मैथिलीशरण गुप्त ने देश में किया था राष्ट्रभक्ति का संचार

मैथिलीशरण गुप्त का जन्म तीन अगस्त 1886 को यूपी के झांसी जिले के चिरगांव हुआ था। इनका निधन 12 दिसम्बर 1964 को चिरगांव में हुआ। मैथिलीशरण गुप्त ने राष्ट्रीय विचारधारा से ओत प्रोत विभिन्न रचनाएं लिखी। जिसके लिये ये राष्ट्रकवि के रूप में जाने जाते हैं। मैथिलीशरण गुप्त के पिता का नाम 'सेठ रामचरण' व माता का नाम 'काशीबाई' था। इनके पिता भी कविता किया करते थे। गुप्त की प्रारम्भिक शिक्षा चिरगांव, झांसी के राजकीय विद्यालय में हुई। प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के बाद वे झांसी के मेकडॉनल हाईस्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए भेजे गए, लेकिन वहां इनका मन नहीं लगा व दो वर्ष बाद ही घर पर इनकी शिक्षा का प्रबंध किया गया। फिर इन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिन्दी व बांग्ला साहित्य का व्यापक अध्ययन किया। मैथिलीशरण गुप्त ने काव्य के क्षेत्र में अपनी लेखनी से संपूर्ण देश में राष्ट्रभक्ति की भावना भर दी थी।
मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय विचारधारा से ओत प्रोत यह रचना स्कूल, कॉलेज, देश में विभिन्न जगहों और दीवारों पर आज भी लिखी दिखाई देती है। जिसको पढ़कर लोगों में राष्ट्रभक्ति का संचार होता है।
जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रकवि के सोपान तक पदासीन हुए। महात्मा गांधी ने इन्हें राष्ट्रकवि कहे जाने का गौरव प्रदान किया। भारत सरकार ने भी उनकी देश सेवाओं को देखते हुए उन्हें दो बार राज्यसभा भी भेजा था। हिन्दी में मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-साधना सदैव यार रहेगी। बुंदेलखंड में जन्म लेने के कारण मैथिलीशरण गुप्त बोलचाल में बुंदेलखंडी भाषा का इस्तेमाल करते थे। धोती व बंडी पहनकर माथे पर तिलक लगाकर संत के रूप में रहा करते थे। इन्होंने अपनी साहित्यिक साधना से हिन्दी को समृद्ध किया। गुप्त के जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भर गए थे। इसी वजह इनकी रचनाएं राष्ट्रीय विचारधारा से ओत प्रोत है। वे भारतीय संस्कृति, इतिहास के परम भक्त थे। लेकिन वे अंधविश्वासों व थोथे आदर्शों में बिल्कुल विश्वास नहीं करते थे। वे भारतीय संस्कृति की नवीनतम रूप की कामना करते थे।
मैथिलीशरण गुप्त स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और वे उस दौर की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य वैष्णव भावना के साथ- साथ जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था।
विपिनचंद्र पाल, लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, गणेश शंकर विद्यार्थी व मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श रहे। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व ही मैथिलीशरण गुप्त का युवा मन गरम दल व तत्कालीन क्रान्तिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। 'अनघ' से पूर्व की रचनाओं में, विशेषकर जयद्रथ वध व भारत भारती में कवि का क्रान्तिकारी स्वर सुनाई पड़ता है।
बाद में महात्मा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू व विनोबा भावे के सम्पर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष व सुधारवादी आंदोलनों के समर्थक बने। 1936 में गांधी ने ही उन्हें मैथिली काव्य–मान ग्रन्थ भेंट करते हुए राष्ट्रकवि का सम्बोधन दिया।
महावीर प्रसाद द्विवेदी के सुझावों से गुप्त की काव्य–कला में निखार आया व इनकी रचनाएं 'सरस्वती' में लगातार प्रकाशित होती रहीं। 1909 में उनका पहला काव्य जयद्रथ-वध आया था। जयद्रथ-वध की लोकप्रियता ने गुप्त को लेखन व प्रकाशन की प्रेरणा दी। गुप्त ने 59 वर्षों में गद्य, पद्य, नाटक, मौलिक व अनूदित सब मिलाकर, हिन्दी को लगभग 74 रचनाएं प्रदान की हैं। जिनमें दो महाकाव्य, 20 खंड काव्य, 17 गीतिकाव्य, चार नाटक व गीतिनाट्य हैं।.
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