं को सोवियत यूनियन में ले जाना चाह रहा है और अमेरिका पूर्वस्थिति बहाल रखना चाहता है। इन वजहों से ड्रैगनबियर (चीन और रूस की अर्थव्यवस्था के लिए प्रयुक्त नाम) की बॉण्डिंग थोड़ी चिंताजनक स्थिति में पहुंच रही है। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति पुतिन के बीच एक खास केमिस्ट्री है, लेकिन चीन ने रूस-यूक्रेन युद्ध में जिस तरह रूस का साथ दिया है और फिर रूस ने चीन के 'बेल्ट एंड रोड एनीशिएटिव' (बीआरआई) को मान्यता देने में अभिरुचि दिखायी है, वह चुनौती के रूप में सामने आ सकता है। यह ध्यान रखकर आगे की रणनीति तय करनी होगी।
मध्य-पूर्व इस समय उस प्रकार की भू-राजनीतिक सक्रियता का केन्द्र नहीं है जैसा कि पिछले दो दशकों में देखा गया है। इसकी दो वजहे हैं। पहली यह कि कोविड 19 महामारी ने उन शक्तियों को फिलहाल कई कदम पीछे धकेल दिया है जो इस क्षेत्र में अपनी महान चालों (ग्रेट गेम्स) में उलझाए रखती थीं। अब वे स्वयं रणनीति के बजाय अर्थनीति पर काम करने के लिए विवश हैं। दूसरी- इस क्षेत्र के कुछ देश आर्थिक पुनर्निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं ऐसे में उन्हें उन देशों के सहयोग की जरूरत है जो वैज्ञानिक, अन्वेषी और नवोन्मेषी हैं। कुछ अवरोधों के बावजूद भी भारत इस मामले में काफी आगे है। पिछले आठ वर्षों में इस क्षेत्र के साथ भारत ने व्यापक रिश्ते कायम किए हैं। भारत की व्यापार और ऊर्जा सुरक्षा होरमुज जलसंधि व बाव-एल-मंडेब खाड़ी की सुरक्षा से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुयी है। भारतीय नौसेना ने कई खाड़ी देशों के साथ नौसैनिक अभ्यासों में हिस्सा लिया है, जिनमें कुवैत, यमन, बहरीन, सऊदी अरब, कतर, यूएई व जिबूती प्रमुख हैं। इस दौर में भारत-सऊदी अरब रिश्ते काफी ऊंचाई पर पहुंचे जिसमें प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत कूटनीति की अहम भूमिका रही।
यूरोप आदर्शवादी एकता से राष्ट्रवादी अलगाव की ओर बढ़ रहा है। बहुत से तथ्य यह बताते हैं कि लंदन, बर्लिन और पेरिस के हित एक-दूसरे से इतने टकरा रहे हैं कि ये साम्यावस्था को प्राप्त नहीं कर सकते। फिलहाल पिछले आठ वर्षों में भारत उस जगह पहुंच चुका है जहां से उसके 'बैलेंसिंग पावर' से 'पावर सेंटर' की ओर जाने की यात्रा आरम्भ होती है।
(लेखक विदेश नीति के जानकार हैँ, ये उनके अपने विचार हैं।)
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