सबको मिले स्वास्थ्य, पर कैसे?

सबको मिले स्वास्थ्य, पर कैसे?
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विश्व स्वास्थ्य दिवस का थीम डब्लूएचओ ने फिर से सब के लिए स्वास्थ्य तय किया है। आम लोगों को लगेगा कि यह तो बहुत सराहनीय है। वैसे भी कथित तेज़ आर्थिक विकास के दौर में लोगों का स्वस्थ्य रहना ज़रूरी है, व्यवहार में भले ही यह संभव न हो। कम से कम लोग नाउम्मीद तो नहीं होंगे ।

भारत ने 1978 में ‘‘अल्माअता घोषणा पत्र’’ पर हस्ताक्षर कर ‘‘वर्ष 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य’’ लक्ष्य पाने की प्रतिबद्धता जताई थी। 1981 में आईसीएसएसआर (इंडियन काउंसिल फाॅर सोशल साइन्स रिसर्च) तथा आईसीएमआर (इंडियन काउन्सिल फाॅर मेडिकल रिसर्च) के संयुक्त पैनल ने ‘सबके लिए स्वास्थ्य - एक वैकल्पिक राजनीति’’ शीर्षक से एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी। 1983 में भारतीय संसद ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को पारित कर इस लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प लिया था। लेकिन आज तक इस नीति पर न तो अमल हुआ है और न ही किसी भी राजनीतिक दल के मुख्य एजेण्डा में यह मुद्दा शामिल हुआ।

वर्ष 2023 के विश्व स्वास्थ्य दिवस (7 अप्रैल) का थीम डब्लूएचओ ने फिर से “सब के लिए स्वास्थ्य” तय किया है। आम लोगों को लगेगा कि यह तो बहुत सराहनीय है। वैसे भी कथित तेज़ आर्थिक विकास के दौर में लोगों का स्वस्थ्य रहना ज़रूरी है, व्यवहार में भले ही यह संभव न हो। कम से कम लोग नाउम्मीद तो नहीं होंगे ! भारत सरकार के नीति आयोग ने विगत 27 दिसंबर 2021 को राज्य स्वास्थ्य सूचकांक तात चैथा संस्करण जारी किया है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश का सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य उत्तरप्रदेश (30.57 अंक के साथ) सबसे निचले पायदान पर है, जबकि कम आबादी वाला राज्य केरल (82.2अंक के साथ) राज्य सूचकांक में सबसे ऊपर है। हिन्दी पट्टी के लगभग सभी राज्य स्वास्थ्य सूचकांक में अच्छी स्थिति में नहीं हैं। बिहार (31),मध्य प्रदेश (36.72), हरियाणा (49.26), असम (47.74), झारखंड (47.55), ओडिसा (44.31), उत्तराखंड (44.21), राजस्थान (41.33) आदि राज्यों का इंडेक्स स्कोर 50 से कम ही है। ज़ाहिर है स्वास्थ्य सूचकांक की यह दशा सबके लिए स्वास्थ्य के जुमले को यथार्थ में कैसे बदल पाएगी? बिना मज़बूत हेल्थ ढांचे के जन जन तक स्वास्थ्य को पहुँचाना भला कैसे संभव होगा?

हमारे देश में स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे कभी आर्थिक सुधारों के केन्द्र में नहीं रहे बल्कि इन्हें सुधारों के मुख्य लक्ष्य, निवेश और विकास की राह में बाधक माना जाता है। देखा जा सकता है कि विभिन्न संक्रामक रोगों में आर्थिक सुधार एवं सरकार की नई आर्थिक नीतियों का ‘जन स्वास्थ्य’ पर गहरा असर है। भारत ने 1978 में ‘‘अल्माअता घोषणा पत्र’’ पर हस्ताक्षर कर ‘‘वर्ष 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य’’ लक्ष्य पाने की प्रतिबद्धता जताई थी। 1981 में आईसीएसएसआर (इंडियन काउंसिल फाॅर सोशल साइन्स रिसर्च) तथा आईसीएमआर (इंडियन काउन्सिल फाॅर मेडिकल रिसर्च) के संयुक्त पैनल ने ‘सबके लिए स्वास्थ्य - एक वैकल्पिक राजनीति’’ शीर्षक से एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी। 1983 में भारतीय संसद ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को पारित कर इस लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प लिया था। लेकिन आज तक इस नीति पर न तो अमल हुआ है और न ही किसी भी राजनीतिक दल के मुख्य एजेण्डा में यह मुद्दा शामिल हुआ। यह वैश्विक आपदा का दौर है।

इसमें जहां देश के लोग सरकार से वैश्विक स्तर के पहल की उम्मीद कर रहे हैं, वहां सरकार सम्पन्न और बाजार को अहमियत देने वाले देशों का मात्र नकल कर रही है। 1977 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की तीसवीं विश्व स्वास्थ्य सभा ने सत्रह दिनों की मैराथन बैठक के बाद “2000 तक सबको स्वास्थ्य” का संकल्प स्वीकार किया था। दुनिया भर में इस घोषणा और पहल की सराहना हुई थी। इस बैठक में 194 सदस्य देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। लक्ष्य के 23 वर्षों के बावजूद “2000 तक सब को स्वास्थ्य” का नारा जुमला सिद्ध हुआ। उस दौरान सरकारों की पहल और स्वास्थ्य कार्यक्रमों को देख कर जन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने स्थिति का अंदाज़ा लगा लिया था और तब “लोगों के स्वास्थ्य के अधिकार” की गारंटी की माँग उठने लगी थी।

इस दौरान “सबके लिए स्वास्थ्य” के संकल्प के प्रति सरकार कितनी गंभीर थी, इसका अंदाज़ा आप इसी से लगा सकते हैं कि तब सरकार स्वास्थ्य पर कुल बजट का एक फ़ीसद भी ख़र्च नहीं कर पा रही थी। स्पष्ट है कि संकल्प और घोषणा के बावजूद भी लोगों का स्वास्थ्य सरकार की प्राथमिकता सूची में नहीं था। बाद में 2000 से 2015 तक “मिलेनियम डेवलपमेंट गोल” की घोषणा कर दी गई। यह समय भी बीत गया। हुआ कुछ ख़ास नहीं। फिर 2015 से 2030 तक के लिए “सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल” का लक्ष्य तय कर दिया गया। यानी अमल हो या न हो जुमलों की घोषणा होती रही।

सवाल है कि जन स्वास्थ्य की इतनी महत्ता और जरूरत के बावजूद भारत में इसकी उपेक्षा की मुख्य वजहें क्या हैं। सरकार चाहे किसी भी राजनीतिक दल की हो, जन स्वास्थ्य की हालत एक जैसी ही है। देश में ‘‘सबको स्वास्थ्य’’ के संकल्प के बावजूद विगत दो दशक में हम देश में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को भी खड़ा नहीं कर पाए। उल्टे ‘सबको स्वास्थ्य’ के नाम पर हमने गरीब बीमारों को बाजार के हवाले कर दिया है। आम आदमी की सेहत को प्रभावित करने वाले रोग टीबी, मलेरिया, कालाजार, मस्तिष्क ज्वर, हैजा, दमा, कैंसर आदि को रोक पाना तो दूर हम इसे नियंत्रित भी नहीं कर पाए, उल्टे जीवन शैली के बिगाड़ और अय्याशी से उपजे रोगों को महामारी बनने तक पनपने दिया। अब स्थिति यह है कि रोगों का भी एक वर्ग और टी.बी., मस्तिष्क ज्वर, पोलियो गरीबों के रोग कहे जाने लगे और मधुमेह, उच्चरक्तचाप, थायराइड, हृदय रोग आदि अमीरों के रोग मान लिए गए। हम भूल गए कि जन स्वास्थ्य की पहली शर्त है कि रोग से बचाव। इसमें जाति, धर्म और नस्ल तलाशने की बजाय यदि समाज और सरकार व्यापक बचाव की राह बढ़ती और इसके समग्र पहलुओं पर विचार करती तो स्थिति कुछ और होती।

भारत में स्वास्थ्य की स्थिति पर नज़र डालें तो सूरत ए हाल और चिन्ताजनक है। स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भी खस्ता है। अन्य देशों की तुलना में भारत में कुल राष्ट्रीय आय का लगभग 4 प्रतिशत ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होता है जबकि चीन 8.3 प्रतिशत, रूस 7.5 प्रतिशत तथा अमेरिका 17.5 प्रतिशत खर्च करता है। विदेशों में हेल्थ की बात करें तो फ्रांस में सरकार और निजी सैक्टर मिलकर फंड देते हंै जबकि जापान में हेल्थकेयर के लिये कम्पनियों और सरकार के बीच समझौता है। आस्टि्रया में नागरिकों को फ्री स्वास्थ्य सेवा के लिये ”ई-कार्ड“ मिला हुआ है। हमारे देश में फिलहाल स्वास्थ्य बीमा की स्थिति बेहद निराशाजनक है। अभी यहां महज 28.80 करोड लोगों ने ही स्वास्थ्य बीमा करा रखा है इनमें 18.1 प्रतिशत शहरी व 14.्1 फीसदी ग्रामीण लोगों के पास हेल्थ इंश्योरेंस है। इसमें शक नहीं है कि देश मंे महज इलाज की वजह से गरीब होते लोगांे की एक बड़ी संख्या है।

अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान ;एम्स के एक शोध में यह बात सामने आई है कि हर साल देश में कोई 8 करोड लोग महज इलाज की वजह से गरीब हो जाते हैं। यहां की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था ऐसी है कि लगभग 40 प्रतिशत मरीजों को इलाज की वजह से खेत-घर आदि बेचने या गिरवी रखने पड़ जाते हैं। समाधान के रूप में डब्लूएचओ तथा विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) ‘‘स्वास्थ्य में निवेश’’ की बात करता है। उक्त दोनों अन्तरराष्ट्रीय संगठनों ने इसके लिए पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) माॅडल को अपनाने का सुझाव दिया। इसके विगत तीन दशकों में रोग भी जटिल हुए और विषमता भी बढ़ी है।

डब्लूएचओ की शुरूआती रिपोर्ट पर गौर करें तो पता चलता है कि सम्पन्न देशों में लोगों की स्वास्थ्य समस्याएं ज्यादातर अत्यधिक अमीरी से उत्पन्न हुई जबकि तीसरी दुनिया का विकासशील व अविकसित देशों में बीमारी की वजह संसाधनों की कमी, कुपोषण और गन्दगी ही है। डब्लूएचओ को अन्ततः यह मानना पड़ा था कि ‘‘अत्यधिक गरीबी’’ भी एक रोग है और इसे खत्म किए बगैर ‘‘सबको स्वास्थ्य’’ का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता।

डाॅ. अदिति अरुण (लेखिका युवा होमियोपैथिक चिकित्सक एवं आहार विशेषज्ञ हैं। वह सम्प्रति लन्दन में कार्यरत हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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