अवधेश कुमार का लेख : आंतरिक कायाकल्प की जरूरत

अवधेश कुमार का लेख : आंतरिक कायाकल्प की जरूरत
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भाजपा और संघ के अंदर भी ज्यादातर लोग यह महसूस कर रहे हैं कि पार्टी के स्तर पर हाल की कुछ घटनाओं से बेहतर तरीके से निपटा जा सकता था। वास्तव में आक्रामक विरोधों और हिंसा की डरावनी तस्वीरों ने पूरे देश को चिंतित किया है लेकिन उससे कहीं ज्यादा चिंता का विषय सत्ता और राजनीति के स्तर पर इन सबसे निपटने में दिखी व्यापक कमियां है। ज्ञानवापी या फिर अग्निपथ के विरुद्ध प्रदर्शनों में हुई हिंसा कतई आश्चर्यजनक नहीं थी। नूपुर शर्मा मामले में सड़कों पर जब सर तन से जुदा नारे लग रहे थे तभी भावी परिस्थितियों का आकलन किया जा सकता था। सारी असाधारण चुनौतियों की समग्र समीक्षा कर भाजपा को अपने अंदर आंतरिक सुधार करना चाहिए।

अवधेश कुमार

भाजपा और संघ परिवार के अंदर भी ज्यादातर लोग यह महसूस कर रहे हैं कि पार्टी के स्तर पर हाल की कुछ घटनाओं से बेहतर तरीके से निपटा जा सकता था। उदाहरण के लिए नूपुर शर्मा एवं नवीन जिंदल प्रकरण में पार्टी के स्तर पर भाजपा ऐसी किंकर्तव्यविमूढ़ता का शिकार रही जिससे उसके आम कार्यकर्ता और समर्थक हतप्रभ थे। यह विषय मूलतः पार्टी का था। सरकार की इसमें बड़ी भूमिका नहीं हो सकती थी। पाकिस्तान के मुस्लिम पत्रकार ने पूरे वीडियो का विश्लेषण करते हुए बता दिया कि टेलीविजन डिबेट में मुस्लिम डिबेटर ने स्वयं नबी के बारे में टिप्पणी करने के लिए भड़काया। कई मुस्लिम मौलवियों ने भारत में भी यही बात कही। भाजपा इसी बात को अपने तरीके से देश के सामने रखती तो स्थिति दूसरी होती। रास्ता बहुत सरल था। विवाद उभरने के साथ भाजपा नेतृत्व को पूरे डिबेट की वीडियो मंगा कर उसका विश्लेषण करना चाहिए था। उसके बयान से असहमति प्रकट करते लेकिन तरीका क्या होता? पत्रकार वार्ता बुलाकर कैसे मुस्लिम प्रवक्ता हिंदू देवी देवताओं को अपमानित कर रहे हैं, इसे बताते हुए फिर अपना मंतव्य रखना चाहिए था। ऐसा करने से स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती। भाजपा और संघ विरोध की भावना से भरे हुए लोग सड़कों पर उतर कर गुस्ताख ए रसूल की एक ही सजा 'सर तन से जुदा, सर तन से जुदा' नारा लगाने और अन्य प्रकार के प्रदर्शनों में इस प्रकार से खुलकर आने से बचते। एक बार पार्टी के सक्रिय होने के बाद ऊपर से नीचे तक कार्यकर्ता समर्थक भी सक्रिय रहते और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने विरोध के अधिकार का उपयोग करते। भाजपा के सारे प्रवक्ता इस बात से डर गए कि अगर डिबेट में गए और कुछ ऐसा वैसा निकल गया तो उनकी भी दशा यही हो सकती है। इस कारण कानपुर दंगे से लेकर इस तरह के डिबेटों से भी भाजपा प्रवक्ता दूर रहे। यहां तक कि उदयपुर में कत्ल से संबंधित टेलीविजन डिबेटों में भी भाजपा प्रवक्ता नहीं दिखे। वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों का ध्यान रखते हुए पार्टी की यह दशा वाकई डराती है। लेकिन क्या ऐसा पहली बार हुआ है?

ऐसा पहली बार नहीं है। अग्निपथ योजना के विरोध के दौरान बिहार में भाजपा के अध्यक्ष, उपमुख्यमंत्री के घरों पर हमले हुए, तीन जिला कार्यालय जला दिए गए, जगह -जगह तोड़फोड़ व भीषण आगजनी होती रही लेकिन उसके समानांतर राजनीतिक स्तर पर अहिंसक प्रतिरोध नहीं हुआ। बिहार और केंद्रीय भाजपा कहीं सड़क पर उतरती नहीं दिखी। ऐसे ही उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों में विरोध प्रदर्शनों और हिंसा के संदर्भ में था। ऐसी हर चुनौतियों का सामना राजनीतिक स्तर पर करना श्रेष्ठतम रास्ता है। कानूनी एजेंसियों की भूमिका है लेकिन उनकी सीमाएं है। साफ दिख रहा था कि विरोध प्रदर्शनों में एक साथ वो सारी नकारात्मक शक्तियां इकट्ठी है जो मोदी, अमित शाह, योगी भाजपा को सत्ता से हटाना चाहते हैं व संघ को नेस्तनाबूद तथा विरोधी राजनीतिक दल उनका सक्रिय साथ दे रहे हैं। इससे बुरी स्थिति क्या होगी जब पार्टी को लगता कि उसे सड़क पर आना चाहिए। पार्टी मशीनरी को अगर ऐसा महसूस नहीं हुआ तो यह उसके सुंदर स्वास्थ्य का प्रमाण नहीं है। जिनने तय कर लिया है कि उसे किसी भी सूरत में मोदी, योगी ,भाजपा व संघ को डिस्टर्ब करना है, निश्चित रूप से वो कानून के तहत थोड़ी बहुत सजा भुगतने के लिए तैयार होंगे। लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानूनी एजेंसियों से परे ऐसे दुष्प्रचारों, विरोधों, षड्यंत्रों का राजनीतिक स्तर पर प्रखर अहिंसक प्रतिकार से ही समाज जागृत होता है और ऐसे तत्व कमजोर पड़ते हैं।

वास्तव में हाल के दिनों में आक्रामक विरोधों और हिंसा की डरावनी तस्वीरों ने पूरे देश को चिंतित किया है लेकिन उससे कहीं ज्यादा चिंता का विषय सत्ता और राजनीति के स्तर पर इन सबसे निपटने में दिखी व्यापक कमियां है। ज्ञानवापी या फिर अग्निपथ के विरुद्ध प्रदर्शनों में हुई हिंसा कतई आश्चर्यजनक नहीं थी। नूपुर शर्मा मामले में सड़कों पर जब सर तन से जुदा नारे लग रहे थे तभी भावी परिस्थितियों का आकलन किया जा सकता था। तीन तलाक विरोधी कानून के साथ यह साफ हो गया था कि आने वाले समय में सरकार को विरोध के नाम पर होने वाली सुनियोजित हिंसा की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। नागरिकता संशोधन कानून और उसके बाद कृषि कानून विरोधी आंदोलनों में यह स्पष्ट दिखा कि देश और देश के बाहर की शक्तियां मोदी सरकार को बदनाम करने के लिए भारत में हर दृष्टि से अशांति, हिंसा, स्थिरता और उथल-पुथल कायम करने की रणनीति पर पूरी शक्ति से लगीं हैं। वैचारिक दृष्टि से नरेंद्र मोदी, अमित शाह, योगी, भाजपा, संघ और इसे विस्तारित करें तो भारत के विरुद्ध हर संभव संगठित सशक्त दुष्प्रचार अभियानों से बार-बार दो-चार होने के बाद तो इन सबसे समग्रता से निपटने की सुविचारित दीर्घकालीन समग्र रणनीति और कार्ययोजना आवश्यक है। जब भी पिछले कुछ वर्षों में ऐसे विरोध हुए लगा ही नहीं कि इनके समानांतर देश में अहिंसक प्रतिरोध शक्तियां भी हैं। कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान बार-बार अपील होती रही कि कानून के समर्थकों को सड़क पर आना चाहिए। भाजपा किसान मोर्चा एक बड़ी शक्ति है। उसने भी उस स्तर पर निरंतर देशव्यापी प्रतिरोध का अभियान नहीं चलाया। नागरिकता संशोधन कानून के दौरान शाहीनबाग के खतरनाक व अवैध धरना के विरुद्ध आम लोगों के आह्वान पर ही अनेक जगह समानांतर विरोध प्रदर्शन हुए। भाजपा जैसी बड़ी शक्ति अगर योजनाबद्ध तरीके से सड़कों पर उतरती तो उसका असर होता और विश्व भर में दुष्प्रचार का उनको अवसर नहीं मिलता।

यह तो कुछ उदाहरण है। आप देखेंगे कि ऐसी किसी भी स्थिति में जब स्वयं प्रधानमंत्री या गृहमंत्री अमित शाह बाहर आए तभी पार्टी को थोड़ा-बहुत खड़ा होते देखा गया है। प्रश्न है कि ऐसा क्यों हो रहा है? सरल उत्तर यही है कि नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने के कारण भाजपा को जनता का मत प्राप्त हो गया, पार्टी सत्ता में आ गई लेकिन सांस्कृतिक पुनर्जागरण और भारत के पुनर्निर्माण की दृष्टि से भाजपा और उससे जुड़े संगठनों के अंदर जिस तरह की प्रखरता और स्फूर्ति पैदा होनी चाहिए वह नहीं हुई। लंबे समय से आंदोलन व वैचारिक अभियानों के ना चलने से कार्यकर्ताओं का स्वाभाविक प्रशिक्षण भी नहीं हुआ। ऐसा हुआ होता तो पार्टी के अंदर स्वतःस्फूर्त चेतना होती। पूरी भाजपा का मनोविज्ञान ऐसा दिखता है जैसे मोदी-योगी- अमित शाह ही सब कुछ कर देंगे। चुनाव लड़ने वाले मानते हैं कि उनके कारण हम चुनाव जीत जाएंगे। सरकार के स्तर पर उनकी नीतियों के कारण जनता प्रसन्न रहेगी और हमारे सामने चुनौतियां नहीं खड़ी होंगी। जाहिर है, इस स्थिति को बदलने के लिए सारी असाधारण चुनौतियों की समग्र समीक्षा कर योजनाबद्ध तरीके से संगठन, वैचारिकता तथा जमीनी संघर्ष की दृष्टि से भाजपा के अंदर ऐसा आंतरिक सुधार करना होगा ताकि पार्टी हर परिस्थिति में जीवंत इकाई की भूमिका निभा सके।

(लेखक प्रोफेसर, पीजीडीएवी कॉलेज, डीयू हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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