Jyotiraditya Scindia : मध्य प्रदेश में यही होना था

Jyotiraditya Scindia : मध्य प्रदेश में यही होना था
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कांग्रेस का ढांचा ही चरमरा गया है। इसका लाभ पार्टी की प्रदेश सरकारों के सारे मुख्यमंत्री और प्रमुख नेता उठा रहे हैं। विद्रोह भी हो रहा है, जिसका समाधान करने वाला कोई नहीं है। सोनिया गांधी की समस्या है कि वे उन लोगों को नाराज नहीं कर सकतीं, जो नेतृत्व कर रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे विश्वस्त नेता की अनदेखी से पता चलता है कि कांग्रेस कितने गहरे संकट की शिकार है। पार्टी की ऐसी दशा में मध्यप्रदेश की अल्पमत सरकार का यही हाल होना था।

बेंगलूरु से आई तस्वीरों में जिस तरह कांग्रेस का परित्याग करने वाले विधायक मुस्कराते दिख रहे थे, उससे यह कहना उचित नहीं है कि उन पर किसी प्रकार का दबाव था। साफ है कि कांग्रेस के अंदर यह कमलनाथ तथा कुछ हद तक दिग्विजय सिंह एवं केन्द्रीय नेतृत्व यानी 10 जनपथ के खिलाफ विद्रोह है। यह कहना ठीक नहीं है कि भाजपा ने योजनापूर्वक अंजाम तक पहुंचाया। कोई भी विधायक सामान्य स्थिति में अपनी विधायकी को जोखिम में नहीं डालता। अगर विद्रोही विधायकों ने अपने राजनीतिक कैरियर को दांव पर लगा दिया तो इसके कारण इतने सरल नहीं हो सकते। जब ज्योतिरादित्य सिंधिया भोपाल से दिल्ली और दिल्ली से भोपाल और ग्वालियर का चक्कर लगा रहे थे तो किसी ने उनके असंतोष, क्षोभ को समझने तथा उन्हें विश्वास में लेने की कोशिश नहीं की। सोनिया गांधी का उनसे न मिलना समझ से परे है। एक व्यक्ति, जो अपनी पिता की मृत्यु के साथ कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में शुमार हो, जिसने मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए दिन रात एक किया हो, न प्रदेश का नेतृत्व उसकी सुने और न केन्द्रीय नेतृत्व तो उसके पास विद्रोह का ही विकल्प बचता है।

अगर सिंधिया को भविष्य की राजनीति करनी है तो उसके पास विकल्प क्या था? यही न कि विद्रोह कर अपनी पार्टी बनाएं या प्रदेश की दूसरी प्रमुख पार्टी का दामन थाम ले। आश्चर्य की बात तो यह है कि भाजपा नेतृत्व से उनका संपर्क लोकसभा चुनाव के समय से ही था पर कांग्रेस ने इसका संज्ञान ही नहीं लिया। किसी भी नेता के लिए अपनी मूल पार्टी का परित्याग करना आसान नहीं होता। सिंधिया की अपनी पूरी राजनीति कांग्रेस के अंदर और भाजपा के खिलाफ रही है। ऐसा व्यक्ति केवल भाजपा नेताओं द्वारा राज्यसभा में भेजने तथा केन्द्र में मंत्री बना देने के लालच में पार्टी से विद्रोह नहीं कर सकता। अगर हम इसे यहीं तक सीमित मानते हैं तो फिर मध्यप्रदेश की वास्तविक राजनीतिक स्थिति एवं कांग्रेस के पूरे संकट को नजरअंदाज करते हैं। क्या कोई यह कह सकता है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 114 सीटें दिलवाने में सिंधिया की किसी नेता से कम भूमिका रही है? ग्वालियर और चंबल क्षेत्र में कांग्रेस को काफी बढ़त मिली थी। दिग्विजय सिंह को तो पार्टी ने बाद में चुनाव प्रचार तक करने से रोक दिया था, क्योंकि माना गया था कि उनके कारण हिन्दुओं का मत कट सकता है। तो दो ही मुख्य नेता थे, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ। इसमें सिंधिया को पूरी तरह नजरअंदाज करना इस दु:खद सच को साबित कर रहा था कि पार्टी का जो भी केन्द्रीय नेतृत्व बचा है उसको वस्तुस्थिति का अहसास नहीं है। राजस्थान में सचिन पायलट को स्पष्ट विद्रोह के बाद सरकार में दूसरे नंबर की जगह दी गई, लेकिन सिंधिया को नहीं। राज्यसभा चुनाव में आप उनको उम्मीदवार न बनाएं तो उनसे राय-विमर्श तक नहीं करेंगे! यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस पार्टी को विधानसभा में पूर्ण बहुमत तक नहीं था, सरकार निर्दलियों, बसपा एवं सपा के समर्थन से चल रही थी, उसके नेता ऐसे व्यवहार कर रहे थे मानो वे अपार बहुमत की सरकार चला रहे हों। कांग्रेस का विद्रोह तो छोड़िए, चार निर्दलीय, दो बसपा एवं एक सपा के विधायक तक के पाला बदलने के साथ सरकार अल्पमत में आ जाती।

वास्तव में विधायक ही नहीं कई मंत्री कमलनाथ पर निरंकुश शैली अपनाने का आरोप लगाते रहे, किंतु जब केन्द्र के स्तर पर ही अस्त-व्यस्तता हो तो कोई शिकायत करे तो कहां। एक विधायक ने त्यागपत्र देते हुए कहा भी है कि जब क्षेत्र का और जनता का काम ही नहीं होगा तो विधायक रहने से क्या फायदा। उनके अनुसार कमलनाथ से जब भी मिलने जाओ वे कहते थे कि बाद में आना। अगर यह सच है तो केवल एक व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार कमलनाथ का नहीं रहा होगा। आप सोचिए न जब सिंधिया ने एक सभा में कहा कि अगर जनता से किए गए वायदे पूरे नहीं हुए तो उन्हें सड़कों पर आना होगा तो कमलनाथ का टका सा प्रत्युत्तर था कि जिसे सड़क पर आना है वो जरुर आए। इससे ज्यादा किसी को उत्तेजित करने वाला जवाब क्या हो सकता था? इसके बाद सिंधिया के पास क्या रास्ता बचा था। भाजपा ज्यादा मत पाते हुए भी बहुमत से वंचित रह गई थी। इसमें उसकी नजर कांग्रेस और सरकार के आंतरिक कलह पर रहनी ही थी। इसका लाभ उठाने की कोशिश भी उसे करना था। क्या कमलनाथ , दिग्विजय सिंह और सोनिया गांधी एवं उनके रणनीतिकारों को इसका अहसास नहीं था। ऐसी स्थिति में तो उन्हें ज्यादा सतर्क रहना चाहिए था। राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद हुई बैठक में पुराने नेताओं को आड़े हाथों लिया, लेकिन सुधार करने की जगह अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद पार्टी के आलाकमान का ढांचा ही चरमरा गया। इसका लाभ कांग्रेस की प्रदेश सरकारों के सारे मुख्यमंत्री और प्रमुख नेता उठा रहे हैं। विद्रोह भी हो रहा है, जिसका समाधान करने वाला कोई नहीं है। सोनिया गांधी की समस्या है कि वे उन लोगों को नाराज नही कर सकतीं जो नेतृत्व कर रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा विश्वस्त नेता की कमलनाथ और दिग्विजय की तुलना में अनदेखी से पता चलता है कि कांग्रेस कितने गहरे संकट का शिकार है। कमलनाथ आए और 20 मिनट में सोनिया गांधी से मिलकर अभयदान लेकर वापस चले गए, लेकिन सिंधिया की सुनने वाला कोई नहीं। पार्टी कमान की ऐसी दशा में मध्यप्रदेश की अल्पबहुमत पर टिकी सरकार का यही स्वाभाविक हस्र है।

इस तरह मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार का पतन स्वयं कांग्रेस नेतृत्व की विफलता है। हम मानते हैं कि जनादेश के आधार पर कोई सरकार गठित होती है तो उसे कार्यकाल पूरा करना चाहिए, लेकिन आप महाराष्ट्र में भाजपा एवं शिवसेना गठबंधन को बहुमत मिलने के बावजूद सरकार बना लीजिए तो वह नैतिक और मध्यप्रदेश में भाजपा आपके आंतरिक विद्रोह का लाभ उठा ले तो वह अनैतिक हो गया इस तर्क से आज कोई निरपेक्ष व्यक्ति सहमत नहीं हो सकता। प्रकारांतर से भाजपा ने महाराष्ट्र का राजनीतिक प्रतिशोध ले लिया है। कर्नाटक का जनादेश भी कांग्रेस के खिलाफ था, लेकिन भाजपा के बहुमत से थोड़ा पीछे रहने का लाभ उठाकर इसने जद-से के साथ मिलकर सरकार बना लिया। उसे किस पैमाने पर नैतिक कहा जाएगा? हालांकि उसका हस्र भी वही हुआ जो आज मध्यप्रदेश का है। अगर कांग्रेस अपनी सांगठनिक, वैचारिक और रणनीतिक दुर्दशा को दूर नहीं किया तो उसे आगे भी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ेगा। इस घटना से भाजपा के अंदर नया आत्मविश्वास आ सकता है कि उसकी ओर अभी भी नेताओं का आकर्षण है और इसका असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी होगा।

(वरिष्ठ लेखक अवधेश कुमार की कलम से)

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