Modi's Historic Win : ऐसे समझें इस जीत के मायने

लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत को लेकर वैश्विक मीडिया में कहा जा रहा है कि यह हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी की जीत है। खासतौर से मुस्लिम देशों के मीडिया में चिंताएं भी व्यक्त की गई हैं। इतना ही नहीं मोदी की इस जीत को पश्चिमी देशों में प्रचलित इस्लामोफोबिया यानी मुसलमानों से नफरत की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जा रहा है। भारत के विश्लेषक नहीं समझ पा रहे हैं कि इसे साम्प्रदायिकता कहा जाए, राष्ट्रवाद, देश-भक्ति या वहाबी इस्लाम के विरोध में हिंदू-प्रतिक्रिया या कुछ और? यह पुलवामा और बालाकोट के कारण है या कश्मीर में चल रहे घटनाक्रम पर देश के नागरिकों की लोकतांत्रिक टिप्पणी है?
क्या हम इन सवालों से मुंह मोड़ सकते हैं? वोटरों ने इन्हें महत्वपूर्ण माना है। उसे साम्प्रदायिकता का नाम देने से बात खत्म नहीं होगी। वोटर को जरूर कुछ बातें परेशान करती हैं, तभी वह इतना खुलकर सामने आया है। यह भी सच है कि दुनियाभर में चरम राष्ट्रवाद की हवाएं बहने लगी है, पर क्यों? यह क्रिया की प्रतिक्रिया भी है। गत 15 मार्च को न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर की दो मस्जिदों में हुए हत्याकांड ने दो तरह के संदेश एक साथ दुनिया को दिए।
इस घटना ने गोरे आतंकवाद के नए खतरे की ओर दुनिया का ध्यान खींचा था, वहीं न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न ने जिस तरह से अपने देश की मुस्लिम आबादी को भरोसा दिलाया, उसकी दुनियाभर में तारीफ हुई। यकीनन मुम्बई हमले के बाद पाकिस्तान सरकार ने लश्करे तैयबा के खिलाफ कार्रवाई की होती, तो भारत के लोगों के मन में इतनी कुंठा नहीं होती।
दुनिया में ह्वाइट सुप्रीमैसिस्टों और नव-नाजियों के हमले बढ़े हैं। अमेरिका में 9/11 के बाद हाल के वर्षों में इस्लामी कट्टरपंथियों के हमले कम हो गए हैं और मुस्लमानों तथा एशियाई मूल के दूसरे लोगों पर हमले बढ़ गए हैं। यूरोप में पिछले कुछ दशकों से शरणार्थियों के विरोध में अभियान चल रहा है। मुसलमान और अश्वेत लोग हमलावर हैं और वे हमारे हक मार रहे हैं। इस किस्म की बातें अब बहुत ज्यादा बढ़ गईं हैं।
न्यूयॉर्क पर हुए हमले के बाद ऐसी बातें बढ़ीं और पिछले दो-तीन वर्षों में इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट के उदय और यूरोप में आई करीब 20 लाख शरणार्थियों की बाढ़ से कड़वाहट बढ़ गई है। इसका फायदा दक्षिणपंथी राजनीति उठा रही है। इटली और ऑस्ट्रिया में धुर दक्षिणपंथी सरकारें सत्ता में आ गईं हैं। चेक गणराज्य, डेनमार्क, फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी, यूनान, हंगरी, इटली, नीदरलैंड्स, स्वीडन और स्विट्जरलैंड में दक्षिणपंथी पार्टियां सिर उठा रही हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि नई पीढ़ी इनमें शामिल हो रही है। हाल में ब्राजील में भी दक्षिणपंथी सरकार बनी है। सन 2016 में जब अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव चल रहा था, तब ये सवाल हवा में थे। अगले साल होने वाले चुनाव में ये सवाल उठेंगे। अमेरिका की आंतरिक राजनीति में भी दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। सन 2008 में बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद से गोरों की नफरतें और बढ़ीं।
देश के अश्वेतों में बड़ी संख्या मुस्लमानों की भी है। ट्रम्प के उदय के पीछे एक भावना यह भी है। यूरोप के दक्षिणपंथी खुद को अमेरिका के दक्षिणपंथियों से जोड़कर देखते हैं। अमेरिका में 'आइडेंटिटी एवरोपा' नाम का संगठन तेजी से बढ़ रहा है। अमेरिकी सेना के भीतर भी गोरों और अश्वेतों के बीच तनाव की खबरें हैं। ह्वाइट सुप्रीमेसी के पक्ष में अक्सर नारे और बैनर-पोस्टर लगाए जाने की खबरें आती हैं।
हाल में इसरायल में हुए चुनाव में बेंजामिन नेतन्याहू फिर से जीतकर आए हैं। उन्हें भी कट्टरपंथी माना जाता है। हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बान ने आव्रजकों को रोकने के लिए दीवार बना दी है और खुद को क्रिश्चियन यूरोप का रक्षक घोषित कर दिया। जर्मनी, पोलैंड, स्वीडन और इटली हर जगह मुस्लमान शरणार्थियों का विरोध हो रहा है। यूक्रेन दक्षिणपंथी राजनीति का केन्द्र बना हुआ है। जर्मनी में फिर से राष्ट्रवाद के सवाल उठ रहे हैं।
इस्लामोफोबिया कोई नया शब्द नहीं है। अब से सौ साल पहले भी यह प्रचलन में था। इस्लाम एक अंतरराष्ट्रीय अवधारणा है। वह मुस्लमानों के भाईचारे और खासतौर से उम्मा पर जोर देता है। उम्मा अरबी भाषा का शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है समुदाय या कौम। यह राष्ट्र से ज्यादा बड़े अर्थ को व्यक्त करता है। उम्मत-अल-इस्लाम का सामान्यतः मतलब विश्व-व्यापी मुस्लिम समुदाय से होता है। इस्लाम को मानने वालों का विश्व-समुदाय। पर बात केवल सामूहिक धार्मिक कर्म-कांड तक सीमित नहीं है। इस्लाम उस अर्थ में सीमित धर्म नहीं है। बल्कि उसके पास अपनी प्रशासनिक-राजनीतिक और न्याय-व्यवस्था भी है।
भारतीय-राष्ट्रवाद की अवधारणाओं ने कुछ अलग शक्ल ली है। इसके साथ हिंदू-राष्ट्रवाद शब्द जुड़ता है तो उसका अर्थ कट्टरपंथी सोच से जुड़ जाता है। पहले राष्ट्रीय आंदोलन 1857 से ही देश में धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान एक महत्वपूर्ण कारक बनकर उभरी हैं। बीसवीं सदी के राष्ट्रीय आंदोलन में ये पहचानें कई बार एकाकी और कई बार मिलकर औपनिवेशिक ताकत से लड़ीं। महाराष्ट्र का गणेशोत्सव और बंगाल की दुर्गा-पूजा इसी राष्ट्रीय भावना की देन हैं। बीसवीं सदी के शुरू में गांधी जी ने मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जोड़ने के लिए खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया था।
केन्द्र में मोदी सरकार की जीत के बाद कई तरह के सवाल उठे हैं। क्या यह कट्टरपंथ की जीत है? कुछ लोगों ने कहा है कि अब मुसलमान अलग-थलग हो जाएंगे? हमारे समाज का ताना-बाना टूट जाएगा। बेशक ऐसे सवाल हैं, पर इन सवालों की अलग-अलग पृष्ठभूमियां हैं। सभी दलों को ऐसे सवालों पर मनन करना चाहिए। हाल में श्रीलंका में हुए सीरियल विस्फोटों के बाद ऐसे सवाल वहां भी उठाए जा रहे हैं।
क्यों कोई समाज कट्टरपंथी रास्ते पर बढ़ता है? क्यों हम पहचान के सवालों को लेकर एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं? इस कट्टरपंथ का वैश्वीकरण हुआ है। तकनीक और साधनों ने विचारधाराओं को वैश्विक मंच प्रदान किए हैं। कुछ साल पहले जब इस्लामिक स्टेट की सेना में भर्ती होने गए भारतीय नौजवानों के बारे में जानकारियां सामने आईं, तो सोशल मीडिया की भूमिका पर भी रोशनी पड़ी। फिलहाल ये सवाल है, इनके जवाबों पर विचार करें। इसमें सभी समुदायों को शामिल करें।
और पढ़े: Haryana News | Chhattisgarh News | MP News | Aaj Ka Rashifal | Jokes | Haryana Video News | Haryana News App
© Copyright 2025 : Haribhoomi All Rights Reserved. Powered by BLINK CMS
-
Home
-
Menu
© Copyright 2025: Haribhoomi All Rights Reserved. Powered by BLINK CMS