आलोक यात्री का लेख : पलायन विकट मानवीय त्रासदी

आलोक यात्री
युद्ध, भूख और आपदा आदमी का भूगोल बदल देती है। यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद लोगों के पलायन को दूसरे विश्व युद्ध के बाद की सबसे विकट मानवीय त्रासदी माना जा सकता है। अब तक करीब 20 लाख महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग यूक्रेन से पड़ोसी मुल्कों की सीमाओं में प्रवेश कर चुके हैं। 21वीं सदी के दो दशकों के दौरान विश्व के कई देशों के नागरिकों के सामने विस्थापित होने का खतरा कई तरह से मंडरा रहा है। सीरिया और अफगानिस्तान के बाद यूक्रेन भी उन देशों की सूची में शामिल हो गया है, जहां के खुशहाल नागरिक अपनी जड़ों से कटकर दूसरे मुल्क की मेहरबानी पर पलने को मजबूर हैं।
किसी भी राष्ट्र के नागरिकों के लिए युद्ध कई तरह की विभिषिकाएं लेकर आता है। जान बचाने की कीमत उन्हें शरणार्थी के रूप में चुकानी पड़ती है। एक उन्मादी शासक के भू-राजनीतिक उन्माद ने लाखों लोगों की जिंदगी को जीवनभर संघर्ष के लिए अभिशप्त कर दिया है। दुनियाभर में 8 करोड़ से भी अधिक लोग शरणार्थी के तौर पर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ताजा शरणार्थी संकट कई नए सवाल खड़े करता है। मसलन दुनिया एक बड़ी आबादी विस्थापना के संकट से कैसे निकलेगी? इतनी बड़ी आबादी को पनाह कहां मिलेगी? इनके भरण-पोषण की जिम्मेदारी का खर्च कहां से जुटेगा? एक मोटे अनुमान के अनुसार इन विस्थापितों पर प्रति व्यक्ति यदि 2 सौ रुपये प्रतिदिन का खर्च भी आंका जाए तो एक दिन का खर्च ही 40 करोड़ रुपये से अधिक का बैठता है। पोलैंड जैसे देश को इन यूक्रेन शरणार्थियों की अगर साल भर भी आवभगत करनी पड़ी तो यह आंकड़ा रुपये में 1 खरब 47 अरब या डॉलर में 2 अरब 10 करोड़ डॉलर के पार पहुंच जाएगा। हाल ही में अमेरिकी प्रतिनिधि सभा ने यूक्रेन को 13.6 अरब डॉलर कीे आर्थिक सहायता के विधेयक को मंजूरी दी है। यह राशि शरणार्थियों के लालन-पालन के लिए भी नाकाफी प्रतीत होती है। यूक्रेन की आबादी लगभग 4.5 करोड़ है। युद्ध के एक पखवाड़े के दौरान तबाही की भयावहता बताती है कि देश की करीब आधी आबादी पर विस्थापित होने का खतरा है। मानवीयता के चलते यूक्रेन के नागरिकों को अभी तो दूसरे देशों में शरण मिल रही है, लेकिन पनाह देने वाले देशों की भी अपनी सीमाएं हैं। संयुक्त राष्ट्र इस त्रासदी को विश्व का सबसे बड़ा शरणार्थी संकट पहले ही घोषित कर चुका है। संयुक्त राष्ट्र का पूर्वानुमान है कि करीब 40 लाख यूक्रेनी देश छोड़कर जा सकते हैं। पोलैंड के अलावा मोल्दोवा और रोमानिया में भी यूक्रेन शरणार्थियों की संख्या 5 लाख का आंकड़ा छू रही है। पड़ोसी मुल्कों की सीमाओं पर शरणार्थियों की दस-दस मील लंबी कतारें लगी हैं। ऐसी विकट स्थिति के चलते पोलैंड के अलावा स्लोवाकिया ने शरणार्थियों को पासपोर्ट या वैद्य यात्रा दस्तावेजों के बिना ही देश में प्रवेश की अनुमति देकर मानवीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। इन देशों के सामने इतनी बड़ी संख्या में इन लोगों के लिए शरणार्थी कैंप बनाना भी एक चुनौती है।
गौरतलब है कि 2015 में सीरिया में शुरू हुए युद्ध के समय भी यूरोपीय देशों को शरणार्थी संकट देखना पड़ा था। एक तरफ हम जहां यूरोपीय देशों का मानवीय चेहरा देख रहे हैं, वही इस तस्वीर का दूसरा पहलू बिल्कुल उल्टा नजर आ रहा है। यूक्रेन से पलायन करने वाले श्वेत यूक्रेनी नागरिकों के साथ जिस तरह का सहानुभूति भरा व्यवहार किया जा रहा है वैसा यूक्रेन के पश्चिम एशियाई और अफ्रीकी मूल के नागरिकों के साथ नहीं किया जा रहा है। इन पर नस्लीय टिप्पणी की खबरें भी आ रही हैं।
यूक्रेन के संकट को दुनियाभर के शरणार्थी संकट से अलग करके नहीं आंका जा सकता। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार दुनिया में विस्थापितों की संख्या पहले से ही 8 करोड़ से अधिक है। दुनिया भर में शरणार्थियों की यह संख्या जर्मनी की कुल आबादी से भी अधिक है। युद्ध अभी फिलहाल रूस और यूक्रेन के बीच चल रहा है। इसमें यदि दूसरे देश भी शामिल हो गए तो कितने और लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा यह अनुमान से परे की बात है। भारत, पाकिस्तान और नेपाल जैसे देश भी वर्षों से शरणार्थी संकट से जूझ रहे हैं। भारत में बांग्लादेशी, म्यांमारी, तिब्बती, अफगानी, सोमाली, रोहिंग्याई पाकिस्तानी और श्रीलंकाई समेत कई पड़ोसी मुल्कों से आए शरणार्थियों का मसला पहले से ही काफी संवेदनशील है। शरणार्थी भारत ही नहीं किसी भी देश के लिए एक स्थाई समस्या बन जाते हैं। क्योंकि इससे देश के आर्थिक संसाधनों पर अत्यधिक बोझ बढ़ने के साथ लंबी अवधि में जनसांख्यिकी एक परिवर्तन की संभावना भी बढ़ जाती है। आज जब हमारे सामने यूक्रेनी शरणार्थियों की तस्वीर आ रही है तो हमें 6 साल पहले सामने आई तीन साल के बच्चे आयलान कुर्दी की वह तस्वीर भी याद करनी चाहिए जिसमें इस नन्हे बालक का शव मुंह के बल तुर्की के बोडरम समुद्र तट पर पड़ा दिखाई दे रहा था। सीरियाई मूल के इस मासूम की मौत ने पूरी दुनिया को दहला दिया था। बीते साल अगस्त माह में अफगानिस्तान में हम ऐसी सैकड़ों तस्वीरें देख चुके हैं।
यूनाइटेड नेशन ह्यूमन राइट काउंसिल ने अगस्त 2021 में दावा किया था कि तालिबानी हुकूमत के चलते अफगानिस्तान के 50 लाख से अधिक लोग अपने घर और इलाके से बेदखल होकर शरणार्थी बन चुके हैं। ताजा शरणार्थी संकट के चलते यह प्रश्न एक बार फिर प्रासंगिक हो रहा है कि विश्व नागरिकता की अवधारणा कब साकार होगी? गौरतलब है कि कुछ देश वैश्विक और समावेशी नागरिकता के सशर्त समर्थक हैं। शर्तों में कुछ खास यह है कि वह (शरणार्थी) शिविरों में अवैध प्रवासी के रूप में ही रहेंगे, बच्चों को नियमित रूप से न तो पढ़ा सकेंगे और न ही कोई संपत्ति अर्जित कर सकेंगे। विश्व नागरिकता की अवधारणा अभी साकार नहीं हुई है। फिर भी इसके आकर्षण में एक यह है कि इससे राष्ट्रीय सीमाओं के दोनों ओर की उन समस्याओं का निराकरण सरल हो सकता है जिसमें कई देशों की सरकारों और लोगों की कार्यवाही आवश्यक होती है, जिससे शरणार्थियों की समस्या का सर्वमान्य समाधान पाना सरल हो सकता है, या कम से कम उनके बुनियादी अधिकार और सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है। चाहे वह किसी भी देश में रहते हों। मौजूदा शरणार्थी संकट के बरक्स हमें कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के ताजा ऐलान का स्वागत करना चाहिए, जिसमें पोलैंड की यात्रा के दौरान उन्होंने घोषणा की है कि यूक्रेन में युद्ध के कारण देश छोड़ रहे लोगों में से जितनों को संभव होगा कनाडा मदद देगा। ट्रूडो यह कहने से भी नहीं चूके 'वे जब यहां आएंगे तो हम उन्हें पढ़ने, काम करने की अनुमति देंगे। कई लोगों को उम्मीद होगी कि संघर्ष खत्म होने के बाद वे यूक्रेन लौट पाएंगे, वहीं कई कनाडा जैसे देशों में ही आगे का जीवन बिताना चाहेंगे और हम जितनों को संभव होगा शरण देंगे।' ट्रूडो की यह पहल एक बार फिर शरणार्थी बनाम विश्व नागरिकता की अवधारणा पर सवाल उठाती है। जिसकी संभावना तलाशा जाना अब और भी प्रासंगिक हो गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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